Saturday, January 16, 2010

वक़्त की चादर में "मैं"

वक़्त का हर लम्हा चाहता है खुद को भूलकर सब कुछ खोकर कहीं उड़ जाने को। वक़्त किसी भी चीज़ को लपेटकर नहीं जीना चाहता और न ही किसी भी दृश्य को लपेटकर रखना चाहता। हर लम्हे और बात को खुला छोड़ देता है।

वक़्त के साथ जीने और बीतने वाला हर लम्हा खुद की बनाई तस्वीरों को पीछे छोड़कर नई दिशाओ में अपने को देखना चाहता है।

वक़्त का कोई सबूत नहीं होता। वक़्त का कोई ठिकाना भी नहीं होता। बस, वक़्त के साथ समझोता करने वाले शरीर का ही है ये सारा खेल।

वक़्त किसी "मैं" को नहीं पैदा करता और न ही उसकी जान लेता है। बस, “मैं" की चेष्टा करने वाला शख़्स ही उसको इस्तमाल करने की ज़ुबान मे पिरोये चलता है। हर भेषबूसा के साथ और हर शख़्सियत के साथ पैदा होने वाला शख़्स और मर जाने वाला शख़्स हर पल खुद को इन्ही कसौटियों के तले बनाता जाता है।

अपने विपरीत अक्स को पालकर और उससे जूझकर चलना ही "मैं" को ज़िन्दा रखना है। कभी-कभी "मैं" को ज़िन्दा रखना जीने के लिए बेहद जरूरी होता है। मगर "मैं" की चादर बेहद बड़ी होने लगती है और उस चादर मे हर रिश्ता और बर्ताव संजोने लग जाता है।

पौशाकें बदलकर चलने वाला शख़्स "मैं" की पौशाक के साथ जूझने से डरता है। अपने से विपरीत होने से कतराता है। क्या ये ज्ञात है, “अनेकों बर्तावो में, हालातों मे और माहौलों मे किसी "मैं" का आकार क्या होता है?

लख्मी