Saturday, October 18, 2008

शहर एक माशूका की तरह हैं

इतना मुझे बता दो क्या ज़िन्दगी यही है,
सपने तो सारे टूटे, आरमां कोई नहीं है।
इतना तो मुझे बता दो क्या ज़िन्दगी यही है॥

कहता भी क्या किसी से, अपने मैं दिल की बातें,
तनहाई में कटी हैं खुशियों कि सारी रातें।
धड़कन है मेरी रूठी, ख्याबों मे जा बसी है,
सपने तो सारे टूटे, आरमां कोई नहीं है॥

मैं एक ऐसे शख़्स के बारे मे कहने जा रहा हूँ जो अपने रोज के ख़्यालों में व्यस्त अपनी प्रतिक्रियाओ मे अपनी आपबीति, दूसरो के बीच से साझेदारी मे और सामने से गुजरतें जीवन को अपने एक अंदाज जीते हैं। सरगमों और धुनो को गुनगुनाते हुए दोस्तों के हसीं माहौलों मे ये जिससे भी मिलते है वो और हसीन हो जाता है।

पिछले कुछ महिनों की मुलाकातों मे हमने उन के कई अहसासों और तर्जूबो को साथ-साथ बांटा है। अपने और उनकी बातचीत मे रिश्ते को पुख़्ता सतह तैय्यार करते हुए उनके साथ बिताए समय की कुछ टुकड़ियां आप को सुना रहा हूँ।

उनकी एक दूकान है जो दक्षिणपुरी जे-ब्लॉक के बाहर सड़क से सटी हुई है। इस दूकान मे वो स्टेशनरी की दूकान के साथ मे ऑडियो कैसेट और सीडी भी बेच लिया करते हैं। ये कुछ काम है इनके पर इस के साथ मे उनका चिन्तन-मनन भी। जिसमे ये मानते है की "ये मेरे लिए बस, इतना ही काफ़ी है। जो मै अपने जीवन को कहीं पनपता देखता हूँ। अपनी यादों की तरह-तरह की रचनायें करता रहता हूँ।"

इनका नाम है प्रमोद, लेकिन दोस्तों के छोटे-बड़े गुटों मे इन्हे एक ख़ास नाम मिला है "राज", उन्हें अपना चहेता मानने वाले इसी सुंदर नाम से पुकारते हैं।


कितनी हंसीन रात थी वो, जब इकरार किया था तुमने,
ना जाने क्या ख़ता हूई, जो इंकार भी किया तुमने।
बहते हैं अब तो आंसू, जैसे सावन की झड़ी है,
सपने तो सारे टूटे, आरमां कोई नहीं है॥

दिन को समझ खिलौना, ये खेल तुमने खेला,
दूनिया मे कम नहीं है आशिकों का मेला।
बने क्यों तुम सितमगर, मुझमे क्या कमी है,
सपने तो सारे टूटे, आरमां कोई नहीं है॥


ये नाम उनकी ज़िन्दगी की धुंधली और झिल-मिलाती पेशकशों का चेहरा सामने दिखलाता है। कविताओ और नये-नये गानो की रचनाए करना उन्हे बेहद पसंद है। घर परिवार की जिम्मेदारी सिर पर होने के बाद वो इस तरह अपने ख़ालीपन को शब्दों की चन्द कतार से अहसास की लड़िया बनाकर किसी भटक जाने वाली जगह मे अपना आंगन सजाएं हुए रहते हैं।

शरीर से लम्बे चौड़े और तगड़े हैं। सांवला चेहरा और गाल भरे हुए हैं और आंखे सुरमई है। जब प्रमोद राज कोई गाना या कविता गा कर हमें सुनाकर थोड़ा मुस्कुराते हैं तो उनके दिल की ग़हराई का अहसास पूरे चेहरे पर उतर आता है। बचपन से ही स्कूल पढ़ते-पढ़ते उन्हे इस तरह लिखने की जिज्ञासा कैसे पैदा हुई इसका वो अभी भी वर्णन नहीं कर पाते हैं लेकिन एक शुरुआत होने के बाद जब उन्होने अपने छोटे-छोटे नज़दीकी बदलावो को सुनना शुरु किया तो उनकी लेखिनी ने करवट बदली। अपने को छूते हर अहसास को एक रूप देने की कोशिस करते हुए वो जीवन में आती रुकावटों और आगे बड़ने की सिमाओ के बारे मे, अपनी झुंझती समझ को लिखते गए। ये दौर रुका नहीं बल्कि और ग़हरा और ग़हरा होता गया। अपने जीवन से टकराते पहलुओ से झुंझकर समझने और उनके आकार को ग़हरा करते हुए आज उनकी उम्र 40-45 साल हो गई है। जीवन मे रहन-सहन और काम की ज़रूरत को भली-भांति समझते हुए प्रमोद राज ने कई मंचो पर अपनी प्रतिभाओ को आज़माया है। जैसे, किताबो के दफ़तरो मे, नाटको को लिखने मे, किसी अख़बार या मैग्जीन के लिए और प्रकाशनो के बारे मे पढ़ कर उन से पत्रो द्वारा संवाद किया है। कभी मुलाकातों के इस सिलसिले के दौरान अपनी ज़िन्दगी का बख़ान कर दिया करते हैं। वरना उनकी रचनाओं मे हमेशा खुद के बिना किसी दूसरी छवी का ही दर्शण मिलता है। दूर किसी वक़्त की छलकती बूदों से बनी कम्पन्न की तस्वीर का या टपटपाती बूंदो का चित्रण नज़र मे आता है। वो दूसरे कंहकारो को खुद से ज़्यादा इज्जत बख़्शते है। उनकी लिखी डायरी मे कई नामी कहंकारो की रचनाए लिखी हैं। वो कहते हैं कि दर्द और नर्म अहसासो को बयां करने वाला एक शायर है अताउल्लाह खान है। जो उन्हे बेहद पंसद है।

जहां हमेशा ये सवाल समाजिक ज़िन्दगी से आता था कि घर के माहोल मे वो छुपा रूप है जहां पर बौद्धिक जीवन अपना दम तौड़ देता है वहीं पर उनका रूटीन एक आम दिनचर्या जैसा ही होता है। जिसमे वो लोगों को कहते हैं, "आम ज़िन्दगी मे हमें बहुत सी चीजें रटी-रटाई होती हैं। हर शख़्स जिसे दोहराता है। उसे बड़ा रूप स्थल दिखता है। बाहर की आँखों से देखते हुए वो जीवन मे अपना एक स्थल बनाये हैं। अपने समूचे वातावरण के अनुभव से जार्गित होकर जीवन की घटनाओ व अवसरो और इत्तेफ़ाको को एक वास्तविक रूप देकर अपनी रचना को लिख डालते हैं।

जब हम उनके पास घण्टो बैठे उन्हे सुना करते हैं तो उनकी आँखों मे एक अजीब सी कशिश पैदा हो जाती है। वो उसे मुस्कुराके हम पर जाहिर कर देते हैं। कभी-कभी मुलाकातों के बीच प्रमोद राज के संगी साथी भी आ जाया करते हैं। जो उन की ही तरह महफ़िलो मे मस्गुल होते हैं। उनकी लिखी बातें, इश्क, वैराग्य व दीवाने मस्तकलांदरों पर भी वो खूब रोशनी डालती हैं। अभी हम इस मुलाकत को और ग़हरा करने मे हैं।


इतना मुझे बता दो, क्या ज़िन्दगी यही है,
सपने तो सारे टूटे, आरमां कोई नहीं है।
रब से दुआ है मेरी, हर घड़ी हंसी हो तेरी,
हमारा क्या है संगदिल, अब तनहाई मन्जिल हमारी।
'राज' निकली दुआयें दिल से, बद़्दुआ कुछ नहीं है,
सपने तो सारे टूटे, आरमां कोई नहीं है॥

प्रमोद राज,
दिनॉक- 25/07/2008
समय- रात के 11 बजे

उनकी डायरी से, कुछ शब्द। उनकी कई रचनाओं मे उनसे हुई कई ऐसी मुलाकातों का जिक्र है जो उनकी दुकान, घर, रास्ते या सड़क के किनारों पर मिले कई अन्जान लोगों से हुई है।

राकेश

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