Saturday, October 18, 2008

मेले की विदाई

"आईये-आईये दस रुपया, दस रुपया, मजा उठाईये, दस रुपया, रुपया, जो देखे वो ललचाए, जो न देखे वो कंवारा रह जाए!”

इस ज़ुमले को सुनकर कुछ जानने की इच्छा हुई कि दस रुपये मे क्या देखने को मिलेगा। मैदान में लगे ऐसी कई आवाजें आ रही थी। एक आवाज के पीछे दूसरी आवाज़ फिर तीसरी आवाज़ फिर चौथी आवाज उसके बाद और भी। विराट सिनेमा के पिछवाड़े, हर साल लगने वाला दशहरे का मेला इस बार आखरी था। भीड़ मे तितर-बितर मेला देखने आए लोग शोरगुल मे भी मजा उठा रहे थे। सर्कस की रोनक, लोहे के झिलमिलाते झुले, जादू दिखाने का टेन्ट, गुब्बारों पर निशाना लगाते निशानची।

सब का बार भरपूर मज़ा उठाने के बाद हम थकावट दूर करने के लिए चाट पकोढ़ियों की फेरी पर गए। वहां से हो आने के बाद घरवाली ने और घूमने की इच्छा जताई पर मैं पैसों को भीच रहा था। इसलिए 'मुंड़ नहीं कर रहा' कह कर बहाने बनाने लगा।

लेकिन, किसी ने कहा है की "घरवाली से कभी बहस नहीं करनी चाहिये।" मैं उनकी ज़िद्द के आगे हल्का पड़ गया। सौ रुपये का नोट् मैंने जेब मे दबा रखा था। सोचा था की इसे घर बचा कर ले जाऊंगा। घरवाली को ये कह कर मैं शुरु से टाल रहा था की पांच सौ का नोट् है खुल्ले नहीं है। लेकिन घरवाली भी बहुत चन्ट-चालाक होती है। चेहरे को ऐसे पढ़ लेती है जैसे एक्स-रे मशीन। शरीर की हड्डियों की तस्वीर खींच लेती है।

खैर, मैंने सौ का नोट् झूठ बोलकर तुड़वा लिया और कम पैसे लगने वाली जगह ढुड़ने लगा। तरह-तरह के झूले और नौटकियाँ, मौत का कुआं, बंगाल का जादू हर तरह से मन बहलाने के कार्यक्रम मौज़ूद थे। नजरें सारे मेले मे अपना ठिकाना ढुंड़ रही थी। तभी चमचमाती रोशनी वाली एक बॉल के जैसी कोई चीज आसमान मे उड़ती दिखा दी।तो कोई रेड़ियम के हाथ मे पहनने वाले कड़े बेच रहा था। मेले के चारों तरफ जुगनुओं की तरह टिम-टिमाती लड़ियाँ लगी थी। जमीन पर पांव घिसडकर चलते लोग जिनके पांव से धूल उड़ रही थी।

मैंने घरवाली के लिए कम पैसे का एक बड़िया शो चुन लिया और न चाहते हुए भी झूठे मुंह से बड़ी-बड़ी बातें करके अन्दर जाने का टिकट ले लिया। वो मान नहीं रही थी पर मैं मनाने की पूरी कोशिश कर रहा था। "चलो नागिन का शो देखते है। कैसे लड़की नागिन बनती है?” घरवाली को लगा की मैं उनका मज़ाक उड़ा रहा हूँ। ऊपर से अभी तक ये आवाज आ रही थी। मंचान पर बैठा आदमी टेपरिकॉड़र के गाने को रोक कर अपना अलाऊस्मेन्ट करता। "अंगूर की बेटी हूँ, आईये-आईये दस रुपये में। सुई न चुबा देना, दस रुपिया-दस रुपिया चलिये-चलिये, लड़की इच्छाधारी नागिन बनेगी। आईये, दस रुपिये।" अंगुर की बेटी हुं । वो आदमी चिल्लाता रहा। और गाना बजता रहा।

जब मैं घरवाली को थोड़ा रेलिंग के पास ले गया तो हमने देखा की दो लड़कियाँ शरीर पर आधे कपड़े पहने विश्राम अवस्था मे खड़ी थी। उस के बदन पर फोक्स लाईट की रोशनी पड़ रही थी। जिससे उसकी गोरी चमड़ी चमक रही थी।
घरवाली ने अन्दर जाने के लिए मना कर दिया और कहा "देखो तो अन्दर गुन्डे बैठे हैं। ये सब लड़की को ताड़ने आये हैं, यहां से चलो।" पर मेरा मन भी हुआ की देखे तो सही की माज़रा क्या है?

कैसे भी कर के उन्हे मना कर अन्दर ले आया। हम सीट पर बैठ गए। मैं नज़रो को यहां-वहां घुमाकर किसी तरह घरवाली से बच कर सामने खड़ी लड़कियों को देखने की कोशिश कर रहा था।पर घरवाली कि निगाहें मुझ पर जमी थी। जब शोर बड़ने लगा तो वो परेशान होने लगी और झुंजला कर बोली, "कहां ले आये मुझ को, देखो कैसे बद्तमीज लोग हैं लड़कियो को देखकर कुत्तों की तरह मुंह फाड़ रहे हैं चलो यहां से।" पर मै जबरन उन्हे दक्षिण पुरी का हवाला देकर कहता रहा। "अरे ये तो शरीफ़ लोग हैं जादू देखने आए हैं। तुम खा म खा ही इनकी तहजीब पर उंगली कर रही हो।

मेरे बोलने की देर थी की किसी ने सारे करे कराये पर पानी फेर दिया। उन लड़कियों को देख कर कोई पीछे से बोला, "अरे नाचो-नाचो, बिल्लो नाचो, बिल्लो रानी।" कमबख़्तों ने घरवाली के आगे मेरी नाक कटवा दी। कितनी तरीफ़े मैंने की थी। सब झूठ धरा का धरा रह गया। वो बोली, "अच्छा सब शरीफ़ हैं देखा कितने भूखे हैं ये।" मैं उन्हे फुंसलाने लगा की वो मुझ पर नराज न हो। तुम कहीं ध्यान मत दो आराम से सामने देखो। पीछे से फिर आवाज आई, एक आदमी मुंह मे दस का नोट् लेकर बोला, "अरे नाच , नाच बिल्लो रानी।" घरवाली अपने आपको टेन्ट मे बैठै सारे मर्दो मे अकेली औरत समझ रही थी। पर मैं कह रहा था की तुम अकेली नहीं हो। पीछे बैठा आदमी हाथों से चुम्मा हवा मे उड़ा कर लड़कियों पर देकर मार रहा था।

जब वो कहता नाच बिल्लो रानी तभी अलाउस्मेन्ट हुई, "आईये नाग माता के दर्शन कीजिए" दो बार फिर तीन बार। ये सुन कर अन्दर बैठे अधिकत्तर लोग हंसने लगे। उसके मूंह का पानी उतर गया। लड़को की गिग्घी बंध गई। मगर बाहर का श़ौर रुक नहीं रहा था। ऐसा लग रहा था की इन्द्रधनूष जम़ी पर उतर आया हो।

राकेश

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