डीडीए फ़्लैट का रिज़ल्ट दोबारा से निकाला जायेगा, ये ख़बर टीवी पर सुनने के बाद कई उंमगों को जैसे दोबारा से सांस मिल गई हो। सबके चेहरों मे जैसे आशा की कई नई लहरें फिर से लहरा गई हो। ऊपर वाले की तरफ नज़र करके खड़े लोग टीवी के सामने हाथ जोड़े ना जाने कितनी दुआएँ और कलमे पढ़ने लगे। "इस बार तो पक्का अपना भी नाम लिस्ट मे होगा।" यही ज़हन मे गुलाटियाँ मार रहा था। हाँलाकि पिछली लिस्ट मे अपना नाम था भी या नहीं इसको याद ना करते हुए इस बार इरादे काफी पुख़्ता कर दिये थे।
ये ख़बर दिन-रात टीवी पर दिखाई जा रही थी और इस दौरान हर जगह न्यूज़ ख़त्म हो जाने के बाद मे बस, अपनी ही बहस शुरू हो जाती। लोग ये सुनने के लिए टीवी के सामने बैठे रहते की वो तारीख कौन सी होगी जब ये रिज़ल्ट दोबारा से निकाला जायेगा। किसी के लिए दुख के आँसू तो किसी के लिए उमगों भरे आँखू बनकर ये न्यूज़ चल रही थी। ये बिलकुल ऐसा ही था जैसे किसी खिलाड़ी को एक और एक्सट्रा बॉल मिल गई हो। अब उम्मीद होगी उस आखिरी बॉल पर छक्का लगाने की।
कई सौ-सौ रूपये के फ़ार्म भरे इन्तजार करते लोग बस, इसी राह मे थे कि कुछ तो होगा ऐसा दिल्ली जैसे बड़े शहर मे जहाँ हमारे नाम की भी कोई जगह होगी। कोई तो दरवाजा ऐसा बनेगा कभी जिसके आगे हमारे नाम की भी तख़्ती लगेगी। कोई तो ऐसा राशन कार्ड होगा जिसमे मेरा नाम सबसे ऊपर और मुखिया का ऑदा लेगा। पर क्या ये संभव है? वो भी दिल्ली जैसे बड़े शहर मे?
ये सपने हर छोटी कॉलोनियों मे रहने वाले के दिमाग मे हमेशा ताज़ा रहते हैं। जो बस, अवसर तलाशते हैं किसी ऐसे मौके का जिसमे ये कूद सकें और अपनी किश्मत आज़मा सकें। यही इन्तजार इनको हमेशा चौंकन्ना रखता है। ये हमेशा इसी ताड़ मे रहते हैं कि कोई तो फार्म निकले, किसी भी अख़बार मे जिसमे हमारे जैब की मुताबिक घर के प्लान हो। इसलिए हर अख़बार पर इनकी नज़र रहती है। चाहें ये कोई भी अख़बार खरीदे या नहीं मगर नज़र शहर मे किसी भी चाय की दुकान पर रखे अख़बारों मे या फिर राह चलते किसी भी अजनबी से रिश्ता बनाकर उसका अख़बार शेयर करने से नज़र आ ही जाती है। ये खाली अख़बार तक ही सीमित नहीं रहती। ये चाहत टीवी के हर न्यूज़ चैनल पर पँहुच ही जाती है।
अभी कुछ समय पहले ये न्यूज़ काफी जोरो से यहाँ दक्षिण पुरी मे फैली के, प्रगति मैदान मे मीडिल क्लास के लिए घर निकाले गए हैं। तो बस, पँहुच गए सभी अपने-अपने नाम से किश्मत को आज़माने, लेकिन दूसरे ही दिन जब घरों की किमतों पर सरकार ने नज़र डाली तो सब उंमगें जैसे धरी-की धरी रह गई।
नेमसिंह जी एक मात्र आदमी हैं जिनकी हर स्कीम पर निगाह रहती है। वे तो कभी भी कोई भी स्कीम नहीं छोड़ते। बस, जहाँ के बारे मे भी पूछना हो, पूछ सकते हैं। मकान लेने की ऐसी हुड़क किसी मे भी शायद देखी नहीं जा सकती। वे वहाँ प्रगति मैदान से आये और कहने लगे, "बताओ भला, घर निकाले हैं मीडिल क्लास के लिए और किमत 13 लाख से 16 लाख। अब जरा ये भी बता दो की किसी मीडिल क्लास का आदमी इस किमत मे फिट बैठता है? अच्छा ये नहीं तो ये ही बता दो की अगर मेरे जैसा आदमी बैंक से लोन भी लेगा तो उसकी मासिक किश्त कितने की होगी? लगभग देखा जाये तो 7000 रुपये से 8000 रुपये तक। अब जो आदमी महिने मे 6000 रुपये कमाता हो वो किश्त देगा तो खायेगा क्या? वाह! री सरकार, तुझे सलाम।"
ये कहते हुए वो अपने घर के अन्दर चले गए पर बात यहीं पर नहीं ख़त्म हुई थी। वे तो अब उनके बोल से निकल कर कई अलग-अलग दिमाग और ज़ुबानो मे चली गई थी। बातों ही बातों मे घरों की बातें फैल गई। लोग मकान-मकान का नारा लगाने लगे। कोई भरने की कहता तो कोई बात को टालने की। इसलिए तो यहाँ पैसा इनवेस्ट करवाने वालो की भी कमी नहीं है। बस, इच्छाएँ पकड़कर और चेहरा पढ़कर ये घुसे चले आते हैं और सब कुछ जैसे निकालकर रख देते हैं। इनके लिए सोलह या सत्तराह लाख को बॉय हाथ का खेल होता है। बैठे-बैठे कागज़ के एक छोटे से टुकड़े पर ये आपकी ज़िन्दगी का मैप बना डालते हैं और मैप मे बस, पैसा ही पैसा होता है। ये पैसा कहाँ से आयेगा और कैसे आयेगा ये सब पता होता है इन्हे। बस, ये नहीं बताते की ये पैसा मेरे पास रहेगा कब तक?
नेमसिंह जी इन सब के घेरे मे नहीं पड़ते, साफ निकल आते हैं। उन्हे पता है कि उनका पैसा कहाँ से आता है, कैसे आता है और कहाँ चला जायेगा। अपने घर मे कई समानों के साथ-साथ एक कौना ऐसा भी बनाया है जिसमे ना जाने कितने मकानों के फार्म फोटोस्टेट किये हुए रखे हैं और ना जाने कितनी अख़बार की कटींग भी। जिसमे घर के बारे मे कई प्रकार की डीटेल शामिल है। साथ-साथ सरकारी फ़्लैट के बारे मे सारी बातें भी। किसी मे गाज़ियाबाद के फार्म हैं तो किसी मे दिल्ली के। ये हर जगह अपनी किश्मत आज़माने से नहीं चूकते।
"पूरे चार सालों के बाद में निकाले हैं सरकार ये जनता फ़्लैट, और अब देखो वो भी अटक गए। ना जाने क्या होगा हमारा तो?”
दक्षिणपुरी में इन दिनों पहली बार घर लेने और पाने की मारामारी छाई रही। इतनी बातें, इतनी इच्छाएँ और इतना जोश आज से पहले नहीं था। इसके कई कारण हो सकते हैं। पर तमन्ना एक ही होगी। ये क्रैज़ खाली बदलाव के तहत ही नहीं था बल्कि अब दक्षिणपुरी ने अपने आने वाले टाइम को देखना शुरू किया था और ये सब राजीव गांधी विकास के घरों को लेकर तो कुछ ज़्यादा ही था। सबसे पहले तो घर के फार्म खरीदने की मारामारी उसके बाद मे उसको छुपाकर भरने की होंश भी। ये बड़ी मज़ेदार वारदातों से बनती है। कई खेल हैं इनमे। अगर गली में किसी एक को पता चल जाता कि सरकार ने घर निकाले हैं गरीबों के लिए तो वो किसी और को अपने मुँह से नहीं बताता। इनका मानना ये रहता है कि जितना लोगों को पता चलेगा उतने ही उम्मीदवार बड़ जायेगें और हमारे चांस कम हो जायेगें। वैसे देखा जाये तो ये खाली अपने ही मन की बनाई बात रहती। पता यहाँ पर सबको रहता बस, सभी उसको छुपाने के तरीके तलाशते रहते।
यहाँ पर ये खेल हर गली, हर नुक्कड़, हर बसस्टेंड अथवा हर बस मे भी देखा जाता। हर कोई अपनी तरह से उसको नाटने की बात करता और ये समझाने की कोशिश करता की "ये हमारे लिए नहीं है" या ये कहता के "इसमे इतने रूपये भरे जायेगें, हमारे बस का नहीं है" और ज़्यादा से ज़्यादा बताते तो कोई ये कहता कि "ये निकलेगा ही नहीं।" ताकी लोग उस तरफ ना खिंचे।
मगर वो कहते है ना, बहकावे मे ना आओ, बस अपनी अकल लगाओ। यहाँ पर भी लोग कुछ ऐसा ही करते हैं। "हाँ-हूँ" के बाद तो कहानी कुछ अलग ही मोड़ ले लेती और सरकार की झाँसों भरी स्कीम भी पूरी हो जाती। सौ-सौ रुपये लिए दिल्ली की करोंड़ों पगली जनता घर-घर चिल्लाती हुई फार्म की खिड़कियों पर टूट पड़ती। और सरकारी खातों मे वे ही सौ-सौ के नोट जैसे अरबों रुपये की बारिश कर देते। ये सौ के नोट किसी के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन सरकार के लिए बेहद बड़ी बात थी। ये एक भूख की तरह से होती जिसका नशा आदमी को कहीं भी, कभी भी नंगा खड़ा कर देता और क्यों ना हो भला आखिर सरकार भी तो हमारी है।
घर की तरफ मे भागमभाग दक्षिणपुरी मे आखिर क्यों हुआ? ये क्या दौर रहा है जो लोग खिंचे चले जा रहे हैं? ये पहले तो था ही नहीं। इनमे कई कारणों मे एक वज़ह ये भी है कि, नेमसिंह जी कि तरह यहाँ हजारों लोग और हैं जो टीवी, अख़बार और रेडियो पर अपने कान लगाये रखते हैं। खाली इसलिए ही नहीं की आठ फूट के दरवाजे पर हमारे नाम की तख़्ती हो या राशन कार्ड मे अपना भी नाम मुखिया की जगह हो। खाली यही नहीं है। यहाँ पर लोगों के पास मे साढ़े बाइस गज़ के मकान है। जो इंदिरा गांधी विकास से सन् 1975 मे मिले थे और आज की तारीख मे कितनों ने यहाँ खरीदे भी हैं। जिनको ऊँचा तो किया जा सकता है लेकिन फैलाया नहीं जा सकता। इसे दो या तीन, तीन या चार मंजिल बनाया जा सकता है। लेकिन जैसे-जैसे मकान ऊपर चड़ता जाता है उसकी चौड़ाई उतनी ही कम होती जाती है। कमरा एक और रहने वाले चार तो कैसे हो गुजारा? इस बड़ते परिवार की वज़ह से यहाँ पिछले साल कई मकान तो बिक भी गए हैं। मगर कुछ लोगों का कहना है कि जो यहाँ दक्षिणपुरी से बैक कर गया वो दिल्ली जैसे बड़े शहर मे बीस गज़ का भी मकान नहीं खरीद सकता। पर इसके बावज़ूद भी ये मैप अब बड़ा हो चला है। दक्षिणपुरी से दिल्ली की कई जगहें अब नजदीक हो गई हैं। संगम विहार, मीठापुर, जैतपुर, मेरठ, कंझावला तथा बदरपूर जैसी जगहें दक्षिणपुरी के मैप के साथ मे जुड़ गई हैं। बस, यहीं पर जगह मिल सकती है जिसमे चार लोगों के परिवार का गुजारा चल सकता है अथवा नहीं।
ये एक रेस है जो शुरू हो गई है जिसमे सभी भाग रहे हैं। ना जाने कौन जितेगा? पर यहाँ इस दौड़ मे सभी शामिल हैं। हाँ बस, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि यहाँ इस दौड़ मे सभी एक-दूसरे से अंजान बनकर दौड़ रहे हैं।
"उषा देखले भगवान भी कुछ चाहता है तभी तो रिज़ल्ट दोबारा निकलवा रहा है। इस बार हमारा पक्का निकलेगा। हे माता रानी निकलवा दे तो नंगे पाँव तेरे दरवार मे आऊँगा। निकलवा दे।"
उनकी बीवी भी उनके पीछे-पीछे अपने हाथ जोड़ती हुई ऊपर वाले को देखने लगी, “आपको पता है जी विवेक के साथ क्या हुआ था? उसने सरकारी नौकरी का फार्म भरा था। उस सरकारी नौकरी का ड्रा निकाला गया तो उसमे उसका नाम नहीं आया। मगर बड़े अधिकारियों ने कहा की इसमे कुछ घपला किया गया है हम ये रिज़ल्ट दोबारा निकालेगें। बस, उसी मे उसका नाम निकल आया, सरकारी नौकरी लग गई उसकी। किसी को भी रिश्वत मे एक रुपये तक की चाय नहीं पिलाई उसने। आज देखो कितने चाव से नौकरी कर रहा है। हमारे साथ भी ऐसा ही हो तो मज़ा आ जाये। भगवान निकलवा दे।"
कुछ ऐसी ही कहानियाँ यहाँ दक्षिणपुरी की कई जगहों मे चल रही हैं। सभी का इन्तजार दोबारा से शुरू हो गया है। इतना तो शायद पास और फैल करवाने वाले स्कूल के रिज़ल्ट का भी नहीं होता। कोई बेसब्री नहीं है सब धैर्य बाँधे बैठे हैं। लगभग तीन दिन और टीवी के सामने मुँह गढ़ाये बैठे रहना होगा। सभी मनोंरजन की चीजें न्यूज़ चैनल मे तब्दील हो गई हैं। "काश के हमारा निकल आये"
ये नारा दुआओं और मांगो मे बदल गया है। उंमगें जैसे दोबारा से जीवित हो गई हैं।
लख्मी
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