"खुशी" और "ड़र" ये ज़िन्दगी के आधार पर टिकी भाषा के शब्द हैं। खुशी को हम उजाला कहते हैं और इस के बाद अंधेरे को हम ड़र मानते हैं। खूशी से फैले उजाले की पंहुच तक सब कुछ साफ़ दिखाई देता है मगर, जब इसकी निर्धारित सिमायें पूरी हो जाती हैं। तब कई सतहो से बनी दीवारनुमा आकार हमारे आगे होता है। किसी वस्तु या कोई विषय को हम खुली आँखों से नहीं देख सकते मगर, किसी तरह देखकर उसे अपने जहन मे एक छवी की ही परछाई पकड़ लेते हैं फिर उसे ख्यालों, यादों, आने वाले रुपों की आहट को महसूस करते हैं पर कहां से आता है इन सोचो मे गहरापन लाता सवाल? जिसकी भाषा अपने सम्बधों को जोड़ती है।
आज भाषा कई वक़्ताओ की हुकूमत बनी हुई है। सड़को, फुटपाथो या चौराहों पर भाषा क्या और कैसा माहौल बनाकर चलती है? क्या उसका रुपान्तरन होता चलता है? या फिर भाषा एक पसन्दिदा विचार या प्रसंग बन गई है। उदाहरण के तौर पर बाजार मे सब्जी मनपसन्द की देखते हैं फिर मोल-भाव, उसके बाद फिर सही-गलत नज़रिये से जोड़कर छांटते हैं। इस उदाहरण को माने तो क्या लगता है? आलु, प्याज का लेन-देन मे और भाषा के लेने मे कुछ फ़र्क लगता है क्या? इस बात मे कतई अचरज करना ठीक नहीं होगा क्योंकि भाषा और प्रतिलीपी का संकलन एक रुपधारी छवी बनेगा? सही-गलत के मांयने बनाने की जरुरत नहीं इसे सोचने की जरुरत है की सवाल उठ कहां से रहा है?
पिछले दिनों मे हमने लॉकेल्टी के तरह-तरह के शख्सों से मुलाकात के सिलसिले को खुद में और खुद से बाहर बने रिश्तो को समझने की कोशिश की है। कवियो, कहंकारो, रचनाओ की सम्भावनाओ को सोचते हुए इन खोजियो के बारे मे अपने घर, परीवार और काम से अलग प्रतिक्रियाओ को जन्म देते कहानियों से कई तर्क-वितर्क के माहौल बनाये हैं। जिसमे उनकी अपनी शिरकत ऐसे बहक कर हुई है, जिससे की एक तरह का पायदान बना है। इस से नयी कहानियों और सोच-विचार, किस्सागोह की दुनिया मे कदम रखा और जिसमे कुछ अपने पर ली गई कल्पना और समाज मे अपना मुकाम बनाने के लिए कई कहंकारों ने अपनी जीवनी मे खुद एक पुर्ण गठन सच्चाई को उभारा है। वैसे कई वक़्ताओ के दिल की गहराईयों मे उतरने के बाद उनके मनचित्रो के कल्पनाघर उनके बाहर का एक दृष्टिकोण बतलाते हैं। तभी खुर्दरी ज़िन्दगी मे उनके दूर दर्शनो की काया सूखे की तरह, आकाल से पीडीत कंठ को कोई प्यास से सींचती रहती है।
बडी गहराई और उत्तेजना से अभी हमे एक कवि ने बताया की उजाले मे दिखती चीजों को लिख लेते हैं पर जो इस के आगे अंधेरा है उस मे कैसे घुसे? जिसमे एक जगह है उस मे कोई दूर से दिखती लालटेन की रोशनी है। जिस मे देखने वाला अपने मुताबिक बनाये आकार के बाहर देख पाये और अपने से विपरित क्या सोचा गया है जो भी अवधारना है उसे समझ पाये । अलबत्ता, हम उस आँख को नहीं देख पाते जिससे ये नज़रिये पैदा होते हैं जिसमे हम शर्नारथी बनकर उनके जीवन के भागों मे जीते हैं या जी लेते हैं।
अब उनके साथ हम अंधेरो में टटोलती आँखों के सामने की रोशनी के दौरान कुछ देख व समझ पाते हैं। इसे और किस तरह से समझ सकते हैं ये सवाल हमारे पास है?..जिससे हम हमारे आसपास होते बदलाव और अपने बारे मे खुद से सोची छवी को समझना है कैसे?
राकेश
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