Saturday, October 4, 2008

ये शौकियाना जीवन नहीं है

शैरो-शायरी और रचनाओं से भरा ये शौकियाना जीवन क्या है? इसकी दौड़ कहां तक है? और इसकी तलाश क्या है? इसी को सोचते हुए आज एक फिर से उनसे मुलाकात हुई। सैद्धांतिक जीवन को अगर अपने दिमागी चित्रण मे खींचा जाए तो एक समूह, सम्बंध और सदंर्भ उभरने लगते हैं। कुछ भी अकेलेपन का अहसास नहीं होता क्यों? क्या समाज इनके ढांचो और आकृतियों को माप चुका है? क्या है ये मपाई का मूल आधार?

लोग अपने इस जिज्ञासू शौकियाना जीवन को रचने के लिए अपनी कटुरता मे गतिशील कार्यशैली को थोड़ा पीछे हटाते हुए तैयारी मे लाते हैं। एक ऐसी तैयारी जिसमे असल ज़िन्दगी को घटनाग्रस्त पल भी रचनात्मक रूप लिए किसी अन्य रूप की अपेक्षा मे रहते हैं। बोलने वाला या लिखने वाला अपने पिछले बीते पहचान भरे "मैं" से ओझल नहीं रहता इसके लिए इन ढांचो का मूल आधार क्या है?

हमने पुछा, “शैर, कवितायें करने से क्या लगता है कि हमारे दिन अच्छे बीत रहे हैं?

हमने एक स्टैश्नरी चलाने वाले शायर से पुछा (वो मूंड मे थे) बोले, “ये जो मैं लिखता हूँ शायरी-कवितायें करता हूँ ये मेरा जीवन नहीं है ये तो जीवन जीने का तरीका है। जिससे दिन के बीतने का ही अहसास नहीं होता।

"तो फिर ये करता क्या है हमारे लिए?”

सवाल अटपटा था मगर उनके लिए नहीं।

"ये पेट ही नहीं भरता बाकि सब कुछ करता है।"

"हर कोई लिख रहा है, कोई गाने लिख रहा है, कोई लेख, तो कोई शायरी तो आपके लिए पुर्ती क्या है?”

"मेरे लिए तो बस, मज़ा और मेरे टाइम का बितना मेरे लिए मायने रखता है। मैं खाली बीतने नहीं देना चाहता था। जैसे मान लो रोटियां हर तरफ़ मे बन रही है। कहीं छोटी, कहीं नान की, कहीं रुमाली, कहीं कैसी मगर हमें अपनी भूख़ के मुताबिक ये पता है कि हमारी रोटी का साइज़ क्या है? उसको हम अपनी कल्पना में एक आकार दे देते हैं और उसे सोच-सोच कर अपनी भूख़ कम करते हैं। हमारी जरूरत और पुर्ती सब उस साइज़ पर ही तो निर्भर करती है।

"मगर ये भूख़ उपजती कहां से है?”

"ये आती है प्रेरणा से। हमारे लिए जरूरी क्या है? जैसे:- मान लेते हैं
चाय, जो हमारे लिए हुड़क का काम करती है। जिसका असली मतलब होता है किसी से प्रेरणा। हमें हुड़क उठती है किसी को देखकर, सुनकर अपने को समझने की पर इससे भूख़ नहीं मिटती और...
रोटी, होती है भूख़। जो हमारे शरीर का विकास करती है। जिसमे हम खाली अपने शरीर को और खुद को भी देखते हैं इसमे और कोई शामिल नहीं होता।
पानी, ये हमारी जरुरत है। मगर क्यों ये किसी को नहीं पता। ये जीने का तरीका और ज़रिया है। वैसे ही है हमारी ये शायरी।

"मगर प्रमोद जी इन तीनो चीजों को हमारे समाजिक और शौकियाना जीवन की कल्पना मे कैसे सोचे इनकी जगह कहां है?”

"इन चीजों को एक साथ शायद कभी नहीं सोचा जा सकता पर इसमे सबसे ज़्यादा जरूरी होता है। हमारी "करनी और कथनी"
जो हम कर रहे है वो हमारे लिए जरूरी है और जो दोहरा रहे है वो जीने का तरीका। सवाल हो या जो भी पुछा जाए वो सब 'करनी' पर होता है 'कथनी' पर कोई सवाल नहीं होता। खामोशी खाली हमें चित्र दिखाती है। मगर वो चित्र किसी जीवन की छवि देता है उसे ही समझना होता है।"

"करनी और कथनी...
जिसमे हमारा रोज़मर्रा टुकडो मे हमारे कार्यपुर्ण अन्जामों को नियंत्रण बनाये रखता है और हमारे लिए एक दिशा तैयार करता है कि हम आगे चलकर क्या करेगें या क्या बनेगें? अपनी जगह बनाने मे हमारे करनी के टुकडे कितने महत्वपुर्ण होगे? या हम इन्हे साबित कर पायेगें या नहीं?
यही तीन चीजें हमारे कदमो को आगे धकेलती है और जवाबों की लालसा मे नियमित पैशबन्द कार्य बनाती है। जिसके आधार पर मेरी आकृती से "मैं" तैयार होता ना की मेरे "मैं" से मेरी आकृती।"

यहां आज प्रमोद जी अपने एक ख़ास निजी "मैं" से अपनी नज़र आने वाली आकृती को तोड़ रहे थे। उनकी हर बात के साथ अपनी दिमागी चित्रण को तोड कोई चित्र देना कोई मुश्किल काम नहीं था। मगर आज "काज" से ज़्यादा महत्वपूर्ण "कथन" थे।

हम जिससे भी मिलने जाते हैं या मिलते है वो एक जगह और हालात मे होता है और उसी जगह और हालात से बिना खिसके वो एक दुनिया खोलने लगता है। जिसमे फिर वो जगह और हालात कहां होते है? होते भी या नही? छवि होती है या छाप? कुछ पता नही। बस वो अपनी स्थाई ज़िन्दगी की बनी कहानी को खोलता जाता है। तो इस कथन के क्या मायने होगे?

कहते है, “एक ढांचा ऐसा होता है जिसमे इस कथन के मायने नहीं होते या होते है तो पारिवरिक नितियां इतनी कठोर-तेह या प्रभावशाली होती है कि इस कथनी जीवन पर एक चादर की तरह फैल जाती है और शख़्स उसमे अपने पांव फैला ही नहीं सकता बस, वहां उन नितियों मे एक गोलाकार ढांचा बनता जाता है। जिसमे जीने लगती है हमारी करनी।

मैं क्या करता है उन नितियों मे?
मैं की क्या जिम्मेदारियां होती है?
मैं के क्या समझोते या फैसले है और क्या आधार?


बस, इन्ही के बीच मे क्या स्थान है हमारी जिवनियों कि कथनी का इसको तलाशते रहते हैं।

कथनी जीवन अपने ढांचे बनाता है उसके ढांचे बने नहीं होते। उन्ही ढांचो मे हमारी आकृती को और समय को देखा जाता है। कथनी जीवन का सार क्या है?

एक सार, हमारे जीवन मे कई घटनायें होती है। जिनका रिश्ता हमारी ज़िन्दगी और रोजाना के पलो से होता है। जो रिश्ता याद रखने और याद से लड़ने के लिए बनाया जाता है। हमारी जीवनी घटनाओं से हमारे जीवन और शख्सियत को मापा-तोला जाता है। जिससे हमारी छवियां तैयार होती है।

ढांचो की तलाश मे किसी ख़ास की तलाश रूपांतरित होती है। हमारी जिन्दा आकृती को सोजाना किसी ना किसी कोशिश मे लगे रहना होता है। वो कोशिश पारिवारिक और हमारी जिन्दा आकृती को एक सांचे मे ले आने की होती है। जिसमे होता है।
परिवार का ढांचा और अपनी आकृती को जोड़ने की कोशिश।
अपने परिवार मे अपने ज़िन्दापन को बनाने की अपील।
किसी ख़ास कि तलाश या ढांचे की मागं मे इस शौकियाना जीवन की फोर्स कम नहीं होती। हर जीवन अपने रोटी के साइज की कल्पना कर गया होता है।

जो हमसे बात कर रहा था वो एक स्टैशनरी की दुकान पर बैठा "मैं" था। मगर आकृती मे वो कहां से बोल रहा है? वो उफ़ान मे था। कोई तस्वीर नहीं थी। जिसे खींचकर रख लिया जा सकता था।

वो कहते है, “रोज़मर्रा हमारी "करनी" मे हैं और करनी हमारी रोज़मर्रा मे बितती रहती है और जो जीवन मे नज़र नहीं आती वो "कथनी" होती है। बोलना और बोल ना पाना मे कई अपेक्षा जुड़ी है मगर ना बोल पाना कोई कमजोरी नहीं.... तभी तो हम लिखते हैं।

लख्मी

No comments: