एकान्त बोलना या एकान्त शब्द का आना कोई अंधेरा नहीं होता ऐसा बिलकुल नहीं कि सारा समय अंधेरे मे हो। एकान्त पूरे दिन का बितना और हर काम के भार का एक ठहराव है जो हम अपने से खींचातानी करके निकालते हैं। शरीर जो व्यस्त रहना जानता है, दिमाग जो चुस्त रहना चाहता है और आँख जिसे रोशनी की जरुरत हो गई है। इन्ही से लगता है की हमारे चारों ओर दुनिया का एक फैलाव है कि जिससे हर पल एक जीने का तरीका बनता है। उसी जीने के तरीके को समय का हर पैमाना बनाकर घूंट पर घूंट मारकर उस भार को अपने अन्दर जमा करते जा रहे हैं।
भागती-दौड़ती ज़िन्दगी को अपने से अलग करना या पांव को पकड़कर कर कहीं जमा देना एकान्त नहीं होता। वो उसी चर्मक्रिड़ा मे रहता है बस, गती को कहीं ठहराव मे ला देता है। ऊजाले से रोशनी की तरफ़ नहीं और ना ही रोशनी से अंधेरे की तरफ़। वो डार्कनेश मे एक ग्रेहरगं की तरफ़ आँखो को धकेलता है।
एकान्त एक ऐसा रगं है जो पूरे दिन साथ रहता है।
शान्त बैठना अवाज को बन्द करना नहीं होता।...
घर से दूर जाना रिश्तो से भागना नहीं होता।...
लोग अपने उस वक़्त को रूटीन मे लाना चाहते हैं। जहां पर आकर शरीर एक भार से मुक्त रहता है। उसमे वो समय खुद को इतना सुनने लगता है कि हर अवाज शरीर से दूर लगती है। गाड़ियों की, लोगो की और शहर की हर अवाज लगता है जैसे खुद के कानों से दूर है। उसमे अपनी रिद्धम को पकड़ने की कोशिस होती है।
श्याम लाल जी यहां पर कुछ और ही कहते हैं वो फरमाते हैं, “जिन अवाजो और रोनक मे हम धिरे रहते हैं वो हमें इतना भर देता है की हमारा शरीर एक तेजी पकड़ लेता है। हर कोई आदमी जहां पर तेज ही नज़र आता है पर जैसे ही हमारा शरीर हमें उस तेजी से बाहर धकेलता है तो शरीर और दिमाग एक ऐसी जगह पर आकर खड़े हो जाते हैं की ना तो वो खाली ही होते हैं और ना ही भरे मगर हाथ खाली हो जाते हैं बस, उसी वक़्त मे घबराहट होने लगती है।
कुछ काम नहीं है क्या करे?, किससे बातें करे?, कहां जाए?, किसके पास जाए?, हमें तो सभी के सभी लोग अपने ही जैसी मुद्रा मे दिखने लगते हैं बस, उसी वक़्त मे मन विचलित होने लगता है तो कदम बाहर मे निकल पड़ते हैं। जितना आसान खुली सड़क पर बैठना लगता उससे भी कई ज़्यादा कठिन किसी रिश्तेदार के यहां पर जाने मे लगता है।"
दिन कलैन्डर मे बित रहे उस तारीख की तरह होता है जिसको कोई रेडसर्कल घेर रहा है और वो रेडसर्कल उसे अपने मे इस तरह कस लेगा की वो दिमाग मे छप जायेगा। उसमे खुद को एक तरह की तस्वीर मे हम देखने लगते हैं। दिन खो जायेगा। कल फिर से एक और इसी तरह का रेडसर्कल तैयार होने लगेगा और शाम होते-होते वो इनता कठोर हो जायेगा की दूसरे दिन को उसमे दाखिल होने की इज़ाज़त भी नहीं होगी।
एकान्त के वो डार्कनेश पल उस वक़्त की मागं मे होते हैं। जहां से अंधेरा ख़त्म होता है और ऊजाला शुरु या जहां से ऊजाला ख़त्म होता है और अंधेरा शुरु होने की कगार पर होता है। वो वक़्त ही नहीं वो रगं को देखने की चाह मे जीवन और हर शरीर ठहराव की अपेक्षा रखते हैं।
समाज और शहर के कुछ ऐसे नियमों मे शरीर अपनी ऐसी कुछ आकृतियां बना चुके हैं कि उसकी पॉजीशन मे रहने की ताजपोशी मानी जाती है। जहां पर हिलना, ढुलना और खड़े रहना एक पॉजीशन बन चुका है। अगर उस पॉजीशन से जरा सा भी हिले तो ताजपोशी तो छिनेगी ही बल्कि उसमे आने वाले दिन किसी फटकार के तहत गुजरेंगे।
अपनी पॉजीशन, खुद के फैलने के तरीके, पांव फैलाने के आराम, कुछ कह पाने के जोश, बैठकर सुनने के शौक जैसे वो सब छेड़ने की कोशिस मे ही एकान्त के दिनो कि स्थापना होती है और ख़ास रगं के समय को तलाशा जाता है।
श्याम लाल जी कहते हैं, “जहां पर मै जाकर बैठता हूं अगर वहां पर ऊजाला होगा तो वहां शायद कोई बैठेगा नहीं।"
यहां पर वो ऊजाला क्या करता है? खाली यही नहीं की वो वहां पर बैठे हुए उन लोगो को दिखा देगा या उस जगह को रोनक कर देगा। ऊजाला शायद फिर से वही समाजिक और शहरी नियमो को वहां पर खड़ा कर देगा जिससे हर कोई वहां पर छिटकर आया है। पांव फैलाकर बैठना ही नहीं है। शायद वह जगह किसी ऐसी पॉजीशन की तालाश मे है को अभी तक रोशनी की मागं नहीं करती। वो उस घिराव मे बहती है।
लख्मी
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