Saturday, October 4, 2008

बदलती नेम प्लेट

दरवाजे से अभी बारात विदा हुई ही थी के दो वर्दीधारी शख़्स दरवाजे के सामने दाखिल हुए। ख़ाकी पेन्ट, ख़ाकी कमीज़ और दोनों के गले मे रुमाल बन्धे हुए थे। उन दोनों की कमीज की जैब पर लगी नेम प्लेट पर लिखा था "मंडली सचिवालय" लेकिन, ये छोटे शब्दों मे था उसके ऊपर लिखा था उनका नाम, रामेश्वर और विनोद सारवान।


दरवाजे के सामने खड़े वे अन्दर की तरफ़ झाँक रहे थे। हाथ में एक बहुत पुराना रजिस्टर था जिसके पन्ने बड़ी बेकद्री से फटे व निकले हुए थे। रामेश्वर के हाथ मे वो रजिस्टर लगा था और विनोद सारवान ने उस रजिस्टर के नीचे हाथ लगाया हुआ था। रामेश्वर ने जैसे ही रजिस्टर का पहला पन्ना खोला उसमे से शादी के कार्ड का एक हिस्सा नीचे गिरा जिसमे अक्सर घर का पता व दूल्हा-दुल्हन का नाम लिखा होता है। विनोद सारवान ने वे पन्ना उठाया और उसमे लगे लाल रंग को साफ़ करने लगे। पन्ना दोनों तरफ से लाल हो रखा था। जिसमे छपे शब्द भी आर-पार नज़र आ रहे थे। खाली वे लाल ही नहीं बल्कि तेल के निशानो से भी तर हो रखे थे। उन्होनें वो पन्ना अपने दोनो हाथो से साफ़ किया। जैसे ही उन्होनें उसे साफ़ किया वैसे ही उन्होनें अपने हाथो को पानी से धो लिया। साफ़ करते ही वे रामेश्वर से बोले, "कहां रख रखा था ये कार्ड पूरा मिर्च मे हो रखा है?" रामेश्वर ने रजिस्टर को खोलते हुए कहा, "कल जहां से हम नेक लेकर आये थे उन्होनें जो खाने का समान दिया था उसी थैले मे रख दिया था मैंने शायद उसी मे मिर्च भी होगी।"

मिर्च से रंगे उस पन्ने को उन्होनें साफ़ किया और वहीं उन्ही के साथ खड़े हो गए। इस कार्ड को देखकर लग तो नहीं रहा था कि ये इसी घर का है, शायद किसी दूसरे घर भी जाना हो। रामेश्वर ने रजिस्टर के आखिरी पन्ने को खोला और वहीं दरवाजे से टेक लगाकर खड़े हो गए। ये घर अपनी इस गली मे सबसे पुराना था। गली मे बाकि मकानों की ऊंचाई और इस घर की नीचांई इस बात की पुष्टी करती है। रामेश्वर दरवाजे पर बार-बार हाथ मारते और आवाज लगाते "सुखलाल जी बाहर आईये।"


ये आवाज पिछले पाँच दिनो की भीड़-भाड़ के मुताबिक सुखलाल जी के लिए कुछ अलग नहीं थी।


बेटी को विदा करके वो अभी भी अपनी गीली आँखों से पानी को पौंछते हुए बाहर आये। उनके दरवाजे के अन्दर से बाहर खड़े लोगों की छाती से आदमी दिखना शुरू होता है, चेहरा नहीं नज़र आता। एक बार को तो वो उस वर्दी को देखकर हकबका गए मगर, बाहर आते उनके कदम रुके नहीं। वे गर्दन को नीचे करते हुए बाहर उस शख़्स का चेहरा देखने लगे। भारी शरीर और चेहरा दाड़ी और मूंछो से भरा हुआ और दिखने में एक दम तंदरूस्त थे। सुखलाल ही जी की नज़र चेहरे से हटकर सीधा उनकी नेम प्लेट पर गई। वो उनके चेहरे मे कुछ समझने की कोशिश करते हुए उन्हें लगातार देखते रहे।


इतने मे रामेश्वर ने अपने हाथों मे उस रजिस्टर को घुमाते हुए कहा, “आप सुखलाल जी है? नमस्कार जी! हम दुकान नम्बर सी-558 से आये हैं।"


सुखलाल जी को देखते ही वो दोनों बड़ी तेजी से हरकत मे आये और रजिस्टर को उसी तरह पकड़कर खड़े हो गए जैसे पहले खड़े थे। उन्होनें रजिस्टर का आखरी पन्ना खोला और पढ़ना शुरू किया।

राजमा 15 किलो, दाल लाल वाली 7 किलो, कावेरी चने 15 किलो, बासमती चावल 30 किलो, आटा 2 बोरी, हल्दी 5 किलो लाल कुटी हुई मिर्च 5 किलो, नमक 5 किलो, जीरा 2 किलो, काली मिर्च 2 किलो, कड़ी पत्ता 2 पैकेट, देशी घी 5 किलो, रिफांइड 15 किलो

टोटल हुआ-- 15,000/- रुपये
जमा करायां-- 13,000/- रुपये
बकाया----- 2,000/- रुपये


पूरा पन्ना उन्होनें चाहे कोई सुने या ना सुने बस, सुनाते चले गए। हांलाकि उन्होनें जो लिखा हुआ सुनाया उसकी लिखावट खाली वही पढ़ सकते थे। इतनी ज़्यादा घचड़-पचड़ वाली आकृतियां किसी और के समझ मे तो आने वाली नहीं थी। उनके सुनाते-सुनाते वहां पर खड़े सभी रिश्तेदार व लोग उनके इर्द-गिर्द जमा हो गए थे शायद ये भी देखने के लिए कि कितना समान लगता है शादी मे। दूसरी तरफ़ सुखलाल जी उनकी ये लिस्ट सुनकर भौंचक्के से खड़े थे।


रामेश्वर उनकी तरफ़ मे देख रहे थे। इसी चाहत मे की या तो वो कुछ कहेगें या पैसे लेकर आयेगें। रामेश्वर ने सुखलाल जी की तरफ रजिस्टर को घूमा दिया। सुखलाल जी ने वो रजिस्टर अपने हाथों मे पकड़ा और पन्नो को पलटने लगे। आगे तो सभी पन्नो पर हल्दी से सातीया और टीके के निशान बने थे। सुखलाल जी उन्ही निशानों पर अपनी उंगलियां फिराते और पन्ना पलट देते। सभी पन्नो पर शुरू मे ही सातीया के निशान थे और पन्ने के नीचे अंतिम मे किसी के अंगूठे के निशान थे तो कहीं हस्ताक्षर। कई घरों के पते थे उसमे किसी मे 25,000/- रुपये तक का समान था तो किसी मे 30,000/- रुपये तक का। मगर बकाया सभी मे 2,000/- रुपये से 3,000/- रुपये तक का ही था। तारीखे तो उन्ही सातियों के निशानो के नीचे छुप गई थी मगर दुकान के नम्बर सभी अलग-अलग थे। किसी मे जी-574 था तो किसी मे बी-238, कई तो ऐसे नम्बर थे जो समझ ने आने भी मुश्किल थे। पन्ने भी पीले रंग मे नहा चुके थे। किसी-किसी पन्ने मे तो पानी के गिरने से वो लाल हो चले थे। किन्ही पन्नो मे तेल व मिर्च की चिकनाई थी। अगर पन्ना पलटने के बाद मे उंगलियों को नाक के नीचे के हिस्से मे घुमा लिया जाये तो मिर्च की कसक पूरे दिन साथ ना छोड़े।


सुखलाल जी धीरे-धीरे अपने घर के पते वाले पन्ने पर आ रहे थे। उनकी नज़र हिसाब के आखिरी अंको पर थी कि कितनो ने कितना दिया है तो अपना हिसाब लगा सकेंगे कि हमें कितना देना चाहिये।


"आप वहां से जो समान लाये हैं ये उसका बिल है अभी दे दीजिये। हमे कहीं और भी जाना है।"

रामेश्वर ने सुखलाल जी को रजिस्टर मे ज़्यादा खोने से बाहर धकेला और ये कहते हुए वो वहीं जलती भट्टी के पास बैठ गए। सुखलाल जी अभी भी उस पन्ने को तलाश रहे थे जिसपर उनका समान लिखा था। उनकी नज़र दोनों तरफ़ घूम रही थी। कभी रजिस्टर मे तो कभी उन दोनों वर्दीधारी शख्सो पर लेकिन वो दोनों तो भट्टी के पास बैठे बस, चाय को बनता देख रहे थे। सुखलाल जी पूरी निगाह जमाये थे अपने समान पर।

बहुत देर के बाद मे बोले, “हम तो सारा चुका आए हैं तो ये क्यों भेज दिया उन्होंने?”

"उनका तो दे आये आप मगर हमारा कौन देगा? दुआयें बांटने वाले, मुलाज़िम को कोई नहीं पूछता।" विनोद सारवान ने कहा।


उन्होंने ये डायलॉग मारा और चुप हो गए। सुखलाल जी समझ नहीं पा रहे थे की आखिर मे माजरा क्या है? और वे फिर से उसी रजिस्टर मे कहीं ठहर गए। भट्टी के साथ मे बैठे एक जनाब मे उनको आवाज़ लगाई, “हां जी साहब, भट्टी गर्म है बताइये क्या-क्या बनाना है?”


सुखलाल जी ने रजिस्टर को हाथ मे समेटते हुए कहा, “10 किलो शक्कर पारे और 10 किलो फिकी मठ्ठी बना दो, रिश्तेदारो को विदाई मे बाँधनी है।"


ये सुनकर रामेश्वर खड़े हुए और वहां रखे समानों व कुर्सियों के नीचे से कुछ ढूंढने लगे। वो सारी कुर्सियों के नीचे हाथ डालकर कुछ निकालते। सुखलाल जी ने रजिस्टर को दोबारा पलटते हुए कहा, “देखिये आप गलत पते पर आ गये हैं। हम अपना सारा बकाया चुकाकर आये हैं। ये आप ले जाइये और सही पते पर जाकर मांगिये। दुकान वाले से सही पता लेकर आईये।" सुखलाल जी विनोद सारवान के हाथों मे रजिस्टर को थमाते हुए वहीं बैठ गए।


"अजी मालिक, वो तो समान का देकर आये हो हम दुआ बांटने वालो को कौन देगा? हमे तो आपने शादी मे भी नहीं बुलाया।"


ये बात उन्होनें दोबारा सुनी तो फिर से वो सुध हो गए। वो उनकी तरफ़ देखते हुए बोले, “आप हैं कौन?”


"कहा तो है, हम दुकान नम्बर सी 558 से आये हैं। यहां पर शादी है पता चला तो ये भी पता किया की आपके यहां समान कहां से आया है? वहीं पर बैठकर समान की लिस्ट बनाई। तब यहां आये हैं साहब, हम तो मुलाजिम है। हमने आपका समान टैम्पो मे चढ़ाया था और उतारा भी था। हम वो है। अब तो लाइये हमारा नेक, वो तो दीजिये।"


"अच्छा, तो आप यहां पर बैठ जाइये।" ये कहते हुए सुखलाल जी अन्दर चले गए। काफी देर के बाद मे उनके चेहरे पर मुस्कान की झलक छलकी थी। वो अन्दर घुसते ही बाहर आ गए और विनोद सारवान के हाथ मे 500 रुपये का नोट पकड़ाते हुए बोले, “अब तो हो गया ना हिसाब पूरा?”


इतने मे रामेश्वर भी हाथो मे दो पॉलिथीन पकड़े हुए वहां आ गए और 500 रुपये का नोट देखकर बेहद खुश हुए। उन्होंने जल्दी से वो पन्नी विनोद को पकड़ा दी और रजिस्टर का वो पन्ना खोला जिसमे सुखलाल जी का समान लिखा था। वो हलवाई के पास रखी हल्दी को अपने हाथ पर रखकर ले आये। उसमे पानी की बूँद डालकर उसे गूंद लिया और उनके समान के पेज पर भी उन्होनें सातीया बनाया और टीका लगा दिया। पन्ने के अंतिम मे उन्होनें अपना और विनोद सारवान का नाम लिखा और सुखलाल जी के हस्ताक्षर करवाये। उनको दुआयें देते हुए वे हलवाई के पास चले गए और वो पॉलिथीन खोलकर उनके आगे रख दी। सुखलाल जी ने उसको उस पन्नी मे शक्कर पारे व मठ्ठी डालने को कहा।


वे दोनों उसी गति से बाहर चले गए जितनी की गति से वे आये थे।

लख्मी

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