कभी-कभी हमें खुद ही पता नहीं होता कि हम किस राह पर है। बस, उस पर चलते जाना और उसमे अपने आप के लिए कोई ठहराव और मौड़ बनाना दिलचस्पी बढ़ाता है। अपनी भाषा और दिल मे आने वाली तस्वीरों को कोई ना कोई फ्रैम देना आदत सी बन गई है। अभी हम अपनी यातनाओं और कामनाओं को इतने तरह के फ्रैम दे चूके हैं की उनकी गाढ़ी तस्वीरें हमारे मददगार अतीत में जम गई हैं। जिनसे हम अपने वर्तमान का खेल खेलते हैं।
अपनी यादों, कामनाओं, यातनाओं को कोई गध और व्यंग देना क्या होता है? और उनको स्वर देना क्या? हमें ज्ञात है की हम अपने वर्तमान मे अतीत के कितने पन्नों को खींच लाते हैं और भविष्य के कितने? इसे अपने तक रखना और अपने से बाहर रखना क्या है? या है जो वो अनिवार्य भी है?
लिखना-बोलना हमारी चाहत के स्वरूप मे बसने वाले वो रूपक हैं। जिन्हे किसी ठोस ढाचें या बन्धिश मे नहीं देखा जा सकता। वो किसी छूपी हुई मिठास की भान्ति होते हैं। जिनका रस हम मे कहीं समाया होता है। उसमे से हम अक्सर अपनी ज़िन्दगी को "अर्थात-अर्थात" करके अक्सर समझाते, दोहराते और लिखते आए हैं। 'अर्थात' शब्द का आना हमारी ज़िन्दगी मे क्या महत्व रखता है? और इससे हम कहां तक का सफ़र तय कर पाते हैं?
बहुत आसान और भोजनिये होता है ये कहना कि "मेरा जीना कोई अलग नहीं है मगर मैं सोचता हूँ।"
सोच और हमारी नज़र क्या रूप लिए हमारे समीप रहती है? क्या महज़ ये छवि का शौध करना होता है या उस छवि से कोई तस्वीर बनाना, मगर इनमे अन्तर भी क्या है?
जो देखा वो लिख लिया। जो सुना वो दोहरा दिया। जो यादों मे था वो उतार दिया। जो दिमाग मे था उसे शब्द दिया। दिल मे था उसे तस्वीर दिया। इन सबके मायने हमारी ज़िन्दगी की किस दिशा मे लेकर जीते हैं और इनमे फ़र्क क्या है?
हमारे आसपास लोग लिख रहे हैं पर वो दोस्तों से नाम की अपेक्षा नहीं रखते और अपने लिखे गए को कहीं देख पाने की चाहत भी साथ रहती है। बहुत सुना है कई लोगों को जो गली मे या गली के कोनो मे दोस्तों की टोलियों मे टाइम को बिताने के लिए किया करते हैं। उनका वहाँ पर सुनाना ऐसा लगता है जैसे लाइट के जाने पर बच्चे अंताक्षरी खेल रहे हो। कोई शेर सुनाता, कोई कविता गाता तो कोई गीत गुनगुनाता। मगर आजतक कभी किसी को कहानी लिखकर सुनाते हुए नहीं देखा।
कब नाम दे दिया जाता है कि ये शायर है या ये गायक है? जब तक तसले मे आग रहती है तब तक या जब तक की वो तसले मे आग रहती है तब तक सुना पाता है? अपने लिए लिखना एक निजी तरह मे बहता है तो वो बाहर मे क्या है? याद को दोहराने के लिए या याद से लड़ने के लिए?
अपना डर, दुख, आँसू, खुशी या उस वक़्त को निकाष देने की बहस रहती है, जिसके साथ मे एक ऐसे समय का रिश्ता होता है जो समान्यता की कटूरता मे था। जिसको बिताना-गुजारना वो नहीं था जो आसान था। पर जो आसान नहीं था या कठिन था वो ही याद से लड़ने के लिए डायरियों मे होता है मगर अपनी याद बताने मे हसीं की चादर क्यों होती है? हम कैसे लिख रहे हैं अपनी यादों को और आँसूओं को?
लख्मी
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