Wednesday, January 27, 2010

किसी को पढ़ना क्या है?

पढ़ना अपनी अभिव्यक्ती से भेद में रहना। खुद को कोई Pouse देना, Start और End के बीच की धुनों में खुद को जमाये रखना। पढ़ना एक ब्रेकर की भांति अपने को शामिल किये रखता है।

असल, में पढ़ना कान, आँख और मस्तिक तीनों को एक साथ लेकर बहने के चलन के समान होता है। खुद की ज़ुबान के साथ खुद को सफ़र मे रखने के जैसा। सुनना अगर छवियों का नक्शा बनाता जाता है तो पढ़ना उन नक्शों के भीतर जाने ले जाने का न्यौता बनता है जिसमें हम अपनी रफ़्तार खुद से तय करते हैं किसी अन्य रफ़्तार के मोहताज़ नहीं होते।

जब कोई लिखता है तो कई छोटे-छोटे ऐसे पहलू उसमें दबे रह जाते हैं की उनको छूना या उनसे पार पाना बेहद कठिन हो जाता है। उन्ही पहलुओं से उस लिखने वाली शख़्सियत और लेखन मे आने वाले किरदार का गहरा रिश्ता उभरता है जिसे पिरोया गया है। ये रिश्ता कभी भेद बनता है तो कभी एक दूसरे के लिये कहीं पहुँचने के द्वार।

पढ़ना, उन द्वारों से होकर गुज़रने की कोशिश को बयाँ करता है। उन अनेकों छोटे पहलू किसी खास रिक्तस्थान की भांति बन जाते और उनके बीच खड़े होने का अहसास देते हैं। पढ़ने में हम खाली उसी को नहीं पढ़ रहे होते हैं जिसे लिखा गया है या बोला गया है। बल्कि उस जीवन तक तैर जाते हैं जिसमे वे सारा माहौल और दुनिया सजाई है। सुनने में और पढ़ने में एक यही महीम सा अंतर रहता है। सुनकर हम एक-एक करके आगे बढ़ते हैं लेकिन फिर भी हम एक पर ही रहते हैं मगर पढ़ना हमें सारी गिनती भूला देता है और दुनिया को परोस देता है।

पढ़ना हमें डूबने का अहसास देता है और सुनना हमें बह जाने का। इसी के बीच तैरती है सारी कायनात।

लख्मी

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