मानव–जानवर इन दोनों के रिश्तों का एक गठबधंन है। इसे एक तरह का जातक वर्ग भी कह सकते हैं। दोनों ही सूरतों में जीवन अदभुत है। ये भी उस जीवन की उपज है जिससे हम खुद को जानने व समझने की चेष्टा में जीते रहे हैं। शरीर, मानव इतिहास का लेखा-जोखा है। ये रहन-सहन के बदलते ढ़ग और परिस्थितियों की रगड़ से मांजा गया बर्तन है। शरीर के कई पहलू हैं, कई भावनायें हैं। जिसमे ये सांस रूपी धड़कन संवेदनाओ की भांती विचरण करती फिरती है।
मनुष्य क्या है? और कौन है? इस सवाल को मैं अपने से अलग करके कतई भी नहीं सोच सकता। इसलिए मैं मनुष्य होकर अपने मनुष्य वर्ग को समाज से अलग कर के नहीं सोच रहा। इसे जानवरो से कुछ कदम आगे चलने वाला, आन्नद उठाने वाला जातक मानता हूँ। शायद, मैं किसी को इस बात से संतुष्ट नहीं कर पांऊ कि आप ही मनुष्य है। या फिर क्या आप ही मनुष्य है? लेकिन अपने से निकली तरंगो को किसी दूसरे शरीर की तरंगो से टकराते देखकर जो छटपटाहट मुझे होती है उसी से चेताई हुई बैचेनी को समझ रहा हूँ।
पता नहीं, ये तरह-तरह कि चीजों और छवि के टकराव की आग मेरे सीने में कब तक सुलघती रहेगी? ये आग मैं बुझाना भी नहीं चाहता क्योंकि इस आग मे स्वह होकर मैं शरीर में जुड़े तत्वो की आपार संरचना से अपनी मौज़ुदगी की वजह जानना चाहता हूँ। जिसमे तरह-तरह के विभाजनों मे इकट्ठा हुई इच्छाओं-कल्पनाओ का एक पंछी जो उड़ना चाहता है। उसे आजाद करके आसमान मे बादलो को चीरकर उनसे खेलता हुआ देखना चाहता हूँ। शरीर के आसपास बनी गर्मी ने जो आग लगा रखी है उस आग का निवाला कभी-कभी मैं भी बन जाता हूँ।
आज मुझे धर्म, विश्वास, भगवान, अल्लाह का सहारा क्यों पाना जरुरी है। बहुत आए, बहुत जीए और बहुत चले गए। सब का चौला किसी राख़-ख़ाक या शीतल जल मे रूपान्तर हो गया। साधू-संत, मुल्लाह-फकीर कितने रमते जोगियों ने अपनी जगह को खिल-खिल के विभिन्न रट-रटायन से उभारा पर आम ज़िन्दगी का मौसम और हालात का परिचलन संतुलित नहीं हो सका। वो छोड़ गए एक नाम मात्र और छवियांक छाप जो जीवन यात्रा ही रही है।
जैसे अगर सोचा जाए की, जानवार से मानव, मानव से जानवर कहा जाने वाला प्रणी ही आज के युग को आलोकिक संरचना है। जानवर और मानव के परित्याग और विचारों के आदान-प्रदान की गाथा के समुख ही खड़ी नितिवाद है। जिसमे जानवर का मानव से और मानव का अन्य चीजों, कारणो से सम्बंध बना हुआ है। जिसे दोनों मे से कोई भी नकार नहीं सकता। इस बात पर मैं थोड़ा र्तक देना चाहूंगा कि जानवार जब किसी भी जगह मे कदम रखता है तो वो सूंघकर जगह की महत्वपूर्णता को पहचान लेता है। मनुष्य मे ये तीव्रता बहुत ही कम है। वो अपने आसपास को इतना तेज सूंघ नहीं सकता। देखने-सुनने और तलाशने के बाद भी मनुष्य अपने सम्पर्क को नहीं समझ पाता है।
एक सवाल जो मेरे ख़्याल को निचौड़ देता है की हम त्याग कर रहे हैं या कोई भूख़ हमे उकसाती है? किसी दिशा की तरफ़ जाने के लिए। जहां मेरा और आपका भी कोई है। जो अपने हाथों से जगह को सज़ाकर शुद्ध बर्तन मे भोजन लिए हमारा इंतजार कर रहा है। ये कल्पना सच के दायरे से बाहर नहीं आ सकती, क्योंकि ये सच ही है। जो सच के सम्मूख खड़ी है।
ये हम मानते हैं सब कुछ समुच है। शायद भी एक सच है। ये एक कशमकश है। लेकिन ज़िन्दगी और हमारी जिज्ञासाओ को हम परिपूर्ण रूप देने मे ड़र जाते हैं। जबकी ये मानव की जिज्ञासा सदा बहने वाली नदी की तरह होती है। जो बौद्दिक होकर वेग रूप धारण करके किसी भूखण्ड़ से होती जाती है। औझाओ के कमण्ड़लों मे गिर जाती है। लेकिन ऐसा नहीं हो पता, तभी मानव विचारों की भांती भटकता फिरता है शायद के शक और तलाश के कौने पकड़ कर चलता रहता है। इसलिए एक शरीर की लड़ाई दूसरे शरीर तक ही चलती रहती है और हम परित्याग की नौंक पर झूलते रहते हैं। अगर कोई आशा प्रकट करें तो ये असम्भव होगा। लेकिन किस पर ही केन्द्रित हो। हमारा संयम टुटने लगता है। हमे करुणा सम्पर्क मिले कहां से? हम अपने जीवित के संसारिक ढ़ांचो को कल्पनाए दे सकते हैं और जान सकें की आखिर इंसान का आसपास क्या है? जो उसे सपने तो दिखाता है लेकिन उन सपनो तक जाने की सीढिया नहीं देता। क्या हम खुद सीड़ियाँ है? जिससे कोई आना जाना कर रहा है? जो हमे रास्ता दिखाता है। ईशारा करता है उस की तलाश मे हम अपने-अपने होने का लक्ष्य भूल गए हैं।
राकेश
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