Saturday, October 4, 2008

लिखने की इजाजत

काफी देर तक सोचता रहा कि कहां से शुरू कंरू या कहां तक नज़र घुमाऊ जो असीमता को कुछ चन्द पैजो में दिखाती भी लेती है और छुपा भी लेती है। एक वो शख्सियत जिसको देखकर ये बनावट को बनाया जा सकता था कि मैं उन्हे पहचानता हूँ मगर क्या मैं सच में उनको जानता हूँ? यह अपने खुद के बने-बनाये समझ के दायरे पर सवाल था। ऐसे चन्द पैज जिनकी बनावट मे शब्दों और उसपर लिखे किसी शख़्स के उन पलों मे हमारी पहचान ने वाली क्षमता पर जमीन-आसमां का फर्क था। एक ऐसी जीवन की अपुर्णता जो आज कमी मे या फसने मे नहीं थी बल्की एक जीवन की असीमता मे ले जाती है। उसको पढ़कर क्या अपने समझ के आंकडो को रखा जा सकता था? पता नहीं शायद। मगर अपने दिमाग से कैसे कोई नक्शा खींचू या किसी छवि को भी किसी नक्शे की भी जरूरत होती है? इसका भी अन्दाजा नहीं था।

लिखना कि इजाजत कहां से मिलती है या छीन लेते हैं लोग? ये सवाल था उनके बोलो में।

लिखना जो अपनी कल्पना और नज़र का खेल होता है। जिसमे अपना-पराया, असमानता और दूरी हर पक्ष का अहम रॉल होता है। जिसके माधयम से हम जीते चले जाते हैं और किसी और का नक्शा तो छोड़ो अपने बन रहे नक्शे को भी हल्का कर देते हैं। यह लिखना लगा किसी को उतारना नहीं था। अपने जीवन से तारूफ़ कराना था। कोई आया है तो वो खाली आया ही नहीं है। वो अपने से तारूफ़ हुआ है। फिर चाहें उस आने मे क्षण भर हो या कई अनगिनत पल। जो चल-चला दिनो, हफ्तो, महिनो और सालों मे बदलने लगते ही मगर अपना खुद का जीवन उसकी परछाई मे साथ चलता रहता है। कल्पना अपने अदंर से ही पनपती है कहीं बाहर से कुछ नहीं होता। हमारे अदंर जो हमारा खुद का बनाया एक ढाचां है उसी मे से कुछ नया करने की चाहत को कल्पना नाम दे दिया जाता है। जबकि वो वहीं से आई है जहां पर हमारा समान्य जीवन रखा हुआ है।

कभी हम अपने उसी समान्य जीवन से रु-ब-रु होते हैं। कभी हमारी खुद की इसी संरचना से काफी दूर होकर उसी कल्पना को खींचा हुआ वो शब्द बनाते हैं। जिसके हमारे "अदंर से बढ़े होने" का सवाल गहरा होता है। ये लिखने का वो पात्र है जिससे हम दूरी-नजदीकी, समानता-असमानता और ना जाने कितने तरह के सोच के ट्रंग्ल अपनी कल्पना की लपेटे मे बना जाते हैं। "लपेट" खाली चड़खड़ी भरने की बात नहीं होती ये भरकर ढील देकर ऊंचाई पाने की भी होती है।

पहली बार समझने की कोशिस उभरी हम कैसे किसी शख़्स, जगह या जीवन मे उतर जाते हैं? या उसे उतार लेते हैं? हमारा जाना और हमारा रुकना किस तरह से जाहिर हो जाता है? इन्टरी पोइन्ट क्या है और ये पोइन्ट जाना ही नहीं है। बस, जाने का जरिया है। देखा जाये तो इस लिखने का कोई कर्मशनल लाइसेंस नहीं होता। हम सभी लर्निगं लाइसेंस लेकर लिख रहे हैं और लिखने को समझते हैं। कहीं भी शब्दों के मायने बन जाना और उन्हे अपने मे उतार पाना। इसी के माध्यम हैं। हर माहौल, संदर्भ, स्थान या कार्यशैली जहां पर जाना कोई मुतभेड़ नहीं रहता और ना ही वहां जाने का चलान बस, हम सीख रहे हैं और सड़क पर बहक-बहक रहे हैं। इसका कोई 'हरजाना' नहीं भरना पड़ता। बस, सिर्फ़ हमें अपनी हद, टेन्शन मे रह कर इस लिखने को उड़ान मे भरना होता है। समाज और सामग्री की सड़क पर सारे साइन बोर्ड सभी को बनाते हैं। कर्मशनल, हैवी या लर्निगं लाइसेंस के लिए एक ही रॉल निभाते चलते हैं। कोई भी जैसे सब कुछ पा गया सवाल ही नहीं है। बस, वो राहों पर है इसका उसे पता है।

शेरों-शायरी से गीत- गीतों से गज़ल- गज़ल से भजन और लास्ट मे डॉयलोग इस सभी सोच के पात्रो मे उतरना और इनको अपने मे उतारना कोई महज लिखना ही नहीं है। वो सब कुछ जैसे समान्य तो नहीं पर समानता मे है। लिखने के साथ मे एक ख़ास रिश्ता।

समाजिक भागदौड़ एक चक्कर पैदा करती है। एक ऐसा चक्कर जिसमे लोग अपनी-अपनी तेजी को तैयार करने मे लगे हैं और लर्निगं से कर्मशनल की तरफ़ मे कदम कर लेते हैं। एक टारगेट ना हो तो लिखने मे मजा ही नहीं आता। ऐसा लगता है जैसे कुछ भरे चले-चले जा रहे हैं। ये टारगेट रखने या सड़क पर बहक-बहक चलने मे कोई खासी दिक्कत लगती है या ये कोई लड़ाई है?

चक्कर जो लिखने मे, पैरो मे और सोच मे उतर जाता है और लड़ाई रहती है उन नज़रों मे आने की जहां एक बार अपनी तारूफ़ को खड़ा कर सकें।
कहते है, “अगर दस लोगों की महफिल लगी हो तो शुरुवात उससे की जाती है जिसके पास लिखने का कर्मशनल लाईसेंस हो यानि के ऑदा। तो यही लपेट कई पैरो मे चक्कर पैदा करती है पर इस सभी अन्तरद्धुधं के बीच मे उन पैजो का क्या होगा? जिसके साथ मे अपना तारूफ़, जगह से कल्पना का रिश्ता और दूरी- नजदीकी मे उतरना और उतारना भरा था। क्या वो शुरुवात के कदमों की तरह किसी पायदान पर रुक जाते हैं। उनके साथ मे सुनना- पढ़ना और सुनाने का रिश्ता दायरो को नहीं खोलता वो क्या बनावट लिए हैं?

लख्मी

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