Monday, October 13, 2008

एक छोटा सा अकेला पन

एक छोटा सा अकेलापन, जो किसी जगह से रिस्ते और माहौल से ज़ुदा होने से महसुस होता है और शख़्स अपने इस अकेलेपनको पूरा करने मे कई असमर्थ कोशिशें करता है। अपनी ख़्वाईशों को किसी जगह मे पनाह देने की उम्मीद से कोई ज़रिया अपना लेता है।जैसे, कह लो वो जिस समाज मे रह रहा है उसी मे अपनी शंकाओं से मुक़्त भी होना चाहता है लेकिन वो वापस उसी दायरे मे आकर गिर जाता है जहां उसे उसी समाज की आम दिनचार्य के अलावा कुछ नहीं मिलता तो सामाज के बने ढ़ांचे मे इंसान जीता कैसे है?

अपने लिए एक अलग जगह या अनोखेपन मे जीने की सामाग्री जुटा लेना और अपने आसपास को समुचा संसार मानने लगना इस संसार की सरहदो से "आगे भी दुनियां है" यही बात चीख-चीखकर वो अपनी रचनाओ मे कहता है। समाज मे चीखकर बोलने का सवाल कहां से आता है? एक अनकही जो जुंबा से आगे न बड़ी पर उसे कहने की मनोकामना ने हर बार कोई एक नया चेहरा कलपनाओ को दिया है। उन्ही दिंवारो पर कुछ उतारा है। वो शब्द जो समझा न पाया लेकिन समझाने की बड़ी चाहत रही। जिसमे "मैं" था और मेरी हसरतों की ईमारतें।

इस शहर-ऐ-दुनिया की अदखुली कल्पनाओ मे मंजिलो को तलाशते हुए कई मोड़ो को लिख डाला है। समाज जिसे एक तरह का चैलेन्ज देता है उस की तरफ़ एक कदम या तो वो इंसान ये मान ले की चुपचाप वो सब कुछ सुनता देखता रहे, कबूल करे समाज के ढांचे मे उसकी बनावटों मे सलीखे से चलें। अगर ये नहीं हो सकता तो वो इस समाज के विरुद्ध खड़ा हो जाए और ये साबित करे की वो किसी धर्म या समाज की बैसाखियों के बिना चल सकता है। शायद, ऐसा इंसान ये समझ लेता है की उसे स्वयं को स्वयं मे तलाश्ना होगा? लेकिन कोई धर्म या समाज बना ही जीने के लिए है मगर ये आजादी देखते-देखते न जाने क्यों? छोटी हो जाती है?

ये अपने से निकलकर किसी दूसरे कि दीवारो से टकराकर वापस मिलता कण क्या व कैसा है? जिसके मिलने से बौद्ध होता है की समाजिक प्रकियाओ मे ही जीना है। एक लेबल पर जिसमे तरीके, कानून और नियमों मे रहन-सहन को घुमाता समाजिक जीवन। ये कतई इज़ाज़त नहीं देता की आप उसके रेखा बिंन्दू से बाहर आकर जीए लेकिन ये भी सच है।

कोई दिलकश परीन्दा है जो आवारगियों मे जिन्दा है ..
है कहीं, इक जुस्तजू का आलम तो कही मोन रचनाओ मे व्यस्त बन्दा है ...

अपने आस-पास फल-फुल रहे संसार के स्वाभाविक और व्यावहारिक क्रियाकाल्पो की उपज से एक शायर जैसे शब्दों और भाषाओ के अन्दर छुपे अनुवाद को खोलकर मोन् रचनाओ मे रखता है वो उसकी एक दुनिया है। मैं इसे मोन रचना इसलिए कह रहा हूँ कि जितने भी शायर हमें मिले वे अपनी रेखाओ को अपने मे सींचते हैं, किसी दूर से दिखते नज़ारे को अपनाकर उसमे अपने शब्दों का रस़ भरते हैं। जिनकी ज़ुबां नहीं होती मगर वे अहसास होता है जिसे बिना सुने ही महसूस किया जा सकता है। जिसकी ताकत है अपने आसपास बहते रंगो वो रस़ो को अपने मे मौज़ुद करना और उसके ज़रिये बाहर कि महकती दुनिया का रस़ पीना।

राकेश

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