Friday, January 2, 2009

चीजों का एकान्त

ऑटो का काम ख़त्म होने के बाद क्या करते कोई काम शायद बचा ही नहीं था। 35-40 की उम्र ऐसी होती है जिसमें शहर में कोई नौकरी नहीं होती तो क्या करते?

शिवराम जी की भी कुछ यही दिक्कत थी। अक्सर अपना ऑटो वो शमशान घाट के नल से आते पानी से धोया करते थे। सुबह 7 बजे से 8 बजे तक उनका यही काम रहता। इस दौरान शमशान घाट में भी बहुत शांती रहती। बहुत कम बार हुआ था कि इस वक़्त में कोई अर्थी आए। जब भी कभी आती तो वो अपनी सफ़ाई छोड़कर दो कदम उनके कदमों से मिला लेते और दूर से ही नमस्कार कर अपने काम मे वापस लग जाते।

शमशान घाट के पंडितजी के साथ में अच्छी जान-पहचान थी इनकी। शाम में काफी बार 4-5 घंटे साथ बिताए थे। अक्सर शाम में वो वापस आकर अपना ऑटो उसी नल के साथ खड़ा करते और ताला चैन के साथ उसी से बाँध देते। कोई भी शाम ऐसी ना थी जिसमें उन्होंने शमशान घाट में आग ना देखी हो। कभी कोई आग सुलघ रही होती तो कभी बहुत तेज़ उठ रही होती। कभी कोई उस आग के सामने खड़ा दिखता तो कभी वो अपने में एकान्त सुलघती रहती और किसी और के चले जाने का ज्ञात हो जाता।

सुबह और शाम का देखना अब बड़ा हो गया था। ऑटो का सी.एन.जी में तब्दील होना शिवराम जी के लिए तो छोटा ना था। चाहते ना चाहते उनको अपने ऑटो का काम बंद ही करना पड़ा। पूरा दिन बिताना अब आसान नहीं था। 35-40 की उम्र थी और शहर की गुंजाइशें ख़त्म पर थी। वो अपना पूरा दिन शमशान घाट में ही बिताने लगे। कुछ दिन तक वहाँ आते चढ़ावे में उनका हिस्सा रहता। वहाँ पर आए आटा, दाल, चावल, चीनी, और कपड़े और कई वो चीजें जो लोग अपने मर जाने वाले के नाम पर दे जाया करते थे उनको पंडितजी अपने घर में इस्तमाल कर लेते। बस, दोपहर का खाना तो शिवराम जी का वहीं से आ जाता। इस दोपहर के खाने के लिए उनको ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ता बस, आती हुई अर्थी को खाली जगह दिखाते और शमशान घाट के बनते पर्चे पर पंडितजी के साईन करवाते। यही काम था उनका यहाँ पर जिसकी उन्हे कोई तन्ख्या नहीं मिलती थी।

उनका अभी के दौर में तो घर से मेल-मिलाप नहीं था। वो रात में अक्सर वहीं सो जाया करते। घर के साथ में एक तन्ख्या का रिश्ता था जो अभी टूटा हुआ था। वो वहाँ अगर जाए तो क्या लेकर हाथ तो खाली थे उनके।

बस, अपना दिन बिताने के लिए वहीं मंदिर के पेड़ के नीचे बैठे शमशान घाट में अपनी नज़रे घुमाते रहते। दोपहर में कई लोग वहाँ आकार बैठते और सोते भी थे। अक्सर कूड़ा बिनने वाले बच्चे वहाँ कोनों में लगे रहते और कुछ लोग वहाँ किसी भी समाधी के ऊपर अपने पैर तानकर सो जाते। पेड़ की छाँव के नीचे बहुत शांति मिलती थी यहाँ लोगों को। वैसे यह जगह मशहूर भी शांति के लिए होती है। तो पूरा दिन उन्ही को देखकर उनका टाइम बितता रहा।

काफी टाइम से चल रहा है यह सब। अब तो जिनका कोई मर जाता वो इन्हे जगह दिखाने और चिता जलाने में मदद का कुछ दे भी जाते। वो अपने साथ से अलग से कुछ नहीं लाते हो भले ही पर जो अर्थी पर आता वो तो दिया ही जा सकता था।

एक औरत की अर्थी। बहुत लोग थे। लगता था जैसे कोई जवान और शादीशुदा औरत थी। कई साड़ियाँ चढ़ी थी उसपर। चूड़ियाँ, साड़ियाँ , सैंडिल, मेकप बोक्स, सारी दुल्हन का सामान चढ़ा था उस पर। काफी रोना धोना भी हुआ था। वो लकड़ियाँ अपने साथ ही लाए थे। यहाँ अंदर से कोई नहीं खरीदता और कोई क्यों खरीदे भला इतनी मंहगी जो देता है। मरने वाली औरत बहुत गोरी थी। उसका एक बच्चा भी था वो भी गोद का। एक आदमी जिसके हाथ में बच्चा था वो शायद उसका शोहर था। 9 नम्बर वाले मोक्षस्थल पर जलाने के लिए उसे रखा गया था। उनका अपना क्रियाक्रम का काम चलता रहा और उन्होंने सारे कपड़े और सामान एक तरफ पटक दिया और मृतक को लकड़ियों पर रख दिया गया। अपना सारा काम-वाम निबटाकर वो कुछ देर तो वहीं पर खड़े रहे और थोड़ी देर बाद वहाँ अस्थियों के कमरे के साथ आकर सीटों पर बैठ गए। लगभग दो घंटे वो बैठे रहे फिर एक-एक दो-दो करके वो चले गए मगर वो चिता जलती रही। सब कुछ ठंडा हो जाने की राह देखी जा रही थी जब राख मे से धुआँ और गर्मभाप निकलने लगी तो सारे कपड़े और गहने और सामान उठाने के लिए वहाँ कूड़ा उठाने वाले भागे। शिवराम जी ने उन्हे डाँटा और कहा, "ख़बरदार अगर किसी भी चीज को हाथ लगाया तो ?”

वो उन्हे देखकर पीछे हो गए। पहली बार उनकी आवाज़ निकली थी किसी को रोकने के लिए शायद ये आ गया था उनमे की अब मैं भी इस जगह को सम्भालता हूँ पंडित जी के साथ। शिवराम जी सारा समान उठाकर पंडित जी के घर ले गए। पंडित जी की पत्नी ने देखा और धोती-धोती उठाते हुए कहा, “ये मेरे काम कि है बाकी तू ले जा अपने घर।" हाथों में बाकि सारे कपड़े लेकर वो खड़े रहे और यही सोचते रहे की लेकर जाऊँ या नहीं। कहीं कोई 'हाये' तो साथ मे नहीं चली जायेगी? कोई परेशानी ना बढ़ जाये? नहीं-नहीं क्या करूँ का जाप उनके अन्दर मे घूमने लगा था। फिर भी समानों और चीजों को देखकर सोचा क्यों ना लेकर ही जाया जाये। सारी साड़ियों की तय लगाकर वो एक साफ़ पॉलिथीन में डालकर और मेकपबोक्स अपने हाथों में पकड़े वो अपने घर लेकर चल गए और एक रात के लिए शामशान घाट से गायब हो गए।

अगले दिन पंडिताई ने पहली ही नज़र में उन्हे देख कर कहा, “शिवराम क्या हुआ कैसी लगी साड़ियाँ तेरी औरत को?”
"अरे कहाँ पंडिताई जी सुसरी ने पूरी रात उन साड़ियों को बाहर उसी पॉलिथीन मे दरवाजे के बाहर ही पड़ा रखा कह रही थी की किसी माँगने वाली को दे देगी।"

कहते-कहते वो उसी 9 नम्बर के मोक्षस्थल पर जाकर अस्थियाँ को काले कपड़े मे भरने लगे। ये भरना वैसे हर किसी का नहीं होता पूरे एक दिन तक मरने वाले घरवालों का इन्तजार किया जाता है और जब वो नहीं आते तो खुद ही काले रंग के कपड़े में अस्थियों के फूलों को चूनकर भर लेते हैं और उसपर मोक्षस्थल, टाइम, लिंग लिखकर वहाँ पर अस्थियों के कमरे में टाँग देते हैं। जहाँ पर कई और अस्थियाँ पहले दे ही टगीं हुई हैं थैलियों की शक़्ल में और उनके साथ-साथ में कई कपड़े भी पड़े हैं।

पूरा कमरा काले रंग से भरा हुआ था। बिना पलस्तर के वो ख़ुर्दरी दिवारें बहुत डरावनी लग रही थी। कुछ भी नया नहीं था। कोनों में कई समान भरा और ख़ामोश पड़ा कई आग की भाप निकाल रहा था। लाल चूड़ियाँ, साड़ियाँ, जुतियाँ, मटके, हुक्के के ऊपर का कटोरा, छोटी चारपाइयाँ सभी की सभी कोनों में भरी हुई थी। किसी भी सामान को छूने का मन भी हो तो हाथ नहीं उठते थे। शिवराम जी वहाँ पर कोई खूटीं ढूँढ रहे थे एक और थैली टाँगने के लिए। काले धूँए की आड़ मे गहरा अंधेरा एक जगह की चूप्पी के सन्नाटे को और भी गहरा कर रहा था। कभी तो ये समानों का कमरा लगता तो कभी कई लोगों के शांत रहने का ठिकाना।

सभी सुबह के 11 ही बजे थे तब भी इसका एकान्त कठोर था। जैसे-जैसे रात गहरायेगी तो क्या होगा? शिवराम जी ने वहाँ पर चार और थैलियों के साथ मे उसे टाँगने के लिए जैसे ही डोरी निकाली तो उनकी नज़र उन थैलियों की तारीखों पर गई। चार मे से तीन थैलियाँ 2004 के सितम्बर के महिने की थी और उनके हाथ में लगी थैली 2007 की। वो यही सोचने लगे की यहाँ टाँगने के बाद में भूल गया था तो? यहाँ पर तो धूँए और मिट्टी में सारी थैलियों को सदियों पुराना कर दिया था।

अब वो देखने लगे लगभग सन 2000 और 2007 के मरने वालों की थैलियों को। वो उस कमरे के और अन्दर चले गए। अन्दर कोने की दीवार के साथ मे कई थैलियाँ टँगी थी। ऐसे जैसे किसी ने अपना कोई अनमोल समान याद रखने के लिए टाँगा हो या ऐसे जैसे भूत-प्रेत से बचने के लिए भवूती टाँगी हो।

उन्होंने अंदर की सभी थैलियों को देखा, तारीखें भी छुप गई थी। अपनी उंगलियों से उन्होंने सबकी तारीखें देखी उनपर 1998 , 1999, 1995, 1996, और 2001 लिखा था। देखकर वो वापस आने को हुए और जहाँ तक धूप आ रही थी वहाँ आकर एक लकड़ी ईंटो की दरारी मे फँसाई और अपने हाथ की थैली को वहाँ टाँग दिया। वहाँ खड़े वो पूरे कमरे को देखने लगे उनकी नज़र कमरे में ऐसे घूम रही थी जैसे हर चीज को पढ़ रही हो कोई और रंग ही नहीं था। बस, एक ही या दो ही अंतर थे सभी मे। कोई थैली साड़ी, धोती, या चाकू के साथ टंगी होती तो कोई मोटी या पतली और वो अंदाजा लगाते कि कौन औरत है और कौन मर्द और कौन पतला था और कौन मोटा। पहली बार था कि वो अपने कमरे में।

"कोने में रखी चीजों की कोई ज़रूरत नहीं है वैसे उस कमरे मे। वो तो किसी ना किसी काम भी आ सकती है और इतना तो पता है कि सन 2000 मे कोई नहीं मरा। अगर कोई मरा है तो कोई यहाँ थैलियों में अकेला टंगा नहीं है। अपना मोक्ष पाने के लिए इतना इंतज़ार कैसे सहेगा कोई ? क्या रिवाज और क्या तारीख? मरने के बाद भी यहाँ अकेला होना क्या फायदा?” वो अपने मे बड़बड़ाते रहे।

जल्दी से जल्दी वो उस थैली को वहाँ टाँग कर बाहर आ गए और पंडित जी के पास जाकर बैठ गए। बहुत बार आऐ हैं यहाँ बल्कि यहाँ पर वो रहे भी हैं। कई लोगों के मरने पर वो इन कुर्सियों पर बैठे भी रहे हैं। सामने रखी ये वही कुर्सी है जो रमेश ने अपने पिता रामचरण के नाम पर यहाँ रखवाई थी। वो 1938 मे पैदा हुए थे और 1992 मे मरे थे। उनके नाम की यहाँ पता है सोने की सीढ़ी भी चड़ाई गई थी क्योंकि वो परदादा से भी ऊपर होकर स्वर्ग सिधारे थे। 3 पीढ़ियाँ देख ली थी उन्होंने। क्या बाजे- गाजे के साथ आए थे। यहाँ पर बैठकर उन चीजों को देखकर यही सब याद आ रहा था उन्हे। पर आज उन कमरे मे रखे सामान को देखकर कुछ भी याद नहीं आ रहा था बस, इतना ही दिमाग मे रहता कि मरने की तारीखों में कोई ना कोई टँगा है। वो पैदा कब हुआ कितनी पीढ़ियाँ देखी होंगी उसने वो कुछ नहीं था। आँखों के आगे वो चीजें ख़ामोश पड़ी थी जो रंगीन तो थी पर किसी की अपनी चीज। गठरियों मे बंधे कपड़े वहाँ पड़े थे और एक टूटी सी चारपाई जो शायद उसी की होगी जो मरा था।

दोपहर का खाना भी आ गया था। पंडिताई जी चावल-भात प्लेट में डाल लाई थी। शिवराम जी अपनी पाँचो उंगलियों को उसमे मिलाते हुए एक गस्सा जैसे ही खाते तो उन्हे उन्ही थैलियों की महक अपनी उंगलियों में महसूस होती। ज़रा सी भी हवा चलती तो पूरे शमशान घाट मे राख ही राख उड़ती नज़र आती और वो उंगलियों को घुमाते-घुमाते चावलों के गस्से पर गस्से खा रहे थे।

इतने में आवाज़ों का काफ़िला अंदर आने लगा। राम नाम सत्य है , सत्य बोलो गद्य है। इसी को दोहराते हुए काफी सारे लोग अंदर आते गए। पहले गाड़ियाँ आई और फिर अर्थी एकदम शांत। आवाज़ें लगाने वाले आगे निकल गए थे। वो आते ही बाहर वहीं कोने पर पानी के नाँद पर रुक गए। दो आदमी अंदर आए और जगह की पूछने लगे।

शिवराम जी प्लेट को नीचे रखते हुए बाहर की तरफ आए और 7 नम्बर वाले मोक्ष स्थल पर ले गए। वहाँ सुबह ही सफ़ाई की गई थी। उन्होंने वहीं अपने क्रियाक्रम का काम शुरू कर दिया और मरने वाले को विदाई देने लगे। मगर यहाँ पर कोई रोने की आवाज़ें नहीं थी। उसके साथ आया सामान जिसपर हमेशा पंडिताई की नज़र रहती थी जैसे नई दुल्हन क्या लाई है उसे देखने की चाह हो।

कोई आदमी था शायद। वहीं गठरी मे कपड़े थे, 4 जोड़ी जयपुरी जूतियाँ थी, आँखों के चश्मे थे और एक कुर्सी भी थी। वो अपने साथ ही लाए थे। सभी लोगों की तरह थोड़ा टाइम देना था और सामानों को वहीं छोड़ जाना था। लोग जब तक आग रहती तब तक वहाँ बनी समाधियों के नाम और तारीखें पढ़ने में लगे रहते और अपना टाइम बिताते। यहाँ पंडिताई और कूड़ा बिनने वालों की निगाह सामानों पर रहती और वहाँ खेलते बच्चों की लुटते खील-बताशो और पैसो पर। यहाँ पर खील-बताशे तो नहीं थे पर अर्थी पर गुब्बारे लगे थे और बैंड वाले भी थे। बच्चे तो गुब्बारों में लग गए और कूड़ा बिनने वाले उन गठरों में बंधे कपड़ो में।

शिवराम जी ने सारा काम करवाया अर्थी के बाँस को ज़मीन मे मारा और खेल ख़त्म। आज पहली बार वो अपने लिए यहाँ से चारों जोड़ी जूतियाँ और कुर्सी लेकर गए थे।

लख्मी

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