Saturday, October 18, 2008

हवादार मण्डलियां

रामेश्वर जी के घर लौटने का हमेशा इन्तजार किया जाता। जब तक वे घर पर नहीं लौटते उनके घर मे कोई भी काम शुरू नहीं होता। ना तो चूल्हा जलता और ना ही किसी भी किस्म की कुछ बनाने की प्रक्रिया चल रही होती मगर, उनका घर लौटने से पहले एक बार अपनी मण्डली मे हाजरी लगाना जरूरी होता। उसमे सबसे पहले ये देखा जाता की कितना नेक आया है वैसे तो जो जाता था वो नेक उसी का होता लेकिन उसके बावजूद जहां गए थे वहां के मुखिया का नाम व घर का पता लिखा जाता और ये भी देखा जाता की वहां से कितना नेक आया है ताकि कोई दूसरा उस घर ना चला जाए और ये भी कि यहां से इतना मिल गया है तो अगले घर से कितने की उम्मीद रखी जा सकती है।

एक छोटी सी बस्ती के एक पुराने पार्क मे बनी एक तिरपालो की झुग्गी, जिसमे ना जाने कितने तरह के माहौल बनते व बनाये जाते। आज बहुत तेज बारिश है और कहीं से भी पानी का रूकना ना मुमकिन है। रामेश्वर जी कितनी भी कोशिस करें मगर पानी का अन्दर आना तो तय है। उनकी बीवी बेइन्तहा कोशिस करती पर पानी को रोकना उनके बस का नहीं था। पूरा पार्क पानी से बह रहा था। इक्का-दूक्का लोग नज़र आते तो वो भी बौछारों और हवा मे उड़ती मिट्टी की धूंधली परत के पीछे गायब हो जाते। उन्होनें झुग्गी के ऊपर हर तरह से तिरपाल को बिछाने की कोशिस करली थी। बस, वे चाहते थे कि जहां पर खाना बन रहा है वहां पर पानी ना आए बस, उसी को सही करने मे लगे रहे, पूरा नहा चुके थे। उनकी बीवी ने छाता स्टोव के ऊपर खोला हुआ था। स्टोव कि आग मे अब वे गर्मी नहीं थी जो एक ही बार मे रोटी को सेक दे। पानी मे उनकी बीवी पूरी भीग चुकी थी। बस, रह गया था तो खाली वो स्टोव और उसपर सिकती रोटी। कभी-कभी तो पानी की कोई ना कोई बून्द जैसे ही गर्म तवे पर गिरती तो उसकी आवाज उनके छाते मे घूम जाती। बून्दे गर्म तवे के साथ मस्ती कर रही थी। स्टोव के नीचे से अब पानी बहना शुरू हो चुका था। रामेश्वर जी ने अब कुछ भी करना बन्द कर दिया था। उनकी बीवी ने भी छ: रोटियां सेकी और स्टोव को बन्द कर दिया। अब वे भी बाहर आकर बारिस मे नहाने लगी थी।

यहां पर बिना किसी की इजाजत लिए इन्हे इस पार्क मे बसें अभी लगभग तीन साल ही हुए हैं। अभी छ: महिने पहले तो किसी को पता भी नहीं था की ये कौन हैं और कहां से आए हैं? रामेश्वर जी जब लोगों के घर मे नेक मांगने के लिए जाते हैं तो बिलकुल भी पहचानने मे नहीं आते। सभी के दिमाग मे ये रहता है कि ये कहां पर रहते हैं? मगर, इस12 गज़ की झोंपड़ी मे ना जाने कितने मौकों व अवसरों को बातों मे लाया जाता है वो कोई नहीं जानता। यहां दुआयें समेटी जाती हैं।

झोंपड़ी मे और कोई नहीं था। बारिश भी आज रूकेगी नहीं ये मानकर रामेश्वर जी ने अपनी जैब से एक पन्नी निकाली जिसमे पैसे लपेटे हुए थे। उन्होनें वो पन्नी अपनी बीवी के हाथों मे दी और कहा की ये कहीं हिफाजत से रख दे। आजकल नेक की कमी नहीं है शादियां ही शादियां हो रही हैं। कल मुझे दो और घरों मे जाना है कल भी मेरे साथ मे विनोद जायेगा। उनकी बीवी ने स्टोव से छाता उठाया और झोंपड़ी के अन्दर दाखिल हुई और उस पन्नी को कहीं रखकर तुरंत बाहर आ गई। अंधेरा हो चुका था तो बारिश की बून्दो को देखा नहीं जा सकता था मगर, उनकी स्पीड़ को महसूस किया जा सकता था। उनकी बीवी की कपकपाहट से और अब तो रामेशवर जी भी झन्ना रहे थे। लेकिन अन्दर जाकर भी होगा क्या? इससे अच्छा है कि भीग ही लिया जाए। वो वहीं झोंपड़ी के एक किनारे पर बैठ गए। बारिश हल्की होने लगी थी। झोंपड़ी तो पूरी तर हो चुकी थी। पानी की लम्बी-लम्बी धारा उनकी खाट के नीचे से बह रही थी। रोटियों को उनकी बीवी ने कटोरदान मे लपेट कर रख दिया था पर उनकी नज़र उन्ही पर थी। जहां पर वो खड़े थे वहां से पानी बहुत तेजी से निकल रहा था जिससे वे अन्दाजा लगा रहे थे कि बारिश की क्या स्पीड़ है।

उनकी झोंपड़ी के साथ मे ही एक बड़ा सा बरगध का पैड़ है, जहां पर अक्सर बस्ती के बड़े बुज़ुर्ग बैठकर बातें किया करते हैं। उस पैड़ के नीचे एक बड़ा सा चबूतरा बना हुआ है। जहां से हमेशा तेज आवाज़ो का काफिला आता रहता है। अभी पिछले ही दिन, रामेश्वर जी ने वहां पर एक झूला डालने के लिए जैसे ही रस्सी डाली तो वहां के कुछ लोगों ने मना कर दिया। वो इसलिए कि एक वही जगह है जहां पर वे बुज़ुर्ग बैठ सकते हैं या बैठ जाते हैं नहीं तो हर जगह पर किसी ना किसी का कब़्जा ही रहता है, बस्ती के अन्दर के कई पार्क तो उनके पास रहने वाले लोगों ने ही ज़प्त कर लिए हैं इसलिये बैठने की जगह मिलना बहुत मुश्किल हो गया है। वो पैड़ हवा के बड़े और तेज झौकों से आज खुद ही झूल रहा था। जिसे रोकने वाला आज कोई नहीं था, ना तो कोई आवाज़ थी और ना कोई मानस, वे अकेला ही हवा के मज़े ले रहा था। रामेश्वर जी ने वहीं पर बैठने का इरादा किया। उनकी बीवी ने फटाक से झोंपडी के ऊपर पड़ा एक कपड़े का टुकड़ा नीचे धकेला और उनके साथ मे वहां आकर खड़ी हो गई।
रामेश्वर जी पैड़ के ऊपर देखते हुए बोले, "यहां पर तो बारिश ही नहीं है। मगर, फिर भी चबूतरा पूरा भीगा हुआ है।"

चौगड़ी मार कर उन्होनें वहां पर अपने आप को छोड़ दिया। थकावट से भर शरीर बैठने को जैसे तरस रहा था। बस, दोनों वहां पर बैठे अपने घर को देखने लगे।

अपने मुंह से पानी को पौछते हुए रामेश्वर जी बोले, “आज हम जिसके घर मे गए थे वहां पर लड़की की शादी थी। बाप ने बेटी को विदा किया ही था की हम पंहूच गए। पूरी आँखे लाल हो रखी थी उनकी, ऐसा लग रहा था जैसे बहुत रोये होगें वो। ज़्यादा बड़ा घर नहीं था उनका, छोटा सा ही था। दरवाजे पर एक स्वागतम का पोस्टर लगा था और बहुत सारी चूड़िया टंगी थी। उनका दरवाजा बहुत छोटा था लग रहा था जैसे वो दरवाजा अलग से लगवाया हो, अभी हाल ही में। बहुत कम लोग थे उनके यहां लगता था जैसे सारे जा चुके थे, पता है विनोद ने वहां जाते ही नाटक शुरू कर दिया, पहले तो मुझे लगा कि वो उन्हे डरा देगा मगर, जिस बात का मुझे डर था वही उसने किया। उनको डरा दिया, जैसे ही हमने उन्हे 3000 रूपये का बकाया बताया तो वो वहीं कुर्सी पर बैठ गए, ऐसा लग रहा था कि शायद कुछ हुआ है पर हम पुछ भी नहीं सकते थे। हमने उनके हाथ मे जैसे ही वो बकाया वाला रजिस्टर दिया तो उन्होनें देखा नहीं बस, वो हमारी तरफ़ देखते रहे। उन्होनें हम दोनों को वहीं पर कुर्सी लगाकर बैठने को कहा और अन्दर चले गए। पहले तो विनोद बोला, “देख बेटा कितनी जल्दी हो गया अपना काम" मगर मेरे मन मे कुछ आ नहीं रहा था। फिर सोचा कि चलो अच्छा है हो गया काम तो बस, किसी का मन ना दुखे। वो जल्दी ही बाहर आ गए थे, पता है रेश्मा कि वो क्या लेकर आए थे अपने हाथ मे? दो थालियों मे चावल, दाल, मठ्ठी, मिठाई और कपड़ा। उन्होनें ये सब हमारे हाथ मे देते हुए कहा, “मेरे पास इसके अवाला कुछ भी नहीं है देने के लिए।" जब उन्होनें ये कहा ना रेश्मा तो दिल मे पता नहीं क्या हुआ विनोद खुद मुझसे बोला कि रामेश्वर चल यहां से इससे ज़्यादा और क्या मिल सकता है हमें, एक तरफ़ मे ये हो रहा था और दूसरी तरफ़ मे बड़ी जोरो से डांस चल रहा था, काफी सारी औरतें नाच रही थी, वहां पर एक दम से काफी सारी भीड़ आने लगी। पहले तो लगा की ये कोई और हैं मगर, वो तो इसी घर के लोग थे। उन्होनें हमारे करीब मे आकर ही नाचना शुरू कर दिया। मैं तो उन भाईसाहब के साथ बात करने मे लग गया और विनोद भाई साहब तो वहां नाचने के लिए चले गए। अरे, क्या टॉपक्लास नाचता है विनोद तो, एकदम धांसू। वहां तो सभी उसका डांस देखकर खुश हो गए, वो लगभग दस मीनट तक नाचा होगा। वहां सभी पुछने लगे कि ये कौन है? कोई कहता कि ये लड़की के मामा का दोस्त है, कोई कहता की ये अलीगढ़ वाला है तो कोई कुछ और कहता, मगर हम तो कोई और ही थे।"

उनकी बीवी तो कपकपा रही थी। लेकिन रामेश्वर जी तो आराम से बैठे थे, दिन भर कि गर्मी को पानी देने मे आराम मिल रहा था। उन्होनें अपने पैर ऊपर कर लिए, पानी जमा होने लगा था, बल्ब की कम रोशनी मे पूरा पार्क चमक रहा था। हवा काफी जोरो पर थी और उसके साथ मे काफी ठंड भी। वो अपनी वर्दी की तरफ़ देखते हुए बोले, “क्या ये कल शाम तक सूख जायेगी? कल जाना है मुझे एक और घर और हां वो मशालदानी मे हल्दी और केशर डाल दियो ख़त्म हो गई है। आज टीका बनाने मे कम पड़ गई थी।"

उनकी बीवी ने हां मे गर्दन हिलाई और अपने दोनों हाथो को अपने मे समेटते हुए रामेश्वर जी को देखने लगी। वो उठ कर गए और बाहर रखे छाते को उठाकर ले आए, उसे अपनी बीवी के हाथों मे पकड़ाते हुए कहने लगे, “क्या तू कभी, वो 19 नम्बर की झुग्गियों मे गई है? आज हम वहां पर भी गए थे। अरे, रेश्मा का भीड़ थी वहां पर तो दबाकर, वहां घुसते ही खाली सिर ही सिर नज़र आ रहे थे ऐसा लग रहा था कि उस भीड़ के आगे जरूर कुछ हो रहा है मगर क्या ये पता नहीं चल रहा था। पहले तो लगा कि ये वही घर है जहां से हमे नेक लेना है लेकिन ये वो नहीं था। वहां पर तो कुछ और ही चक्कर था। एक पलते, सूखे से आदमी ने अपने हाथो मे एक बड़ी भारी सी सिल्ली उठाई हुई थी और गालियां बकता हुआ कह रहा था कि "मन्ने यो पूरी जमीन चाहिये, नहीं तो आज मैं यहीं पर ठेर हो जाऊगां।" पता नहीं भाईया क्या माज़रा था और बहुत जोर-जोर से उस सिल्ली को उस पक्की दीवार मे मार रहा था। विनोद ने मुझसे कहा कि बेटा निकलले यहां से नहीं तो खमखमका के चक्कर मे पड़ जायेगें। वो पता नही किस चक्कर मे फंसने की बात कर रहा था। मगर, वो बन्दा निकलने भी तो नहीं दे रहा था, रास्ते मे खड़ा था। बाद मे वहां पर खड़े लोगों से पता चला की जहां पर वो पक्की सी दीवार बनी है वहां पर पहले वो बन्दा रहता था, एक झुग्गी थी उसकी। कुछ टाइम के लिए वो कहीं चला गया होगा तो वहां कि थोड़ी सी जमीन किसी ने ज़प्त करली, अब ये आया तो यहां पर उसका कुछ भी नहीं था तो बस, तभी ये रगड़ा हो रखा था। थोड़ी आगे की तरफ़ मे जब हम उस घर के सामने गए जहां पर शादी थी वहां का तो माहौल ही गज़ब था, काफी भीड़ थी, वहां पर भी खाली सिर ही सिर नज़र आ रहे थे, उस भीड़ के आगे लगभग आठ लोग थे, पांच आदमी और तीन औरतें। दो आदमी जमीन पर लेटकर नाच रहे थे, एक सांप की तरह। कभी नाली मे घुसते तो कभी बाहर ही मचलते रहते। पता है गाना भी तो वो ही चल रहा था। कोई कील सपेरा ले डुगा, ते नाग बाधंले जुल्फा के। बस, सभी वहां पर नाग ही थे। दो औरतें तो लम्बा सा घूंघट करके बस, अपने पेट को निकालकर दबाकर नाच रही थी, बाकि के तीनो आदमी उनसे कभी तो बहस करते तो कभी उनसे दूर हो जाते। मगर वो औरतें जैसे हारने वाली नहीं थी वो तो गाने मे खो चुकी थी, नाचती हुई कभी तो उन लेटकर नाचते आदमियों के ऊपर गिर जाती तो कभी खड़ी होकर अपने मे खो जाती। दो लोग एक छोटे से दरवाजे के अन्दर ही चालू थे। उन्हे बाहर वालो से कोई मतलब नहीं था बस, मग्न थे। मैं और विनोद तो ये देखने मे लगे थे कि यहां का मुखिया कौन है जिससे बात कि जाए पर पता चले तब तो करें बात, अभी तो सभी खोये हुए थे। काफी देर तक हम खड़े रहे। लगभग 15 मीनट खड़े रहने के बाद मे एक आदमी से मुलाकात हुई तब पता चला की यहां का जो मुखिया था वो दूसरे घर गया हुआ है, तो वो कल आयेगा। विनोद तो कह रहा था कि चल यहां से मगर, मैं ही मना कर रहा था। सोच रहा था यहां आए हैं तो कुछ लेकर ही जाए लेकिन वो हो ना सका। उसके बावज़ूद भी मन खुश हो गया वहां लोगों का डांस देखकर। सारे के सारे बावले हो रखे थे।"

इतने मे काफी जोरो से ढोल की आवाजें आने लगी, रामेश्वर जी बोले, “इतनी बारिश मे कौन है जो झुम रहा है? चलो अच्छा है हमारे लिए कोई और भी तैयार हो गया।"
उनकी ये बात सुनकर, उनकी बीवी बोली, “बारिश तो कब की बन्द हो गई, तुम्हे कुछ होश भी है?”

पानी को सकेरना शुरू हो चुका था, उनकी बीवी ने झाडू उठाई और पानी को सकेरने लगी। मिट्टी की महक से पूरी झोंपड़ी महक रही थी। खाट को बाहर करके रामेश्वर जी ने रोटियों को खोलकर रख दिया, बाहर खम्बे से जाते तार पर एक अपना तार डाला और अपने घर मे बल्ब जला दिया, पार्क मे तो स्ट्रीट लेम्प से खूब रोशनी हो रखी थी। बाहर रखे ड्राम से एक बाल्टी पानी निकाला और अपने ऊपर डाल कर तैयार हो गए खाने के लिए।


लख्मी

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