Wednesday, October 29, 2008

रास्तों मे चिन्हो की कमी से रास्ते नहीं सूखते।

रास्तों मे चिन्हो की कमी से रास्ते नहीं सूखते। मगर हम किन रास्तों पर है और किन रास्तों पर जा रहे हैं वो हमेशा अस्पष्ट रहता है। उसमे शायद मैं खुद होता हूँ तो फिर भी अस्पष्टता किस तरह की होती है? क्या मेरे जीवन मे लोगों की कमी है और अगर क्या वो लोग मिल जायेगें तो क्या वो कमी पुर्ती मे बदल जायेगी?

कई लोग जिनकी कल्पना मे शख़्सियतें महज़ एक रोल के तहत ही होती है पर मैं अगर वो रोल को छोड़कर या हटाकर उस शख़्स की कल्पना कंरू तो क्या आकृती खड़ी कर पाऊगाँ? तो फिर हम किस कार्यपुर्ण रोल की कल्पना लिए है या किसी शख़्स की? मेरे ख़्याल से दोनों ही हमारी समाजिक दुनिया मे महत्वपुर्ण हैं। हम 'रॉल' कि कल्पना करते हैं तो उसमे उस रॉल की तैयारी खुद से करते हैं। उसे
अपने खुद के सवालों से खड़ा करते हैं। वो क्या करेगा? कब करेगा? क्यों करेगा? कब जरूरत होगी और कब नहीं? वगैरह।

उसकी एक निर्धारित कार्यशैली का पर्चा हम तैयार कर लेते हैं पर ये अगर किसी शख़्स की कल्पना है तो शायद बहुत अजीबो-गरीब होती मगर ये अजीबो-गरीब समझ बन रही है और या बन चूकी है?

हम किसी कि कल्पना कर रहे हैं तो कोई हमारी भी कर रहा है। दोनों एक-दूसरे के बहुत नजदीक है। बस, सूरत से अभी पहचान नहीं पाये। ऐसे ही जब हम किसी के सामने होते हैं तो हमारी नज़र उन पर होती है और उनकी नज़र हम पर। दोनों एक-दूसरे कि आकृतियों और रॉल तैयार कर रहे होते हैं। तो ये कितनी मुलाकातों मे तैयार हो पाती है? और नींव किन भाषा और सवालों से रखी जाती है? तो कहीं वो शख़्स मैं तो नहीं?

ऐसी ही एक उल्झन का सामना हम कर रहे हैं। हम किसी के लिए ख़ास शख़्स है उसकी खुशी है या हम किसी के लिए वो ख़ास शख़्स
है। जो सुनने वाला है और जो हर बार सुनकर आ जाता है? हर बार का मतलब वो कि हमारे जाने और बैठने को आँक गया है और हमेशा एक ही टाइम और चीज से उस आने कि अपेक्षा मे सब कुछ छुपा देता है? इनको लेकर हम जी रहे हैं? तो ये क्या है?

कहते हैं कि "जो अपनी पब्लिक को जानता है" ये लाइन किस चित्रण को खोलती है? एक दुनिया जो हर शख़्स को उसकी चाहत से समझती है या खाली जरुरत से? किसके आगे क्या बनना है वो बेहतर जानता है। तो हम क्या पब्लिक है या उसकी 'जानने' कि समझ को बढ़ावा दे रहे हैं?

इसी पब्लिक कि भीड़ मे हम थोड़ा अलग हो जाते हैं उसकी नज़र से पर उस अलग होने मे हम उनको सुनकर क्या कर रहे है? अक्सर हम जाते है किसी के पास। तो उनके बोलो को कहानियों को सुनते है। वो अपनी अस्थाई ज़िन्दगी के चित्रो को बताते जाते हैं। खोलते जाते हैं। और कहीं पर आकर रुक जाते हैं जीवन चित्र, साधारण समय और कहानी को बयाँ करना। एक बीता समय है। जिसमे काम के टाइम से बधां और कसा अनुभव लगता है। उसमे सिर्फ़ उनको खोजने कि नहीं खोलने कि भी भाषा सवाल बनकर आती है। लगता है जैसे उनमे
बहुत कहानियाँ और बहुत टाइम छुपा है। आने दो बाहर, इनमे कुछ तो है जो रोजाना से हटकर है उसी को और और कि जुबाँ मे लाते रहते हैं और एक टाइम पर आकर वो रुक जाती है तो हम क्या तलाश रहे हैं?

तलाश को हम एक टाइम पर हटाकर सोचे तो हम अपनी अगली मुलाकात कि क्या इमैज तैयार कर रहे हैं? वो अगली बार हमें अपने पास पाकर क्या करेगा? और पास बुलाकर क्या? और हमें ढूंढकर क्या? इनकी आज कि मुलाकात मे क्या बन रहा है?

ज़्यादा से ज़्यादा एक अच्छा ख़ासा वो ख़ास आदमी जो कल्पना मे पहले से ही तैयार है इसमे फिर हमारा 'मैं' कहाँ है? मेरा 'मैं' क्या किसी और के लिए तलाश करता है? इतनी बातो, अनुभवो या मुलाकातों मे 'मैं' का क्या आधार और रूप हैं? वो क्या पूछता है?

सवाल करता है खुद से और खुद के बाहर से? हमारी बातचीत और दो ज़िन्दगियों के सामने बैठने का तात्पर्य क्या है? अभी तक। महज़ सुनना और सुनाना। इसे आगे कुछ बताया जा सकता है क्या? या इस ख़ास कि कोई आगे कि लाइफ़ है? ख़ास कि भावनायें क्या हैं?
कहते हैं लोगों का पब्लिक मे खुद को एक बौद्धिक रूप मे पेश करने का मतलब होता है खुद के जमे हुए समाज के बंटवारे के बीच खड़ा करना। या उसमे अस्थिरता, रूकावट लाना। इस अस्थिरता या रूकावट को या तो ख़ाली वाह! वाह! के ज़रिये सोख़ लिया जायेगा। या फिर किसी अन्य दुनिया+जगह कि कल्पना+संरचना मे बहाव+उड़ान मे लाया जायेगा। जिसमे मैं और मेरे सामने आती और बनती दुनिया के बीच मे दो तरह कि आकृति कि समझ मे अधीनता और स्वरूपता हो। पर उस अन्य दुनिया या जगह के लिए हमारे पास सवाल क्या हैं?

ऐसे सवाल जो किसी एक ज़िन्दगी कि औपचारिकता को बताने जताने बोलने खोजने तक ही ना रह जाये। बल्कि उस ज़िन्दगी से हमें बाहर के वो सवाल मिल पाये जिससे हम कई ज़िन्दगियों को सोख़ पाये? और आने वाली मुलाकातों मे अपनी बनती छवि को कोई आकार या रूप दे पाये?

लख्मी

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