Tuesday, October 21, 2008

किसी खोए हुए को ढूढ़ना है या किसी नये की तलाश है?

किसी खोए हुए को ढूढ़ना है या किसी नये की तलाश है?

सीधी लकीर की तरह जीना किसको भाता है? याद और बीता समय जो कभी भी वर्तमान की गती मे गाढ़े नहीं होते। वो एक औझल रूप की तरह से रहते हैं पर इसके बावज़ूद लोग उन्हे दोहराते चलते हैं। वैसे देखा जाए तो उनका गायब होना क्यों जरुरी होता है? इसका कोई कारण नहीं है मगर, लोग या तो किसी से दूर चले आए हैं या कोई उनसे दूर हो गया है या फिर जो जीवन मे बस गया है किसी घटना या अवसर के माध्यम से, वही तलाश वर्तमान मे एक फैलाव की तरह से चलती रहती है। ऐसा लगता है की जैसे सभी जानते हैं कि हर शख़्स यहां पर एक लय मे जीए चले जा रहा है और अपने लिए एक लकीर तैयार कर रहा है मगर उसी लकीर को हम जब किसी खोए हुए या चिन्हित सिद्धातों मे टटोलते हैं तो कभी भी जीवन सीधा नहीं रहता वो कई लोगों, जगह और अपेक्षाओ से भरा लगता है।

यहां पर हम कहते हैं, समझ नहीं आया!

जैसे रास्ते ब्लाईडं होते जाते हैं, आगे का सभी कुछ इन्ज़िवल होता है और पीछे का सब औझल होता जाता है। हम सिर्फ़ हाईवे पर रात मे चलती गाड़ियों की तरह अपने कदमो पर डिप्पर मार कर देखते हुए चलते हैं। शेरों-शायरी, कविताये-कहानियाँ और मुहावरों मे बीते समय को टटोलने की महक बखूबी छलकती है मगर इनका जीवन शख़्स के वर्तमान में रहता है।

"एक बार आँसुयों ने पुछा हमसे की हमें क्यों बुलाते हो।
हमने कहा हम तो उन्हे याद करते हैं आप क्यों चले आते हो।"

पवन भाई जो हमेशा एक काम मे लगे नज़र नहीं आते कभी ड्राईवर, कभी सुपरवाइजर और आजकल प्रोपर्टी डीलर का काम खोलकर बैठे हैं। जब भी लड़के उनके पास मे जाकर बैठते हैं तो कहानियाँ हमेशा एक चेहरे से शुरु होती है और अतित मे कहीं खो जाती हैं आवाज आती है। "बे-वफाई....बे-वफाई" अपनी डायरी के लिखने की चाहत अपने खोए हुए समय को तलाशकर अपने आने वाले और चल रहे जीवन को समझने की रहती है।

हमारे आसपास कुछ घूम रहा है जिसमे हम जी रहे हैं मगर मैं अगर दुकान खोलकर, पुजा करके, सफाई करके ग्राहको का इन्तजार करता तो मैं भी साथ वाली प्रर्चुन की और डीजल की दुकान की तरह से दुकानदार बन जाता। मगर जब कोई मुझसे हाथ मिलाता है और हाल पूछता है तो मुझे अच्छा लगता है और मैं उस पल, अहसास को उतार लेता हूँ। बस मे चड़ता हर शख़्स अपने मे लीन है ड्राइवर गाड़ी चलाने मे, कन्डैक्टर टिकट बांटने मे पर जब भी कोई लड़खडाता है तो मुझे वो मेरी धुन मे लगता है और मेरे अल्फाज़ कॉपी पर उतर जाते हैं।

"वो रोया होगा उस खाली कागज़ को देखकर!
हाये खुदा आज फिर से मैंने एक खाली ख़त भेज दिया।"

कुछ नये करने की तलाश मे एक अलगपन की अपेक्षा रहती है। चल-घूम रही चीजों मे एक अपने अलगपन मे रहने की लालसा जीती है। कुछ नये करने की लालसा मे जैसे जीने वाले हर शख़्स के ऊपर कुछ सवाल जुड़ जाते हैं अपनी सीधी लकीर वाली ज़िन्दगी से हटकर अगर कुछ नये करने की तलाश करने का प्रत्यन करते हैं तो एक 'डर' बनता है। यह लकीर ना तो खुद की बनाई कोई रोज़मर्रा है और ना ही रुटीन क्योंकि अगर यह भी होती तो इसे तोड़ने या बदलने मे ना तो मुश्किल होती और ना ही कोई टैन्सन। मगर इस ढाचें के सांचे मे जैसे जीवन के आकार कुछ फिक्स हो गए हैं।

फिक्स होना- अपनी शख्सियत का होना, अपने ऑदे का होना, अपने रिश्ते का होना, अपने सदंर्भ का होना और अपना दुनियाना जैसे दो भागों में बट गया है। एक तो वो जो इस सीधी लकीर का है और दूसरा वो जो अपने अन्दर के शेयर करने या ना करने के अन्तरद्वधं से बनता है। वो अन्तरद्वधं क्या है? क्या अन्दर है और उसके बाहर आने का क्या डर है?
क्या हम अन्दर की अन्तरद्वधं को और बाहर की छवि को अलग-अलग तो नहीं समझ रहे हैं या समझते हैं?

एक पण्डित जी जो कई लोगों के हाथ देखकर उनका आने वाला कल बताते हैं और अपने मान-सम्मान की छवि को नमस्कार के मायने देते हैं। भोला जी जिन्हे लिखने का शौक अभी कुछ समय मे लगा। जब उन्होनें अपने दोस्तों को फौन पर शेरों-शायरी भेजनी शुरू की, किसी के नख़रे पर, किसी की अदा पर और किसी की बात पर, यह लिखना शुरू हुआ। पर वो बाहर किसी को सुनाते नहीं हैं और ना ही बताते हैं। अपने लिए जीने वाला समय और अहसास एक तरह से जमा है की वो बाहर आए ही नहीं उस धारणा मे जीते हैं। "कहीं कोई ढप्पा ना लग जाए?", “नज़रों का नज़रिया ना बदल जाए?” इन्ही के द्वृधं मे घूमते रहते हैं।

कुछ चीजें और जीवन की सामग्री बहुत महफुजियत से कहीं जमा है जो घर मे है, जीवन मे है, अनुभव मे भी है मगर फिर भी उसकी कहीं कोई स्थिर जगह नहीं है। या बाहर मे कोई नज़र है?

"प्रमोद राज जी जो कई सालों से एक स्टैश्नरी चलाते हैं और साथ-साथ लिखने का भी शौक रखते हैं। ग़जल और कविता। यह उनके लिए खाली अपना लिखना ही नहीं है बल्कि पुरानी फिल्मे, गाने और अख़बार मे छपे शेर से शुरुवात किए थे। पहले उन्हे लिखते थे और नीचे लेखक, शायर और कवि का नाम लिख दिया करते।

कहते है, “जरुरी नहीं है कि आप एक लय के साथ मे अपने को बाधंलो बस, अपने अल्फाज़ बाहर आने चाहिये। एक बार पंजाब केसरी अख़बार मे काम करने वाले दोस्त ने फरमाया की "प्रमोद भाई इतना अच्छा लिखते हो तो कभी छपवाते क्यों नहीं तो बस, तीन दिन वहीं के चक्कर काटना शुरू किया। पर एक बात वो बोले, शहर को, उन लोगों को। हर शख़्स को या उसके चेहरे को मास़ूक बनाकर लिखने वालों की जरुरत नहीं है। बस, आज के हालात पर लिखो यह कहकर उन्होनें मेरी एक कविता छाप दी। तब मैं लोगों को वही अख़बार का पैज दिखाया करता था। अब तो वो भी मेरे पास मे नहीं है। पहले तो हर कागज का टुकड़ा अपना सा लगता था चाहें बस का टिकट हो या अपनी डायरी का पैज। बस, मुझे यह धुन अच्छी लगती है। खाली दिमाग शैतान का घर होता है तो बस, उन्ही शैतानियों को उतारते चलो।"

अपनी ज़िन्दगी के भागो को मुल्याकन करते चलना स्भावाभिक का नज़र आता है। 60 पर्सेटं समाज के लिए जिया, 20 पर्सेटं घर और परिवार के लिए, 15 पर्सेटं दोस्तों और रिश्तो के लिए जिया तो 5 पर्सेटं अपने लिए जीना क्यों औझल हो जाता है? कि ‌वो एक खूबसूरत अहसास बनकर अपने होने का अन्देशा बनने लगता है। अपनी चीजें, अपना शौक, अपने अल्फाज़ सब अनुभव मे हैं पर फिर भी छूपा सा रहता है क्यों?

समझ नहीं आया की धून मे कई परतें खुलती जाती हैं। हम कहीं और चले जाते हैं। ये सिलसिला चलता रहे तो हम एक पल मे ना जाने कितने रूपो अथवा समय को जी पायेगें। नये की तलाश और खोए हुए के साथ बहस ये ही जीवन के दो मुल्य दायरे हैं जिनमे हमें जीना, बनाना, टूटना अथवा सजोंना होता है।

लख्मी

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