Wednesday, January 7, 2009

उसकी चुप्पी से डर था

हमारे जीवन के सवाल क्या हैं? या वे सवाल क्या हैं जो हमें जीने लायक बनाते हैं? या वे जिससे हम जीना सीखते हैं? या वे जिनको लेकर हमें रोज चलना और बदलना होता है?

क्या कुछ ऐसे सवाल भी होते हैं जो हमें टकराने को कहते हैं? किससे टकराने को और कैसे टकराने को जोर देते हैं। क्या कुछ सवाल ऐसे हैं जिन्हे हम खुद बनाते हैं अपने लिए या वे हमारे लिए कोई बनाकर देता है। हमारे खुद के सवालों मे हमारी इच्छाएँ क्या रूप लेती हैं अथवा उन सवालों में क्या जो हमारे लिए किसी ने बनाकर छोड़े हैं।

क्या हमें ये पता है कि हर दिन के अनुसार हमारे सवाल बदल जाते हैं या फिर छूटे हुए सवाल ही नये आकार और रूप ने बदलकर ताज़ा हो जाते हैं। इनका रिश्ता खाली निर्धारित समय से होता है या फिर ये हमारे जीवन जीने के तरीको में या बदलाव के रूपों मे भी अपना जोर दिखाते हैं?

सवालों को सोचते हुए लगता है कि हमें किसी ने घेरा हुआ है, हम आजाद नहीं है। हम जो भी अपने लिए बनाते अथवा चुनते हैं वे किसी न किसी तरह से एक ऐसी पकड़ मे दबती जाती है कि उसका बेजोड़ तलाशना भी मुश्किल लगता है लेकिन कभी-कभी ये हमें नई राहें खोजने की चेष्टा देती है। कहीं और निकल जाने की उम्मीद भरती है। जिसमे "कहीं और" बहुत फैला हुआ लगता है। आपार कल्पनाए लिए हमारे बगल में चलता है। कभी भरे व लदे चित्रों के साथ तो कभी खाली शुमसान माहौल की तरह।

एक चित्र को सामने लाये तो, जैसे- कोई भरी या लदी गाड़ी पटरी से उतर जाये तो क्या होता है?

ये समय हमारे जीवन मे पलभर के लिए सब कुछ थामकर कोई एक ऐसा हिस्सा खुला छोड़ देता है जिससे कहीं खिचने की भरपूर चाहत होती है। लेकिन वो क्या है?

एक और चित्र को बयाँ करते हैं, जैसे- अचानक से जीवन जीने का तरीका, उसका आधार, रूप-सज्जा और बोल बदल जाये तो क्या होता है?

ये मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि कोई गाड़ी पटरी से उतर गई है। यहाँ जीवन गाड़ी नहीं बल्कि वे तेजी है जो धीमी रफ़्तार मे तब आती है जब कोई उसकी कम रफ़्तार की उम्मीद लगाता है या फिर उसके मुकाबले अपनी रफ़्तार नहीं बना पाता।

मेरे दिमाग मे पहले ये सब किसी अवधारणा के तहत ही था। हाँ भले ही अपने अनुमान से शहर, जीवन और तेजी को समझने मे मैंने कई कोशिशें की हैं। पर वे क्या रही हैं मेरे लिए? खाली वे अंदाजेभर ही तो थे जो किसी को समझाने भर के रूपक थी। शायद मैं खुद घूम रहा हूँ।

पिछले दिनों मेरी काफी पुरानी साथी से मुलाकात हुई, उसको देखकर और उसकी बातों को सुनकर पहली बार लगा कि जैसे उसकी आवाज़ किसी भरे व लदे भाव से भारी हो गई है। ये एक अहसास था उसके लिए जो उसके अन्दर था। जिसने उसके अपने कुछ सवाल बदल दिये थे। जिसके साथ उसका मेल-जोल भी शुरू हो गया था। पहले जैसी किसी बात पर ना जाऊँ तो वे कुछ पूछ रही थी। जो उसके लिए था जिसमे अगर मैं अपनी राय या शब्द जैसे कुछ रखता तो वो मेरे लिए उसके जीने के अनुसार बेहद दूर था। वे मेरा ही नहीं था। मेरे शरीर के साथ समाज का रिश्ता कई अन्य असवधारणाओं से रचा गया था। जिसमे मुझे ताकतवर बनाया दिया था। इन सब बातों का उसके अहसास और आवाज़ से कोई नाता नहीं था और ना ही कोई रिश्ता बनाया जा सकता था।

वे कह रही थी, "मैंने पिछले दिनों अपने घर मे एक बदलाव देखा है। एक ऐसा बदलाव जिसे महसूस करके ऐसा लगा जैसे वे अभी हाल-फिलाल मे नहीं आया है। वे पहले से ही जमा हुआ था या कह सकती हूँ कि वे कहीं छुपा था मेरे ही घर के अन्दर। हाँ जिसके नीचे वे छुपा था वे मेरे घर, परिवार के वे रिश्ते थे जिनके मान-सम्मान को बरकरार रखा जाता है और ये भी की उस बदलाव को बाहर आने की कोई जगह नहीं दी गई थी मेरे घर मे। कई ऐसे बड़े रिश्ते हैं हमारे घर मे कि उनकी आड़ मे कई ऐसे बदलाव सांस लेते हैं। जो अभी बाहर आने बाकी हैं।

ये सारा बदलाव खाली मेरे लिए ही था। जिसमे मुझे भी बदलने पर मजबूर किया। जो चाहते न चाहते मुझपर हावी हुआ। जिसको अभी तुम देख सकते हो। मेरे हर रोज को जीने के सवाल ही बदल दिए गए और उसके साथ-साथ मेरे लिए वे गहरे भी हो गए। मैं समझ नहीं पाती की ये घर के माहौल में अचानक कैसे उतर आते हैं। बस, एक बात कहती हूँ जिसने ये सारी बातें मुझमे तैयार की हैं।

मैं हर रोज सवेरे जल्दी उठती हूँ। दस लोगों के लिए खाना बनाती हूँ, चाय-नाश्ता सब कुछ तैयार करती हूँ। लेकिन जब कोई घर मे आता है तो मेरे बारे कहा जाता है कि इसका कोई नहीं है, ये अकेली रह गई है। तब मैं समझ नहीं पाती कि वे दस लोग कौन हैं जिसके लिए मैं रोज सुबह उठ रही हूँ या खाना बना रही हूँ। ये कौन है? या मैं कौन हूँ?

वे रिश्ता जिसके तले वे सब कुछ छुपा था वे नहीं रहा या वे अपनी कोई परछाई भी नहीं छोड़कर गया? जो भी कोई आता है मुझे इस तरह से भाव भरी नज़रों से देखता है कि एक पल भी मैं उनकी आँखों मे नहीं देख पाती झटक जाती हूँ। यही सोचकर की कहीं मेरी आँखों मे पानी ना उतर आये। और जब वे उस झलक को मेरी आँखों में नहीं देख पाते तो उनकी नर्मी मेरे लिए और भी मजबूत हो जाती है। जिसको खुद मे उतर जाने को मैं रोक नहीं पाती। वे हमेशा कहते हैं कि तुझे उनकी याद नहीं आती?

मैं क्यों याद करूँ उन्हे?, जो छुटा है उसी को क्यों दोहराऊँ, जो वे सब अपने साथ ले गए उसे क्यों वापस खींचूँ? और जो उनकी परछाई है उसके साथ मे मैं क्या रिश्ता बनाऊँ?

ये सब कुछ बदलाव की आग मे शामिल है जिसको महसूस करना भी एक पल के बेहद कठोर लगता है। अब तो टाइम का भी पता नहीं रहता। घर के साथ मे टाइम का रिश्ता किसी और ही दिशा मे दौड़ रहा है या समझों दौड़ चुका है। जितनी भी देर बाहर रहूँ कोई सवाल-जवाब नहीं है। ऐसा नहीं है कि ये मुझे अच्छा नहीं लगता। हाँ, मानती हूँ की अच्छा लगता है पर पहले जिन माहौलों की आदत या अहसास मुझमे भर गया है उसमे ये बदलाव डरा देता है।"

वो मुझे इसके बाद मे देखती रही। उसकी उस वक़्त की आँखों मे कुछ चाहने की राह थी। वे आँखे अभी भी नहीं भूली जाती मुझसे। ये सब कुछ दुनियाना उसका कोई समाजिक रिश्तो के बदलाव को ही जाहिर करना नहीं था। जिसको "ऐसा ही होता है" कहकर टाला जा सकता हो। या फिर दुनिया का आइना दिखाकर सहमति जताई जा सकती हो या फिर उसको ताकत देकर छोड़ा जा सकता हो। ना जाने ये विवरण कहाँ ले जाता है? पहली बार लगा जैसे मैं या हम समाजिक रिश्तों मे अभी काफी पीछे खड़े हैं अगर कुछ मानते हैं तो ये सब कुछ भम्र हो सकता है। बस, दूर खड़े ये सोच रहे हैं कि उनसे कैसे जुझा जाये या फिर कैसे समझा जाये। हमारा टकराना या फिर उनमे रहकर कई अन्य तरह के बदलावों को देखना। ये कई तरह की संभावनाओं को सामने लाकर खड़ा कर देता है। बस, फ़र्क सिर्फ़ इतना है की ये संभावनायें हमारे हाथ मे नहीं होती। ये वे संभावनाये नहीं है जिनकी उम्मीद हम अक्सर बाँध कर रखते हैं।

हाँलाकि वे मुस्कुराकर ये सब कहे जा रही थी। मुझे उसके कहने या बोलने से नहीं बस, उसकी चुप्पी से डर था।

लख्मी

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