अपने एक साथी के साथ प्रहार शब्द को लेकर बात हुई. उसके सवाल में इस शब्द के मायने चाहे कुछ भी हो लेकिन ये शब्द जीवन के किसी न किसी हिस्से को अपने जोर के तले दबा ही लेता है. प्रहार कोई अकेला शब्द नहीं है और न ही अकेला इसका कोई मतलब है बल्कि ये अपने साथ में किसी बात, फेसले और हुकुम को उसकी भरोसाहीन गति के तहत उसे सामने की तरफ में फेंक देता है. जिसका मोल जीवन में उतना ही है जितना की हमारे हर बात पर अमल करने के जैसा होता है.
असल मायने में देखा जाये तो प्रहार कोई दंड या एक्शन नहीं होता. वो कोई आवाज़ भी करेगा ये भी नहीं होता और शांति के भाग कोई हिस्सा होगा ये भी. लेकिन इसकी भूमिका किसी बदलाव और तबदीली के माध्यम के रूप में ही होती जाती है.
जीवन और जीना सही मायने में देखा जाये तो इससे भरा हुआ है. हम चाहें तो भी इसके कोनो से बाहर नहीं हो सकते. दो अलग तरह के धाराओं हम बहते हैं - पहली बोद्धिक जिंदगी और दूसरी समाजिक जिंदगी. इसमें में हम खुद की बुनाई करते जाते हैं. कभी खुद को गिरते हैं तो कभी खुद को खड़ा करते हैं लेकिन होते इसी में हैं.
क्या हमने पता है - जीवन के कितने टुकड़े मिलकर एक याद बनाते हैं? लेकिन असल में ये हमारा सवाल नहीं है. हमारा सवाल है - जीवन के टुकड़े होती क्यों है और कैसे होते हैं?
हम बहुत कम महसूस कर पाते हैं किसी महीम और नाज़ुक प्रहार को. हर वक्त कुछ चटक रहा है और हर वक्त कुछ चकनाचूर भी. इन दोनों स्तिथियों को अपने बोद्धिक और समाजिक जीवन के बीच में खड़ा होकर समझने की जरूरत होती है. ये दोनों स्तिथियां मांग करती हैं उस बीच के वक्त में जाने की. क्योंकि जब एक समाजिकता प्रहार करती है तो बोद्धिक टूटती है और जब एक बोद्धिकता प्रहार करती है तो समाजिकता बिखर जाती है. हमने इनके दरमियाँ रहकर अपने शब्दों और चेतनाओं को उड़न में लाना होता है.
क्योंकि जब एक कलाकार अपने पूर्णरूप से कलाकार है तो उसमे पल रही मनुषयता का नष्ट है और अगर कोई मनुष्य अपने पूर्णरूप से मनुष्य है तो उसमे जी रहे कलाकार का नष्ट है.
प्रहार इनको बनाता है - बहस में लाता है और एक दुसरे को एक साथ लेकर जीने की उमंग देता है. असल में ये कोई बंटवारा नहीं है.
लख्मी
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