मेरी इन दिनों अपने एक साथी से बातचीत हुई, वे इन दिनों काफी सारी किताबें पढ़ रही है। ये किताबे उसके जीवन मे एक ख़ास जगह बनाने की कोशिश मे है। अपने हर दिन मे घर और परिवार के बीच रहकर भी जो समझ ताज़ा होती है उसके बाद भी हमारे दर्मियाँ वो अहसास छुपा रह जाता है जिसको उन्ही रिश्तों के बीच मे हम तालशते हैं। वे क्या है? परिवार जो अपने बनाये कारणों के तहत ही किसी भी रिश्ते अथवा परिवार के सदस्य को सोचता है। वे बेहद ठोस होता है। जिसमे अपने लिए जगह बनाना किसी ना दिखने वाली लड़ाई की ही तरह से होता है। मगर किताबें उस अहसास मे अपनी जगह बना लेती है।
हर किताब अपने साथ कई तरह की तलाश लिए चलती है। जिसमे जुड़ने वाला हर अनुभव उसमे अपने को महसूस करने के कोने तलाश्ता है। वो तलाश कभी तो उसमे उभरने वाले सवाल बनती है तो कभी अपने मनमुताबिक कल्पना करके जगह बना लेती है।
किताबों ने उसको खुद को समझने अथवा अपने जीने के तरीको से बहस करने का मौका प्रदान किया है। उसकी बातों मे किसी खास हलचल को महसूस किया जा सकता है। बदलाव, खाली बदलाव ही नहीं होता। यानि के कुछ हटा और कुछ आया, इसको सोचने के अलावा ये सोचा जा सकता है कि कुछ तब्दील हो गया।
ये "तब्दील" शब्द हमारे सोचने के चश्मों को एक नया मौड़ और ढाँचा देता है। बहुत सारी बुनियादी बातों के और परिवार के बीच मे कारणों के बाद उसकी शारीरिक भाषा मे एक ऐसी ही तब्दीली महसूस होती है।
वे कहती है, “हमारे सामने आज भी वही शख़्स चल-घूम रहे हैं जो पहले भी चलते थे। कोई हमारे से टकरा जाता था तो कभी कोई बिना बात के मुस्कुराकर भी चला जाता था। कोई दूर खड़ा देखता रहता था तो कोई पास आकर कुछ कहने की कोशिश करता था। कोई इशारों की ज़ुबाने मे कुछ कहने की कोशिश करता था तो कोई नज़र छुपाकर निकलता था। कोई हमारे लिए रास्ता बनाता था तो कोई ऐसे विहेव करता था कि वो दुनिया मे अकेला है। ये हमारे समाने निरंतण चलते रहते हैं। ये वे चित्र हैं जिनको हम याद भी रख सकते हैं और भूल भी सकते हैं। मगर, हमारे ऐसा करने या करने से इन्हे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, ये तो इन्ही रास्तों मे दोबारा से मिलेगें। चाहें आप देखो या ना देखो। क्या हमें आज भी कुछ पता है इस बैचेनी या कंपन के बारे में कि ये अपने इस स्वभाव मे क्या लिए चल रहे हैं?”
वे बेहद आसानी से अपने देखे, सुने या महसूस किये अहसास को दोहरा जाती है। एक पल के लिए नहीं सोचती की व इस दुनिया मे क्या और कैसा सवाल बना रही है। जो चित्र खाली इन रास्तों पर या तो नज़ायज़ माने जाते हैं या फिर देखकर अंदेखे किये जाते हैं वे हमारे लिए क्या सवाल बन सकते हैं? ये हमारे लिए क्या कोई शब्द बनाते हैं? मैंने उसकी बातों को सोचना पहले तो जरूरी नहीं समझा, सोचा ये तो लड़कियों के साथ मे रोजाना होता होगा, इसमे मेरे लिए क्या है? मैं क्या कोई कदम उठाऊ? लेकिन क्या होगा, क्या मैं कोई झंडा लिए शहर को सुधारने निकला हूँ क्या? मैं ऐसा कुछ नहीं कर सकता। तो क्या करूँ? फिर जब अपने आसपास को दोहरा ने की कोशिश की तो कुछ चित्र ऐसे उभरे जो मैं रोजाना अपने किसी हिस्से मे ढ़ालने की कोशिश करता हूँ। वे मेरे सोचने और लिखने के माध्यम मे बसे हैं। इनको कैसे मैं हटा सकता हूँ? कुछ ऐसे सवाल बनकर सामने आते हैं जो कुछ शब्दों को सामने लाकर खड़ा कर देते हैं। जैसे, किसी की कंपन को लिखना या सोचना या फिर दोहराना या बख़ान करना या खुद के लिए लेना ये कैसे पोसिबल होता है? इसकी इंद्रियाँ क्या है?
हम अपनी ज़िंदगी से क्या मेल करवाते हैं किसी जीवन को या जीने के तरीके को?
ये कहना बहुत ही आसान होता है कि ये दोहराया जा सकता है और ये दोहराने के तरीके है। पर हम किसी ज़िंदगी को दोहरा रहे हैं ये होता है या हमारे साथ उसका कोई रिश्ता बन गया होता है? हम उस रिश्ते को दोहराते हैं या फिर उस रिश्ते से दोहराते हैं? ये दोनों क्या है?
हम अपने दोहराये गए का अनालाइस ही नहीं कर सकतें। क्योंकि दोहराये मे किसी जीवन का पूरा अहसास शामिल है। जो सांस लेता है, जीता है, रोता है, ठहरता है, कभी-कभी गाता भी है तो कभी-कभी गुस्सा भी होता है। ये खाली एक ऐसा पहलू नहीं है कि उसे एक आत्मनिर्भर करके ही बताया जा सकें। वो अगर ज़ुबान पर आ गया है तो उसका नाता शायद बन गया है। उसी से वो रूप पाता है। नहीं तो उसी किसी ज़ुबान से रूप पाने की क्या चेष्टा।
हमारे लिए किसी का रूप क्या है और उसके साथ हमारा रिश्ता क्या है? मैं मानता हूँ ये तो मौके और जीवन अथवा सोचने के ऊपर निर्भर करता है लेकिन कुछ तो होता ऐसा जो रूपक हो हमारे लिए?
किसी कहानी को पढ़ना अथवा किसी जीवन को पढ़ना जो हमारे सामने सांस लेता है, डरता है, ताकतवर है उसके और मेरे बीच की ठहरी या फिसलती बातचीत मे बहुत सी चीजें बड़ी तेजी से निकल जाती हैं। जिनको शायद पकड़ना बेहद मुश्किल होता है, कुछ ऐसा भी होता है जो उसकी ज़िन्दगी का बहुत डरा देने वाला पल होता है जिसे पकड़ भी लिया तो छोड़ देना होता है।
हमारे सामने कोई कुछ पल के लिए अपनी यातनाओ और कामनाओ को रख कर चला गया। कुछ समय फिसला और कुछ पकड़ मे आ गया। लेकिन सब कुछ क्या मेरे लिए ही था, जो गया उसको हम कैसे पकड़े। उसको कैसे पढ़े? उसकी इंद्रियाँ क्या होगी?
ये तब्दीली का दौर चलता रहता है। मेरी दोस्त से मुलाकातों मे कुछ ऐसी ही तब्दीलियाँ उभरती हैं। क्या इस सोच को समझना हमारे लिए कुछ संभावनायें छोड़ता है। ये रुका सा महसूस होता है। इससे बाहर कैसे निकला जाये?
लख्मी
No comments:
Post a Comment