कई माहौल देखे व माहौलों के बारे मे सुना है। पर सवाल के घेरे कम नहीं होते। कभी-कभी किसी माहौल को देखकर बहुत ताज़ुब सा होता है। कई माहौल जिनमे गज़ब का समय भरा है। पिछले 30 से 40 सालो से या उससे भी ज़्यादा समय से वे वैसे के वैसे बनते आ रहे हैं और उसमे लोग वैसे ही जुड़ते जा रहे हैं। किसी को उस माहौल मे किसी को जानना कोई जरूरत की बात नहीं है। बस, वे माहौल के भागीदार है वे ही बहुत है। उनमे हमेशा लोगों को बैठे देखने से कई सवाल उभरते हैं।
जगाहों का अपुर्ण होना क्या है? अपूर्णता किसके लिए है? किसी जगह के लिए है उस के लिए है जो वहाँ जाता है? किस तरह से समझने की नज़र होती है उस अपुर्णता हो? अपनी चाहत, पसंद और इच्छा को सोचते हुए किसी अपुर्णता का अहसास होता है या उस जगह के काल्पनिक ढाँचें के नज़र आने पर?
जगहों से अक्सर हमारे जहन मे 'अपने लिए' एक स्थान पाने की चाहत से पनपता है। जिसका रिश्ता हमारी ज़ोन्दगी के किसी ख़ास हिस्सो से होता है। एकान्त, मिलना, बैठना, बोलना हर तरह के बौद्धनिये समय को जी पाने की लरक होती है। ये लरक उपजती कहाँ से है? और इसका निकाष क्या है? ये हमें कहाँ तक खींचकर ले जाती है?
हमारी चौख़ट के बाहर की दुनिया हमारी कौन सी कल्पना मे है? जिसमे हम अपने स्थान को खौजते हैं और क्या तलाशते हैं? हमारे अपने ध्यान मे क्या कोई नक्शा है उस जगह का या तलाश का?
बस्ती की उन जगहों पर नज़र दौड़ाने की कोशिश की जो एक पारिवरिक नितियों और कार्यबध नितियों के विपरित है। जिसको हम एक खुली जगह के नाम से अभी दोहरा सकते हैं। उसका नाम और स्थान क्या है वो बाद मे खौजने की कोशिश करेगें।
उस जगह पर जाकर...
वहाँ पर बैठे एक शख़्स से बातचीत की, जो दक्षिण पुरी मे अभी नय-नया आया है मगर, कुछ ही वक़्त मे उसने अपने दिन मे कई माहौल को जगह दी है। दरअसल, दिमाग मे ये था कि कोई कैसे किसी नई जगह पर जाकर अपना स्थान बना लेता है?
मैंने पूछा, "जब कोई आता है और बोलता है तो उसकी निकलने वाली पहली बातें उसके जीवन के कहाँ से होती है?”
वे बोले, "ज़्यादातर तो लोग अपनी बातों को अभी के समय से शुरू करते हैं। हैलो या नमस्ते वगैरह करके वो कभी अपने आने के कारण नहीं बताते और ना ही क्यों बता रहा हूँ वो बताते। सबका अलग-अलग रिश्ता होता है। नज़रें चाहें वहाँ पर किसी एक पर ही क्यों ना हो मगर बातें सभी सुन रहे होते हैं। उस बात को बताने मे उनको कोई डर नहीं होता। जिनको वो वहाँ बोल रहे होते हैं अपने अनुभव के किसी भी टाइम को वो सोचे होते हैं की क्या कहना है? यहाँ पर तो सबसे ज़्यादा अपना वो टाइम बताया जाता है जो "टोप-क़्लास" था। थोड़ी मस्ती होती है, थोड़ा मजा होता है या फिर देखा-दिखाया टाइम।"
मैंने पूछा, “कोई अपनी अगर बोलते-बोलते लम्बा ही बोल गया तो? यानि कोई बहकता नहीं है क्या यहाँ?”
वे बोने, “बढ़े बहकते है यहाँ तो बन्दे। कभी तो इतनी पुरानी बातें बताने लगते है की जैसे वो टाइम बस उसी ने देखा है और अगर उसे पता चल जाये की या ये अनुमान भी हो जाये कि वो जो बोल रहे हैं वो सिर्फ़ वही जानते हैं तो फिर वो बताते नहीं रुकते और फिर बनाते जाते हैं और बोलते जाते हैं और यहाँ पर बैठे हम लोग उनकी उन बातों मे उस वक़्त का इन्तजार करते हैं जहाँ से हमने दुनिया देखी है।"
मैंने पूछा, “यहां पर सब सुनते हैं? कोई बोलता नहीं है उस सुनने के टाइम मे?”
वे बोले, “नहीं-नहीं, बोलते हैं पर उनकी बात ख़त्म होने के बाद मे कोई काटता नहीं है उनकी बात को। नहीं तो उनको बुरा लगेगा या उनको ये लगेगा की उनकी बात का कोई मोल नहीं है। कभी तो सब उनसे पूछने बैठ जाते है कहते है कि "वो टाइम वापस चाहते हैं क्या आप?”
मैंने पूछा, “तो वो क्या कहते हैं?”
वे बोले, “कुछ नहीं बस, हँस पड़ते हैं और कहते हैं की बीता हुआ समय वापस नहीं आता। अगर आता तो तुम मेरी सुनते? नहीं। यही तो मेरी ताकत है जो इस समय तुम बैठे हो मेरे आगे?”
मैंने पूछा, “रोज-रोज यहाँ पर बातें होती है कैसे? क्या सब कुछ रिपीट नहीं होता कभी?”
वे बोले, “नही यार रिपीट तो कुछ नहीं होता। बस, लोग अपनी बातें बोलने के लिए कुछ ना कुछ लेकर आते हैं। हर बार बातें कभी पेपर या अख़बार से होती है तो कभी टीवी से या कभी बीती यादों से जैसे मान लो बात शुरु हुई 'हादसे' से और वो एक दम निजी हो जाती है फिर हादसे अन्दर से निकलने लगते हैं और सरक जाते हैं सीधा घर की ओर। जैसे कुछ लोग तो कुछ हादसे बोल भी नहीं पाते पर कोई-कोई हादसा कह देना आसान सा होता है। लोग उसे हँसकर बताने लगते हैं फिर वो एक परिवार की बात बन जाती है। निजी हो जाती है एकदम।"
मैंने पूछा, “किस तरह की निजी?”
वे बोले, “अपने बच्चों तक हो जाती है। परिवार मे किस तरह से रहते हैं अभी तक और किस-किस तरह से निभा रहे हैं अपने को अपने ही घर मे।"
मैंने पूछा, “क्या लोग यहाँ पर अपने निजी परिवार के बारे मे भी बोलने लगते हैं तो कैसे सुनते है सभी?”
वे बोले, “कोई भी उसे नया नहीं मानता। कहानी कोई भी हो पर है तो एक घर की ही ना! की बढ़े होते ही सब अलग हो जाते हैं। ये पहले लगता था लोगों को की कोई गज़ब हुआ है पर अब नहीं लगता। हां बस, इतना होता है कि लोग अपने घर के भी उन सभी बातों को सोचने लगते हैं और ये देखने लगते हैं की इसका भारी है या मेरा?”
मैंने पूछा, “तो फिर नया क्या होता है यहाँ? कोई यहाँ पर रोज आता है। कोई महिने मे दो बार आता है। कोई हफ्ते मे एक बार आता है तो उसका यहाँ आकर कैसे दिल बहलता होगा या वो यहाँ बोलता है तो उसका बोलना क्या है फिर?”
वे बोले, “भईया इस माहौल की ख़ाशियत और सादगी ही यही है की कोई भी कभी भी लौटे ये उसके लिए वही है। जैसी वो छोड़ कर गया था। बहुत सारे बन्दे होते हैं जो सिर्फ़ यहाँ दुआ-सलाम करने के लिए ही आते हैं, कोई खाली खड़ा होने आता है तो कोई खाली दूर से देखने के लिए। जगह तो बदलती रहती है मगर जिन लोगों से उसकी अहमियत है वो होने पर एक माहौल बनता है गुट बनता है जो जहाँ भी बैठ जाये वहीं पर जगह तैयार।"
मैंने पूछा, “और अगर किसी दिन वो लोग ना हो जिनसे ये माहौल बनता है तो उस जगह का क्या होगा जहाँ लोग मिलते हैं?”
वे बोले, “तो जो आयेगा वो वहां बैठा नज़र आयेगा। एक रिश्ता बन गया है ना अब तो।"
मैंने पूछा, “ये जगह आपके लिए क्या है?”
वे बोले, “मेरे लिए तो ये मान लो की बस, एक ऐसी जगह है जहाँ बैठकर मैं यहाँ क्या-क्या हुआ जान सकता हूँ और सबसे बात कर सकता हूँ। हम जहाँ पर रहते हैं वहाँ जान-पहचान होना भी तो जरूरी होता है। यहाँ पर आने से ये भी नहीं लगता की मैं यहाँ पर जो रहते हैं उनसे कट रहा हूँ। सही मायने मे यहाँ पर मज़ा आता है और कब तक इन्सान घर मे बैठा रहेगा।”
मैंने पूछा, “और कब तक आदमी इस जगह मे रहेगा?”
वे बोले, “जब तक वो रहना चाहें। लोगों मे रहना और उनकी बातों को सुनना किसको अच्छा नहीं लगता भला दोस्त।? अब देखलो ज़्यादा टाइम नहीं हुआ है मुझे यहां पर और काफी लोग जानते है मुझे क्यों?”
मैंने पूछा, “क्यों? और कैसे जानते है लोग आपको?”
वे बोले, “क्योंकि मेरा रिश्ता और आना-जाना इन जगहों से रहा है जहाँ पर लोग बैठे नज़र आते हैं। वहाँ सैन्ट्रल मार्किट के कोने पर, स्कूल के बाहर, एल ब्लॉक मे, मार्किट मे, डाकघर के बाहर। पहले तो मैंने बस, यहाँ पर बस, आना-जाना किया करता था फिर दुआ-सलाम। अगर अपने टाइम का पाँच मीनट भी हम इन जगहों मे खड़े रहते हैं तो हमारी जान-पहचान बन जाती है।"
क्या बात कही है आपने, मस्त रहिये। सर...
क्या लेकर आती है ये जगहे हमारे जीवन मे? फिर इन जगहो का महत्वपुर्ण होना कब होने लगता है? कई लोगों से जान-पहचान ये क्या लाती है हमारी ज़िन्दगी मे या ये क्या है? लोग कितने लोगों को जानते हैं उसे बड़े ताव से बताते हैं और उनके साथ मे क्या रिश्ता है वो भी। ये जानना-पहचाना समाज मे एक तरह के तबके के लोगों का हुआ करता था पर जब ये आम हो जाता है या आम मे रहकर भी उससे थोड़ा हटकर रहता है तो क्या बना रहा होता है?
अपनी बौद्धनिये जीवनी को खाली कलाओ से नहीं जताते। कब दिखाने-चौंकाने के रिश्ते मे पनपती है मगर इन मामूली जगहो के नक्शे या सोच वाली जगह। जहाँ पर चार-पांच लोग आपस मे बातें, खेल कर रहे होगें वो जगह किसी के लिए कहीं महत्वपुर्ण होने की सम्भावनायें देती हैं उस सम्भावानाओ मे कैसे जीते हैं हम?
यहाँ पर लगा की सार्वजनिक जगह खाली अलग-अलग कौनों से आए लोगों के आने से ही नहीं है। वहाँ पर रहकर कोई कुछ दोहरा, बता, बोल या सुन ही नहीं रहा होता है बल्कि कोई वहाँ के लोगों के साथ अगर पाँच मीनट भी मिलता है तो वो कुछ तैयार कर रहा है। ये क्या तैयारी है या फिर ये क्या है? क्या कोई चाहत है? रास्तों पर चलते कई लोगों के मुस्कुराते चेहरो को देखने की तलब है? या नाम लेकर कोई किसी ना किसी तरफ़ से आवाज देगा वो सुनने की लरक? पता नहीं क्या? लेकिन, जो भी है वो गज़ब है।
लख्मी
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