Wednesday, January 7, 2009

लेखन के तरीके क्या हैं?

इन दिनों मैं कुछ ऐसी रचनाये लिखने की कोशिश कर रहा हूँ जो मेरे पास या नज़दीक की बिलकुल नहीं है और ना ही मैंने कभी सुनी है। लेकिन उस काल्पनिक दुनिया को कभी- किसी और ही तरह के जीवन से समझने की कोशिश की है। यानि के किसी के रहन-सहन के नतीजे से वे कई अनेको चित्र उभरें हैं। जिनको वास्तविक रूप मे देखा भी जा सकता है और उन्हे काल्पनिक करकर टाला भी जा सकता है। ये वे रूप भी है जिन्हे अपने मौज़ूदा रूप से बाँधा भी जा सकता है और उसे दूर भी फैंका जा सकता है। लेकिन इसमे जब मैं किसी ब्यौरे या शख़्स का बख़ान करता हूँ तो उसमे मेरा होना हमेशा मुझे बाधा मे डाल देता हैं मुझे लगता है कि मैं उस जीवन की जितनी भी परेशानियाँ या फैसलों को लिख रहा हूँ वे मेरे होने से क्या आकार लेती हैं या मैं उन्हे क्यों वे रूप दे रहा हूँ जो असल मे किसी रूप की पेशकश ही नहीं रखती।

कभी मैं उस जीवन को उनके घर के अन्दर से लिखता हूँ तो कभी बाहर मे खड़ा होकर, कभी मैं वो बन जाता हूँ तो कभी उससे कोसों की दूरी बना लेता हूँ। जहाँ से उसकी हलचल दिखती है लेकिन उसकी बैचेनी नहीं।

इस स्थिति मे मैं एक बेजान शब्द बनकर रह जाता हूँ जिसको जान उस छवि के हिलने, डुलने, बोलने, चलने, कहने या भाव से मिलेगी। उस जीवन से मेरा रिश्ता किस आधार का है? क्या वो दूर बैठा कोई ऐसा अक्स है जिसे किसी रूप की चेष्टा है या मेरे लिए वे एक ऐसी छवि है जिसका रूप मेरे अस्तित्व से ओझल है। मैं वहाँ पर इतना ताकतवर क्यों हूँ?

मेरा उसके जीवन से कोई या किसी भी प्रकार का नाता नहीं है। ना ही कभी बन सकता लेकिन फिर भी मैं उनके बीच मे खड़ा होकर ये बना पाता हूँ। जिसका आभाष मेरे लिए या मेरी सोच के लिए या फिर मेरे परिवेश के लिए एक चित्र की भांति उभरकर सामने चला आता है पर ये लेखन उस मूरत मे क्या फूँकता है जो मेरे हिस्से से है?

देखकर लिखना, बनकर लिखना, बोलकर लिखना, सुनकर लिखना या पहला केरेक्टर, दूसरा केरेक्टर या फिर तीसरा केरेक्टर बनकर लिखना उस दूर बैठी छवि या ज़िन्दगानी को मेरे समीप लाने की क्या इच्छाए जगाता है? मुझे कभी अपने से बहस जब करनी होती है तो मैं इस तरह के तरीके अपनाता हूँ जो की मेरे जीवन के, मेरे खुद से बनाये पात्रो से बेइन्तहा बहस करता है और टकराता भी है। इसे मैं और आप जुझना भी कह सकते हैं। जो शायद आखिरकार बहुत ऊंची सोच साबित होता है। कई बार किसी दूर बैठी ज़िन्दगी मे घूसने के तरीके हम ऐसे बनाते हैं जैसे किसी लेखन की रचना मे और उसे पेशकश की दुनिया का हिस्सेदार बना लेते हैं। कभी-कभी बीच मे खड़ा होकर दुनिया देखने का मज़ा उस दोनों तरफ़ खड़ी ज़िन्दगियों के लिए रोक या हदें बन जाता है। ये शायद ऐसा भी होता है जैसे-

कोई शख़्स है जो अपने परिवेश से बहस या समझौते करके जीवन व्यतित कर रहा है। जो पूरे दिन या समझौतों मे कुछ टाइम अपने लिए बचा लेता है। बस, तभी वे अपने लिए कुछ कर पाता है। नज़र उस बीच के समय पर चली जाती है। ना जाने हम कौन सा बिन्दू छेड़ देते हैं कि इच्छाए शब्द ले लेती हैं और उस परिवेश के सामने हम सीना ताने खड़े हो जाते हैं। वे दौर हमारे लिए बेहद कठोर, टक्कर, हादसा या सीधे शब्दों मे कहे तो वे हथियार बनकर हमारे सामने अपनी मूरत बना लेता है। हम चाहें तो हर चीज पर सवाल रखकर उसे नंगा कर सकते हैं पर बिना सवाल किए हम उस मूरत मे कैसे शामिल हो सकते हैं वे ही जीवन का आधार हैं।

मैं कभी दूर खड़ा जब किसी शख़्स या उसकी बैचेनी को देखता हूँ तो उसको अपने नजदीक लाना आसान सा लगता है लेकिन जब मैं वो बनकर उसकी बैचेनी को सोचता हूँ तो वे कठीन और जटिल बन जाता है। - जब मैं वही शख़्स बन जाता हूँ तो उसकी बैचेनी को महसूस करके लिखने मे मुझे लगता है कि वे मुझतक बेहद नज़दीकी पा रही है और जब मैं उससे दूरी बनाकर लिखता हूँ तो वे बैचेनी किसी टिप्पणी की भांति रहती है।

जब हम बीच मे रहकर किसी वस्तु को अपने समीप लाते हैं तो वे जान मांगती है। हम उसमे सांस और धड़कन भरने की कोशिश करते हैं और उसे सांस लेने के लिए छोड़ देते हैं। पर जब कोई शख़्स या जीवन को हम अपने समीप लाते हैं तो उसकी मांग हमारी ज़ुबानी मे कहाँ पर आकर रूकती है?
हम कभी-कभी दूरी व नजदीकी मे अपने शब्दों के आकार को समझ नहीं पाते। ये बिलकुल वैसे ही होता है जैसे कोई पेन्टर अपनी पेन्टिग बनाने मे मग़्न है और उसके रंग का भरपूर लुफ़्त ले रहा है। उसे ये तक पता नहीं होता की जब ये कोई रूप ले पायेगी तो क्या चेहरा होगा इसका। वे तो बस, लीन रहता है। कहीं खो जाता है। जब वे मूरत बनकर सामने आती है तो कोई ऐसा रूप लेकर रखती है जिसका अन्दाजा हमें व बनाने वाले को भी पता नहीं होता।

वैसे ही जब हम किसी शख़्स को लिख रहे होते हैं तो उसके जीवन की रचना मे हम अपने शब्दों को कुछ इस तरह से आजाद छोड़ देते हैं कि वे उस नज़र आने वाली छवि से कुछ और ही ताज़ेपन की बुनाई कर देते हैं। जो बनकर आता है वे वो दिखने वाली तस्वीर नहीं होती। वे किसी और ही रंग- लिबास का एक बहुत अच्छा खासा आकार होती है। लेकिन जब ये वापस उस परिवेश मे जाती है तो क्या उस रूप की सम्भावनायें उसे उस जगह का मानने के लिए तैयार होती है? हम उसे किस बहस के लिए तैयार कर पाये होते हैं?

मैंने कुछ किताबें पढ़ी जिसमे लेखन के तरीके व किसी के अन्दर दाखिल होने के तरीके किसी को दोहराने के अन्दाज से कम नहीं थे। वे चाहें कोई बेजान चीज हो या जीवित। जो उस रूप को बताने मे बेहद टाइट रहते हैं। उसके खेल या उससे खेल दोनों को समाज के बलबूते पर मजबूत बनाने के लिए तैयार करते हैं। लेख मे आने के तरीके भी अन्य तरह के होते हैं जो लेखक को खोजने की चेष्टा जगाते हैं। उसके पीछे जाने को कहते हैं। कुछ तलाश्ने को कहते हैं। कभी-कभी कोसते भी हैं कि ये अन्दाज क्या नहीं है तेरे पास।

इससे मगर वे जीवन अपने शरीर मे घुल जायेगा ये तय नहीं होता। या मैं घोलने की क्यों कह रहा हूँ वे भी शायद सवाल ही बन कर रह जाता है। किसी मे दाखिल होने के तरीके को कितना बेइन्तिहाइ बनाया जा सकता है। जो ज़्यादा की मांग ना रखे मगर ज़्यादा को भरपूर खेलने का मौका दे। यानि के ज़्यादा नज़दीक, ज़्यादा रूपक, ज़्यादा परिवेश, ज़्यादा समाजिक-बौद्धिक व ज़्यादा विवरण।

लख्मी

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