Wednesday, January 21, 2009

दरवाजा खुला था

घर में हर एक चीज़ का अपना एक स्थान होता है पर आज को देखकर तो लग रहा जैसे कि कोई ऐसी चीज़ नहीं होती जो सज़ाई नहीं जा सकती हों।

दरवाजा खुला था। दरवाजे की साँकर हमेशा हिलती रहती है उनकी। कोई भी अन्दर आये दरवाजे की वही साँकर हिलकर बता देती है की कोई आया है। शिवराम जी जब भी गली मे कदम रखते तो गली वालों की नज़रें हमेशा उन्ही पर रहती थी। ये तो कम ही होता था की वो घर आ रहे है मगर ये ज़्यादा होता था की वो आज क्या ला रहे है। यही देखने के लिए निगाहें अक्सर उनपर चली जाती थी।

आज तो उनके काधों पर कुर्सी रखी थी मस्त गद्देदार और आराम दायक। वो उसे उठाये चले आ रहे थे और उनके हाथों मे एक भी पॉलिथीन थी। वो जैसे-जैसे अपने कदम अन्दर रखते जाते औरतें उनके आगे से अपने बच्चो को हटा लेती। पता नहीं किस सायें से बचना चाहती थी वो? शिवराम जी को ये सोचना ज़्यादा अनिवार्य नहीं होता था बस, आँखें यही देखती थी की जो आज तक मैं शमशाम घाट में रहकर नहीं देख पाया था वो इनको कैसे दिखता था? मुझे क्या? वो तनकर चले आते। उनका घर गली के बीच में था और गली भी इतनी चौड़ी नहीं थी की चार-पाँच आदमी उसमे से एक साथ निकल सकें। पतली गली में वो सभी के आँगनो में पाँव रखकर वो चले-चले जाते।
उनकी नज़र जब भी किसी पर पड़ती तो वो ये साफ़ देख लिया करते थे कि उनको कोई नहीं देख रहा होता सबकी नज़रें उस पर होती जो कभी काधों पर तो कभी हाथों में होता। वो ये देखकर हमेशा मुस्कुरा देते। इसलिए नहीं की ये गली वाले उन्हे ऐसे देख रहे है या आज के जमाने मे भी ये सब सोचा जाता है मगर इसलिए की अभी वो घर में घुसेगें और उनकी बीवी भी कुछ इसी नज़र से देखेगी और पता नहीं क्या-क्या पूछेगी? उन गली वालो की नज़र से ये उनको ये समझ में आने लगा था की वो जब भी घर वापस लौटते है तो वो अकेले नहीं होते उनके साथ मे कई ऐसे लोग होते थे जिनको शिवराम जी ने तो आज तक नहीं देखा था मगर उनके अलावा कई आँखों ने उन्हें देख लिया था। जिनको देखना आसान बात नहीं थी। सब के सब इस तरह से रास्ता छोड़ते जैसे शिवराम जी किसी को काँधों पर उठाकर ला रहे हो।

शिवराम जी ने अन्दर आकर कुर्सी को पहले तो अपने काँधों पर से उतारा और पॉलिथीन में रखी जूतियों को उन्होनें वहीं दरवाजे के पीछे रख दिया। ज़्यादा बड़ा कमरा नहीं है उनका। उनके सोने-बैठने की जगह बाहर वाले कमरे मे ही बनाई हुई है। वो कब आयेगें या कितने बख़्त में आयेगें? कुछ पता नहीं होता उनके घरवालों को। इसलिए वो एक खाट-बिस्तर वहीं एक कोने में दीवार से सटाकर हमेशा तय लगाकर रखते है।

अब शुरूआत हुई उस कुर्सी की जगह बनाने की। शिवराम जी उस कुर्सी की जगह अपने उसी छोटे से कमरे में बनाने लगे। कभी तो वो उस कुर्सी को अपनी खाट कर सिरहाने रखते तो कभी पातियाने पर। मन नहीं मानता था उनका। वो कुर्सी को उठाकर दूसरी दीवार की खिड़की के पास ले गए बिलकुल खिड़की के पास ही उन्होनें वो रखदी और बैठकर खिड़की के बाहर देखने लगें। उसकी ऊँचाई इतनी थी की रोज़ाना गली दिखाने वाली खिड़की आज तो कुछ और ही दिखा रही थी। खिड़की के बाहर देखने पर सामने वाले घर के अन्दर देखा जा सकता था मगर वो तो मोहम्मद भाई के घर का बाथरूम था। उन्होनें वहाँ से कुर्सी उठाई और वापस अपनी खाट के पास ले गए।

अभी के लिए उन्होने कुर्सी को ठीक खाट के बगल में ही रख दिया था। अब वो पॉलिथीन मे से जूतियाँ निकाल कर उसमे अपने पाँव घुसाने लगे। तीन जोड़ी जो पुरानी थी वो तो उनके बिलकुल ठीक ही आई थी। वो भी कैसे ना कैसे उन्होनें उसमे अपने पाँव डाल ही लिए थे मगर वो नई वाली जिसके बिनाह पर वो सारी उठा लाये थे वही नहीं आ रही थी। पूरा एक नम्बर बड़ी थी उनके वो। "शायद ये उसी दिन खरीदी होगी जिस दिन ये साहब स्वर्ग सिधारे थे। चड़ाने वाले को उनके पाँव का अन्दाजा नहीं होगा और क्यों हो भला ये अब चड़ाने के लिए ही तो थी कौन सा इनको अब पहननी थी।"

वो उन गोल्डन रंग की नई जूतियों को अपने हाथों में लेकर उसके ड़िज़ाइन को देखते रहे। कुछ खाट के जैसी बुनाई का ड़िज़ाइन था उसपर पर वो आई नहीं थी उनके। उन्होनें सारी जूतियों को खाट के नीचे सरकाया और वहीं एक-दम धड़ाम सें लेट गए। थोड़ी हो देर में वो वापस उठे और अपने तकीये में कुछ कतरन निकाली और उन्ही नई गोल्डन जूतियों को उठाया और उसके अन्दर वो कतरन फँसा कर उसे पहनने लगे। अभी भी नहीं आई थी तो उन्होनें दोबारा से और कतरन निकाली और अबकी ठीक तरह से उसमे फँसाई और पहनी। वाह!

चेहरा खिल गया था उनका वो आ गई थी। पर पाँव चैन से नहीं बैठ पा रहे थे शायद काट रही थी अभी वो नई जूतियाँ उन्हे? बड़े खुश से हुए थे कुछ पल के लिए वो और अपनी बनियान से उस जूती को साफ़ करते हुए वो वहीं लेट गए थोड़ा सुस्ताना जरूरी समझा था इतना सब कुछ हो जाने के बाद में उन्होनें।

अब उनके उस कमरे मे चार-पाँच चीजें तो ऐसी हो गई थी जिनका ठिकाना उनके घर के किसी और कमरे में तो नहीं था और कभी लड़-झगड़ के वो ठिकाना बनाना भी चाहें तो उनकी धर्मपत्नी ये काम तो कभी करने ही नहीं देगी उनकों और ना ही ये दौर कभी चलता फिर। उनकी बीवी के दिमाग पर तो बस एक ही भूत सवार रहता है कि ये एक मरे हुए आदमी का है वो भी चला आयेगा अन्दर। शिवराम जी को इस मरे हुए या समान का खौफ़, डर या ख़्याल हटने में ज़्यादा टाइम नहीं लगा था।

वो एक ऐसी जगह में काम करते थे की जहाँ पर अपना कुछ टाइम बिता दो तो सारे डर और अवधारणाओ की जगह बदल जाती है। वो किसी कि अर्थी के पीछे-पीछे दो कदम चलना या वहाँ से वापस आकर स्नान करना सब का सब बे-माइने लगने लगता है। बस, ये सब इतना ज्ञात कराता है की हम अपने ऊपर से या तो किसी डर को निलम्बित कर रहे है या उस दुनिया में अपना सदेंशा भेज रहे हैं जो अभी तक किसी ने नहीं देखी। हम बस, इतना मानते हैं की जो मर कर जा रहा है वो देखेगा।

ये सब की सब बातें तो पूरी दुनिया सोचती तो खाली "मैं ही क्यों सोंचू" शिवराम जी ये सोच कर हमेशा अपने आपको हल्का करते। "ये सोच कर क्या फ़ायदा" कहकर अपनी छत की ओर देखकर वो घंटो ये ही सोचते रहते थे की मैं जो समान लेकर आ रहा हूँ वो क्या दूसित है? ऐसा क्या चिपक गया इसमे की ये किसी और के घर में नहीं जा सकती?

हर चीज के साथ में किसी का प्यार होता है तो किसी का रिवाज़ मगर इससे उसका मतलब ये तो नहीं है कि वो अब वहाँ पर पड़ी सुखती रहेगी या वो किस के लिए बन जाती है फिर? कई सारी चीजें वहाँ पर ऐसी पड़ी हुई है कि जिन्हें छूना और उन्हें वहीं पर पड़े रहने देने से एक एकांत का ज्ञात होता है कि जिनके नाम की वो चड़ाई गई है वो उसके साथ में अपनी आत्मा से जुड़ गई है। चलो कोई दे गया कुछ वो उसके लिए था जो उसे अब इस्तमाल नहीं कर पायेगा और जो इस्तमाल कर सकते हैं वो भी इस्तमाल नहीं करेगें। तो उन चीजों का होना या ना होना किस दुनिया से जुड़ जाता है। ये भयभीत है और अदृश्य दूनिया है।

शिवराम जी उन चीजों को देखकर बस, इसी धून में घूमने लगते की जैसे अभी उन चीजों मे बसे उस शख़्स से बातें कर रहे हो। बस, क्या था दूसरी तरफ से आवाज़ नहीं आ रही थी। वो उन चीजों को देखकर ये सोचने लगे की। वो कहाँ सोता होगा तो कोई चादर दे गया और खाट भी। वो कहाँ बैठता होगा तो कुर्सी दे गया। कपड़े से लेकर कोई नंगे पाँव मे जूतियाँ भी दे गया होगा ये सब क्या है? ये प्यार ही तो है ना! ये सब की सब जैसे बस, सतकार के लिए ही रह गई है। "अगर मैं मरूगाँ तो मेरी मईयत पर क्या चड़ाया जायेगा?” ये सोच कर वो हँसने लगे।

अब तो सपने भी शिवराम जी को कुछ ऐसे ही दिखाई देने लगे थे। वो रात भी इन्ही बातों के साथ में अपनी नींद पूरी कर लिया करते थे। अब तो वो गहरी नींद में सो गए थे। जब भी वो सोने के लिए लेटते तो वो अपने सारे कपड़ों को उतार कर वहीं खाट के नीचे में सरका दिया करते थे। उनके कपड़ों में एक ऐसी महक भर गई थी जिससे उनको हमेशा एक उलझन रहती थी। वो महक जो जलती हुई लकड़ियों कि थी कुछ सामाग्री जैसी। वो तो पज़ामा भी उतार दिया करते थे और गहरी नींद में इस तरह से खो जाते की कोई भी आवाज उनके कानों में कोई करकस नहीं पैदा नहीं कर सकती थी। महिने में चार ही बार उनके कपड़े धुलते और बदलते थे और उनके कपड़े धोने वाली एक ही औरत थी उनके घर में वो भी उनकी धर्मपत्नी।

ऐसा कोई भी दिन नहीं होता था जब उनकी झपड़ नहीं होती अपनी बीवी से। उनके थोड़ी देर सो जाने के बाद में उनके घर का अन्दर का दरवाजा खूलता और उनकी बीवी अपने में बड़बड़ाती हुई बाहर आती। उनके कपड़ों को उठाकर अपने कपड़ों से बचाती हुई उन्हें दूर से पकड़ती हुई घुसलखाने में डाल देती। हर बार उनके साथ मे रखी कोई ना कोई नई चीज़ नज़र आती।

हमेशा उनके एक ही तरह के बोल सुनने को मिलते थे वो हमेशा ही बड़बड़ाती हुई जब भी बाहर में आती तो उनको ही कोसती। "पता नहीं क्या अला-बला उठा लाते हैं। ये तो पूरे घर को शमशाम बना कर ही दम लेगें। खुद को तो देखो ज़रा एक दम मुर्दे की तरह हालत हो गई है। आज देखो क्या उठा लाये? अपने कपड़ों को भी घुसलखाने में भी नहीं डालते। कैसी बदबू आती है कपड़ों में से जैसे किसी की चिता जल रही हो।"

अब तो कोई असर नहीं पड़ता था शिवराम जी को। वो यूहीं बोलती-बोलती कपड़े धोने के लिए बैठ जाती। वो कपड़े धोने के बाद मे उठी और उनकी खाट के नीचे रखी उस पीली पॉलिथीन को खखोरने लगी। उसमे वही जूतियाँ थी। उन्होनें चारों जूतियों को देखा उन तीनों पुरानी जूतियों को उन्होनें बाहर दहलीज़ पर रख दिया और उन नई जूतियों को उठाकर घुसलखाने में ले गई। जिस पानी से वो कपड़े धो रही थी उसी पानी मे से हल्का सा छिड़काव उन्होनें उन जूतियों पर किया और साफ़ कपड़े से पौंछकर उन्होनें वहीं पर खाट के नीचे ऐसे रख दिया जैसे वो अभी जागेगें और उसमे पाँव डालकर बाहर चले जायेगें और कपड़ों को उठाकर वो छत पर चली गई।

लख्मी

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