Saturday, January 16, 2010

अथक संकेतिकता

अक्सर हम जिन चीजों से भागते हैं वो कभी न कभी, कहीं न कहीं हमारे सामने आ जाती है। यानी आप लाख बार चाहों किसी अपने दूर करने के लिए यकिनन वो वक़्त की कागारों हमें पुन: मिल जाती है और फिर हम उस असल अनूभव से नज़र नहीं चुरा सकते। वो अनूभव जिसका आभास न पाने के लिए दूसरे क्षितिजों की से चमक की तरफ खिंचते हैं। मगर, ज़िन्दगी का हर क्षण, जो पल से भी छोटा दिखता है। उसकी संकेतिकता हमें जिज्ञासू बनाये रखती है। जो अभी जानना है उसे बाद के समय में क्यों छोड़ दे? इस अभी में जो संकेतिकता है वो आगे नहीं मिल सकेगी। जैसे- गन्ने में से उसका रस निकाल लिया जाये तो उसका ताज़ापन ख़त्म हो जाता है। वो रस बिना बेजान बाँस की फाँसो की तरह बच जाता है। जिसे और उसकी योग्यता भी लुप्त हो जाती है। जिसके बाद वो भाड़ झोंकने के काम मे आता है। अगर हर कोई ज़िन्दगी में अपने आसपास होने वाली एक तरह की जागृती संकेतिकता को पहचान ले तो जीवन को जीने का मज़ा ही बदल जायेगा।

किसी हवा में उड़ने वाले धुँए से पूछो, "वो कहाँ जाता है ज़मी में, बादलो में, नदिया, तालाब, सागर में कहीं भी हो वो इक दिन लौटकर जरूर आता है।

कथन उतना ही उत्तम है जितना की जीवन की पूर्न आशा करने वाले हम प्राणी। जीवन अनंत कल्पनाओं का सागर है जिन्हे पाने के लिए नित नये प्रयास करना जरूरी है। यहाँ तक आपको आपकी अथक संकेतिकता ही पहुँचा सकती है। जो अभेद है, अमर है, अजय है। वाही स्वंय के भीतर और बाहर पलने वाली संकेतिकता। जो सम्पर्क कराती है आपका नये जीवन की दृष्टियों से।

राकेश

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