Sunday, October 26, 2008

ये हिसाब का पानी है

इस शहर की चाल-ढाल मे शामिल होकर अपनी रफ्तार भरे जीवन के सपनों को बुनते हुए हम बस, एक नई भागदौड़ मे ही लगे रहते हैं और शहर की भी जीवनशैली मे अपनी भागीदारी दिखाकर जगह-जगह, चौक-चौराहों पर वक़्त की कभी ना ख़त्म होने वाली कगार पर खड़े हुए, मौसम के बे-ढंगे अन्दाज मे और इतराती धूप की चुलबुलाती दोपहरी मे रंगीले छातों की छांव के नीचे किसी फुटपाथ या रास्तों पर ठन्ड़े पानी की रेहड़ियाँ लगाते शख़्स। शहर की किसी न किसी हरकत से वाकिफ़ होते हैं। अपनी रोज की मेहनत कश्त भरी ज़िन्दगी मे जीते रहे हैं। जो उड़ेल देते हैं खुद को दूसरों की रोज़मर्रा मे पानी का एक तरल एहसास बनाकर।

ऐसी ही एक जगह मे हमारी बात हुई। अपने पूरे दिन को बताते हुए एक नौजवान से।
जगह रही, पान का खोका जिसके पीछे एक दीवार के साथ मे बस स्टेंड हैं और वहीं फुटपाथ की पट्टरियाँ बनी हैं जहाँ से हर वक़्त लोगों का काफिला गुजरता रहता है।
आवाजे, स्कूटर, कार, ऑटो रिक्शे जो कि तेज होर्न बजाते हुए गुज़र रहे हैं।

अपने विचारों मे खोए, पास ही मे खड़े शख़्सों की बातें, बड़े हौले से रुक-रुककर सुनाई दे रही है। पहली नज़र उनकी मुस्कूराहट कि ओर थी फिर चेहरे पर उभरती कुछ सलवाटों की तरफ़ उनसे करीबी लहजे से पास आकर एक शुरुआत कि और उनका नाम पूछा तो वो एक हंसी भरे भाव को चेहरे पर लाकर अपना नाम बताने लगे, वे बोले, “मेरा नाम अब्दुल है।"

महरुम रंग की कमीज उनके सांवले रंग पर खिल रही थी। पानी से दोनों हाथ भीगे हुए थे। एक हाथ मे पीतल का कड़ा था और दूसरे हाथ की उंगलियों मे तांबे कि अंगुठियाँ थी। उस सवाल के बाद भी फिर से देखा सुना सवाल मैंने किया। “आप क्या करते हैं?” चेहरे पर संकोच के बादल छा गये थे उनके, वे मेरी तरफ़ मे एक मज़ाकिया अन्दाज मे देखने लगे। सोच तो रहे होगें कि क्या फालतू का सवाल कर रहा है, दिख रहा है कि मैं शहर मे क्या करता फिर रहा हूँ या क्या पॉजिशन है मेरी। वे मुझे यूहीं हंसते देखते रहे मगर फिर भी अपने अन्दाज मे उन्होने कहा, "मैं मशीन का ठन्डा पानी बेचता हूँ।"

जब काम काज की बात सामने आई तो दिमाग मे उम्र जानने की इच्छा जगी। वे बहुत नर्म खाल का था। यानि ये हमारी भाषा मे कहा जाता है कि नई-नई मूंछे निकली थी उसकी। मैंने अबदुल के थोड़ा करीब आकर पूछा, "आप की उम्र क्या होगी?“

गर्मी मे रुखे अन्दाज से उसने कहा, “यही कुछ बीस-इक्कीस साल की होगी।"

अब हमारी बाते शुरू हो गई थी। उसके दिमाग मे बहुत था मेरे लिए, मगर पता नहीं माहौल मे ऐसा क्या था की वो जवाब देने वाला बन गया था और मैं कुछ ना कुछ पूछने वाला। कभी-कभी शायद शहर की किसी ना किसी राह पर ऐसी पॉजिशन हमारे साथ बन जाती है। हम शहर की सूमसान या रौनकदार सड़को पर लाइव इन्टरव्यू करने लग जाते है या हम बातचीत के बीच की बनती सारी दूरियों को अपने से काफी दूर कर देते हैं और बस, निकलने लगती हैं हमारी सारी बातें, किसी ना किसी अन्दाज़ मे। वैसा अब शुरू हो चुका था।

"अच्छा आप पानी की रेहड़ी कब से लगा रहे हो?”

अभी माथे पर पसीनें की बूंदे बन आई थी। कुछ याद करते हुए अब्दुल बोला, "शायद दो साल हो गए।"

ये उन्होनें दोनों हाथों की हथेलियों को मसलकर कहा था। उस के बाद मैंने अबदुल कि रेहड़ी पर नज़र दौड़ाई। पानी के खाली गिलास उल्टे रखे थे एक प्लास्टिक की टोकरी मे दस-बारह नींबू पड़े थे। एक रूमाल को फैला कर रखा हुआ था और पानी के नल के पास पानी चिपटा हुआ था। ऐसा लग रहा था की यहाँ से पानी रिस-रिस कर जम गया है। यहाँ से नज़र हटाने के बाद उनसे मैंने पूछा, "अब्दुल आप ये पानी की रेहड़ी कितने बजे लगाते हो?”

उनके लिए ये एक आसान सवाल था जिसे वो बिना अटके ही बोल गए, "नो बजे, सुबह जल्दी उठकर मैं आश्रम से रेहड़ी मे पानी भर कर लेकर आता हूँ और यहाँ लगा लेता हूँ।"

अब वे अपनी बातों मे गहरापन ला रहे थे। ऐसा लग रहा था कि एक अनुभव को दोहराने की कोशिश हो रही है। अब कोई उनकी उम्र पर जाने वाला नहीं था। शायद, उनकी उम्र उनके काम कर सामने कुछ भी नहीं थी। अगर अब्दुल से बातें करनी है तो उसके अनुभव से करो। दोपहर सिर पर ही नाच रही थी। गर्मी से दोनों के बदन मे खुजली मच रही थी। अब्दुल एक छाते के नीचे बैठे हुए थे। उनकी आँखों मे आँखे डालते हुए उनसे पूछा, “रेहड़ी मे कितना पानी आता है? और कितने लीटर पानी रोज निकल जाता है?”

वो पूरे दिन का अंदाजा लगाकर नज़रों को किसी हरकत मे लाकर बड़े रंज से बोले, ”पानी तो कई लीटर आता है इसमे मगर मौसम को देखकर ही पानी मिलता है। आजकल गर्मी भी होती है और कभी बारिश भी होती है तो बारिश और ठंडी मे हमारा पानी बहुत कम निकलता है। फिर भी रोज 6-7 इंच पानी निकल जाता है।"

मैंने कुछ आश्चर्य और जिज्ञासापूर्ण तरीके से पूछा, "ये छ: सात इंच का क्या मतलब है?”

तो अब्दुल मुझे समझाते हुए कहने लगे, "अरे रेहड़ी लम्बी और चौड़ी भी होती है। इसकी टंकी मे इचं के हिसाब से ही पानी नापा जाता है और अंदाजा लगाते हैं कि पानी कितना निकल गया। वैसे छ: सात इंच मे 10-15 लीटर पानी होता है।"

"एक बात बतायेगें मुझे, मैंने कई पानी की रेहड़ी वालो को देखा है। जब शहर की सड़को पर कोई नहीं होता तब भी वे अकेले खड़े नज़र आते हैं आपको पूरे दिन यहाँ रेहड़ी पर खड़े रहना कैसा लगता है?”

इसके बाद ही बड़ी तेजी से होर्न देता ट्रक गुजरा और छोटी-छोटी गाड़ियों के घर्राहट मिनट दर मिनट मे हो रही थी फिर अब्दुल कुछ अपने पूरे दिन को सोचते हुए बोले, "बस, सब लोगों को आते जाते देखकर। उनको हंसते-बोलते सुनकर वक़्त कट जाता है और वैसे भी हमारे पास कोई ना कोई बंदा आकर पानी मांगता है तो कोई रोब से बोलता है। 'ओए एक गिलास पानी दे' तो कोई बड़ी तेजी से कहता है 'अबे जल्दी दे छोटू' इस तरह के शख़्स भी मिलते हैं कि हमारे पास खड़े होकर सिर्फ़ इशारा करके कहते हैं आँखे और भंवो को ऊपर करके अपनी तरफ़ ले आना तो मैं समझ जाता हूँ कि पानी माँग रहे हैं। बहुत ही मस्ती मे होते हैं 'हैलो भाई या सरजी एक गिलास पानी दो' फिर कुछ लोग इंग्लिश भी झाड़ जाते हैं।"

अब अब्दुल का चेहरा कुछ खिंचा हुआ था और आँखे भी भिच गई थी। एक शख़्स के बारे मे बताते हुए उन्होने कहा, “कहा तो इंगलिश भी झाड़ जाते हैं कहते हैं 'प्लीज वन ग्लास वाटर' ।

एक हिम्मत की सांस लेकर अब्दुल ने अपना बदन ढीला छोड़ा और मैंने उनसे पूछा, "अच्छा यह पानी की रेहड़ी आपकी है या किसी और की?”

वो रेहड़ी पर हाथ फेरते हुए बोले, नहीं, इसका मालिक कोई और है, बाबू नाम है उसका। उसकी ऐसी दस-बारह रेहड़ियाँ हैं। जो अलग-अलग जगह जैसे आई.टी.ओ चौक की लाल बत्ती पर, लाजपत नगर मार्किट मे, मूलचंद बस स्टाप के पास और चिड़िया घर के बस स्टेंड पर लगती है। ऐसी काफी जगहे हैं जहाँ मेरे जैसे बदें पानी की रेहड़ी लगाते हैं।"

इसी बीच पानी पीने वाले शख़्स भी आ रहे थे। अब्दुल मुझसे बात करते-करते उन्हे नल का हत्था खींचकर पानी भी पिला रहे थे। उनके इस पूरे दिन की मशक्कत को देखते हुए उसकी कमाई के बारे मे पूछ लिया, "तो अब्दुल जी रोज की कमाई है आपकी या महीने का पैसा मिलता है?”

जब बात पैसे की आई तो कुछ थके हुए मूड मे बोले, "नहीं-नहीं, पूरे दिन के बाद मालिक आकर पानी स्केल से नापकर एक कॉपी मे लिख जाते हैं। जितने इंच पानी निकला उतना लिखकर रात आठ या साढ़े आठ बजे तक मुझे 70 रुपए दे जाते हैं।"

"हर रोज 70 रुपए ही मिलते हैं?”

यह अब्दुल का अपना मासिक गणित हिसाब था। मैंने उसे छेड़ना ज़रूरी नहीं समझा।

"अच्छा अब्दुल भाई, क्या आपका हाथ नहीं दुखता बार-बार नल का हत्था खींचने पर?”

अब्दुल ने कहा, “नहीं कुछ ख़ास नहीं, पहले मैं शुरू मे झिझकता था मगर अब आदत डाल ली है। कभी-कभी रात को सोते समय भी सीधे हाथ की कलाई ऊपर नीचे होती है तो मामा हँसते हैं और सुबह मेरा मज़ाक बनाकर सुनाते हैं।"

मैंने कहा, "उनकी मुस्कुराहट मे शामिल होकर और उनकी इस आदत को जान कर क्या आप इसी जगह पर खड़े होते हैं हर रोज?”

अब्दुल ने कहा, “नहीं ऐसा नहीं है। मैं कभी चाँदनी चौक चला जाता हूँ। कभी दरिया गंज तो कभी प्रगति मैदान। हमारी जगहें बदलती रहती हैं और रेहड़ियाँ भी।"

"अच्छा" ये मुंडी हिलाकर मैंने कहा था और फिर उस जगह लोगों की आवाजाही तेज़ हो गई फिर बीच-बीच मे पानी पीने वाले और आने लगे। कुछ रुक-रुककर हमारे बीच ही सवाल ज़वाब होने लगे। मैंने कहा, "अच्छा आप कितनी बार इस रेहड़ी का पानी पीते हैं?”

ये सवाल ऐसे ही पानी को देखकर पूछ लिया था। अब्दुल भवें उपर चढ़ाकर सरल भाव से बोले, "नहीं साहब, मैं इस रेहड़ी का पानी नहीं पीता। मेरी बोतल तो अलग है। (अब्दुल ने एक पुरानी पेप्सी की बोतल मे भरा पानी दिखाते हुए) यह देखो।"

अजीब बात थी ना! पानी वाला खुद रेहड़ी का पानी नहीं पीता मगर रोजाना वो सैकड़ों लोगों को ठंडा पानी पिलाता है। ये मैंने मन मे ही सोचा था मगर अब्दुल की आँखों मे कुछ चुंभ रहा था फिर मैंने उनकी रेहड़ी पर लिखे हुए स्लोगन को पढ़ा, लाल रंग के पेंट से लिखा था। एक सजावटी ढंग से

!ॐ नम: शिवाय!
मशीन का ठंडा पानी
50पैसे गिलास

और बड़े अक्षरों मे एक नाम लिखा था। "बाबू“ साथ ही लिखा था । "हमारे यहाँ शादी और पार्टी के लिए गाड़ी व मयूर जग का प्रबंध होता है"
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एक शायरी अपने आप को पेश करने की दो लाईने भी थी। अब्दुल को मुस्कुरा कर मैंने वह लाईने पढ़ दी। जो उनकी रेहड़ी के सामने लिखी थी

!फूल है गुलाब का सुगंध लेकर जाओ!
!पानी हैं हिसाब का रुपया देकर जाओ!

इस आवाज के साथ ही एक हंसी हम दोनों के चेहरे पर उभर आई। वाकई यह हिसाब का पानी था।

राकेश

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