ज़िन्दगी में जाने अन्जाने में किसी का किसी पर उधार हो ही जाता है। तो फिर क्यों न इस ज़िन्दगी के हर पहलू को जी भर कर जिया जायें। क्यो न ज़िन्दगी का कोई सार्थक दर्शण तलाशा जाये। जिस की पनाह में हम अपने से जूड़े पहलूओ से टकरा सकें। हर किसी में ये सहास नहीं होता बहुत से वक़्त के जरा करवट लेने से ही अपने कदम पीछे कर लेते हैं। उनके होने की किसी आहट तक किसी को नहीं होती है। मगर पिली धूप में जो जलता है वो सोने की तरह निखरता है। उसकी आहटों पर वक़्त भी निर्णय के मोड़ पर आ जाता है।
रिश्ता तो सिर्फ पहचान है आदमी के जीवन में किसी का दामन पकडे रहने की। जिससे की कोई उद्देश्य मानकर वो अपनी भूख का खुद निवाला बनता रहे और उसे जरा भी महसूस न हो पाये की वो धीरे-धीरे मकड़ी के जाल मे फँस रहा है। किसी न किसी दिन वो अपने शरीर का प्रतिनिधित्व छोड देगा। ये तत्व रूपी दूनिया में फिर कोई न फर्क होगा। सब एक-दूसरे को निष्ठावान होकर देखेगें।
क्या ऐसी कोई दूनिया है जिसको हम परीभाषित कर सकें? जिसमे इंसान का धर्म उसका मसीहा न हो। मसीहा देखना हो तो अपने जैसे किसी शख्स को बैठाकर उससे दो बातें करने मे ही मसीहा का दर्शण मिल जाये। क्योंकि मसीहा तो खुद इंसान में दिव्यमान है। जिसे देखने के लिये आँखों की जरूरत ही नहीं आँखे तो जगह में समझ कर चलने के लिये है सही गलत और किसी का होना न होने को भापनें के लिये है जो हर कण और हर जगह उजागर होकर सब मे मिला है उसे खोजने या समझने की जरूरत क्या है।
जीवन ही वही है। वो कब आता है, कब जाता है, कब सुनता है, कब नहीं सुनता है। ये सब माया है उसकी जो आप में है जिसका आप के मन में एक दिपक जल रहा है । अगर कुछ करना है तो उस जलते दिपक को तलाशों और उसे अपने अन्दर बुझने से बचाओ। बाहर का तूफान अपने आप शान्त हो जायेगा।
राकेश
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