Saturday, January 17, 2009

मेरे होने या ना होने से कुछ फ़र्क है?

आज का दिन कुछ बदला-बदला सा ही गुज़रा, दिन कि शुरूआत बहुत भीड़ से हुई। आज के दिन मेरा जाना एलएनजेपी कॉलोनी हुआ। एलएनजेपी कॉलोनी का पूरा नाम लोकनायक जयप्रकाश कॉलोनी है। ये दिल्ली की ऐसी जगह पर है जिसके एक हाथ पर नई दिल्ली है तो दूसरे हाथ पर पूरानी दिल्ली। शहर के हर बड़े काम यहीं से शुरूआत करते हैं। यानी के यहाँ से कई रैलियाँ आती तो कभी जाती है। रामलीला मैदान से राजघाट सभी को देखने आये लोग यहाँ की रैली बनते हैं। मुझे भी ये जगह बहुत भाती है और सबसे ज़्यादा यहाँ के रिक्शे की सवारी। जिसमे बैठने का मतलब है कि आप कितने अपने को लेकर सावधान रहते हैं उसका इम्तिहान हो जाता है। जो दिल्ली इस सवारी से दिखती है वैसी तो शायद कभी देखी ही नहीं होगी। ये तो मेरी गांरटी है।

जहाँ पर तंग गलियों मे भी रिक्शे ऐसे भागते हैं कि सड़क पर चलती मर्सिडीज़ कार। वैसे यहाँ की तो ये ही मर्सिडिज़ कार हैं और यही हवाई जहाज। बस, मैं एक बात कहना चाहूँगा कि अगर कभी आप मेरी इस बात से इम्प्रैस होकर रिक्शे की सवारी निकल पड़ो तो उसपर बैठते समय अपने पाँव रिक्शा चलाने वाले की सीट के नीचे कसकर बैठना। क्योंकि इस सफ़र मे कब ब्रैक लग जाये वो कहा नहीं जा सकता। वहाँ अगर किसी को रिक्से पर बैठा देखोगे तो कहोगे की ये बात तो आपने गलत कही है लेकिन वो लोग यहाँ के माहौल मे ऐसे रम गए है कि उन्हे तेज ब्रैक लगने पर भी अहसास नहीं होता कि हम हिले हैं तो चाहें धरती हिले या कोई भुचाल आये उन्हे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ये बिलकुल बस, के कंडेक्टर की तरह बन गए हैं। जो आपको बनने मे वक़्त लगेगा।

मेरे लिए आज बस्ती भी कुछ अलग ही थी। लग रहा था की पिछली रात मे कुछ गुज़रा है। उसी की गर्मी बातों मे फैली थी। दिल्ली शहर मे कोई भी बदलाव हो यहाँ पर उसकी परछाई को बखूबी महसूस किया जा सकता है। एक बात अगर मुँह से निकल गई तो वो जब तक यहाँ की हर गली मे भम्रण नहीं कर लेती तब तक वो वापस उसी ज़ुबान में नहीं आती।

एक अंधेरे कमरे में चार औरतें बैठी बातें कर रही थी। वहीं पर मेरी साथी भी थी जिससे मैं मिलने के लिए गया था। वो इसी बस्ती में रहती भी है और साथ-साथ एक ऐसे संदर्भ से भी जुड़ी हुई है जो लोगों के बीच में रहकर उनके जीवन के तरीको और हर अहसास को बाँटने का काम करते हैं। ये वे नज़र लिए रहते हैं जो शहर की नज़र के अन्दर से कुछ अपना खोजती है। वे जगहें बनाती है जहाँ पर किसी को भी न्यौता है वो वहाँ आकर अपने जीवन से संबधित और फैसलों को बाँट सकता है। ये एक बहुत बेहतरीन काम है। मगर मैं इसे काम नहीं मानता, मेरे लिए तो ये एक ऐसा रिश्ता है जो हर आदमी तलाशता है। जैसे हम इस रिश्ते की तमन्ना या उम्मीद लगाकर रखते हैं जो हमारे जीवन में कुछ घटना हो जाने के बाद में आता है। जो खाली साहस ही ना बाँधे बल्की उन सभी बातों को समझने में मदद करे जो आने वाले जीवन मे अपनी भूमिका बनायेगी।

मेरी साथी अपने मे उस रूप को बनाने की कोशिश करती है। आज यहाँ पर बातें कुछ अलग ही थी। आज अपने से कुछ सवाल किए जा रहे थे। उन्होंने मेरे वहाँ पहुँते ही एक बात पूछी, "पिछले दिनों यहाँ पर एक सर्वे हुआ, जो बस्ती को विस्थापन करने से पहले किया जाता है। लेकिन यहाँ के लोगों ने उन्हे मार-फटकार कर भगा दिया। उनका मानना है की पहले हमारे कुछ सवालों के जवाब दिये जाये उसके बाद मे हम सर्वे होने देगें। जो बात उनकी भी ठीक ही है। लेकिन, हमें ये तक नहीं पता कि ये सर्वे किस चीज के थे? कुछ जाने-माने लोगों ने ये रुकवा दिये। अब जब हम बस्ती मे निकलते है लोगों के साथ बातचीत करने के लिए या उनकी कलाओ के लिए माहौल बनाना के लिए तो वो हमसे कहते हैं, हम यहाँ कब तक रहेगें जो आप हमारी कलाओ की बात कर रही है? और सब कुछ जैसे रुक जाता है। हम क्या कहें? "

इसके बारे में तो मैं भी कुछ नहीं कह सकता था। खाली यही के शहर में बदलाव मे जो फैसले सरकार ले लेती है तो उसको खाली मानना ही पड़ता है। बस, हमारी ताकत यही है की यहाँ पर बिताये हमारे जीवन के साल और उसके सबूत। जो ये नहीं होगे की हमने यहाँ कितने बेटे-बेटियों की शादी की है या कितने मौसम झेले हैं बस, हमारे पास होने चाहिये कुछ कागज़। जिसपर सरकारी मोहर लगी है। वही है हमारी ताकत। इसके अलावा तो मेरे पास बोले के लिए कुछ नहीं था।

उन्होंने फिर से कुछ पूछा वे बोले, "यहाँ पर कई ऐसी औरते हैं तो 20-20 सालों से अपने घर से बाहर नहीं निकली। बस, घर ही मे रहकर उन्होंने अपने घर को संभाला है। वे जब हमसे ये कहती हैं कि हम यहाँ से कहाँ जायेगें? और यहाँ से पास कौन सी जगह पड़ेगी या वहाँ पर मेरे बच्चो का गुजारा होगा तो हम कुछ कह नहीं पाते। एक बात है, यहाँ पर लोगों ने जो अपनी कला या हुनर से कुछ काम तैयार किए हैं शहर मे अपनी पहचान बनाने के लिए उसकी भविष्य क्या है फिर? यही सवाल अब कलाओ के बीच मे बाधा बन रहे हैं।"

ये लड़ाई बहुत पुरानी है, शहर से घर और जीने के लिए जगह माँगने की। लेकिन ये रसम रखी की रखी रही है। ये एक ऐसी बहस है जिसका कोई अंत नहीं है। बस, अपना आधार ही साहस है। यही सजाना है और बनाना है। लेकिन फिर भी मैं उनकी उस बैचेनी को नहीं जान पाया था जो उनमे उफान मार रही थी। वो थी, कलाओ के बारे मे। इसको उभाराना जितना मुश्किल है उतना ही उसको दबते देखना। ये सीधा आने वाले टाइम पर अटेक करता है।

बस्ती मे इसी की बैचेनी थी जो आज महसूस हो रही थी। चाय की दुकान के सामने से लेकर कुछ माहौल तक। पर इसके बावज़ूद एक आरामदायक अहसास भी था। जैसे इस बात से परहेज नहीं है। बस, जुझने के तरीके में खटास है। जो जीने के तरीके के समान हो गई है।

मेरी साथी मुझे लेकर बाहर वाले कमरे मे आ गई। जहाँ से बस्ती बिलकुल साफ दिखती है और उसकी चहलकदमी की आवाजें भी साफ सुनाई देती हैं। वो मुझे बाहर का नज़ारा बताने लगी। वो बता रही थी, "यहाँ पर घरों में एक बहुत ही प्यारी बात चलती है जो अब जैसे रिवाज़ ही बन गई है। यहाँ हर घर का, एक ना एक पाठक जरूर है।"

मैं समझा नहीं, वे फिर से बोली, "यहाँ हर घर अपने पड़ोस में एक ना एक आदमी या कहलो एक ना एक शख़्स, जो कोई औरत भी हो सकती है और लड़की भी, उसको अपने घर मे कुछ भी बनता है उसे चख़ाने लिए जरूर भेजता है। जो उसके स्वाद को बताता है और हिस्सेदार बनता है। फिर वो जिस कटोरी मे वो खाना भेजा गया था उसी कटोरी मे अपने घर से कुछ भेजती है। फिर वो कटोरी घूमती है घर-घर और स्वाद का एक घेहरा सा बना लेती है। जो बिना किसी बात के घूमता है। ये रीत सी बन गई है। हर घर का कोई ना कोई तो है। हर दिन, रात हो या कोई त्यौहार, ये हर दिन मे तब्दील हो जाते है। कुछ ही देर मे इतनी कटोरियाँ जमा हो जाती है कि हर स्वाद का चटखारा लेने मे मज़ा आता है। कभी-कभी सोचती हूँ की ये खाली पकवान या खाने के साथ ही जुड़ा है या किसी और भी चीजों की संभावनायें लिए ये चलता है? जो घर से घर जा रहा है और मोहल्ले से मोहल्ले वो क्या है? खाली रिश्ता ही तो नहीं है। ये तो कुछ और है? वो ही मैं समझ नहीं पाती।

इस जगह मे जो रेखायें हैं वो यही है, जो नज़र तो नहीं आती मगर बहुत कड़ी हैं। जिसकी आड़ मे कई और रेखायें खींची हैं। जिसके बलबूते पर ये बुनियादें खड़ी हैं। कहानियों की, कलाओ की, तीज़-त्यौहारों की और जिनमे बातों के कुन्दे लटके हैं। एक-दूसरे से जुड़े हुए।

वो कहती-कहती रुक गई, लेकिन उसके होंठ कुलबुला रहे थे। शायद बहुत सारे शब्द रूक गए थे मुँह के अन्दर ही। पर ऐसा नहीं है की वे बाहर नहीं निकलेगें। वो बस, वक़्त की नज़ाकत पर निर्भर हो गए हैं। वो बाहर आने का रास्ता खोज़ नहीं रहे बल्की खुद ही बना रहे हैं।

वो जाते-जाते एक बात और बोली, "एक बात मैं काफी दिन से सोच रही हूँ, मैं यहाँ पर रहती हूँ पिछले 20 सालों से और मेरा घर यहाँ पर है पिछले 30 सालों से। लेकिन मैं वो क्यों नहीं पकड़ पाती जो यहाँ पर एक महिना, दो महिना गुजारने वाले पकड़ लेते हैं? अपनी जगह को, जहाँ पर रहते हैं उसको समझने के लिए क्या हमें किसी प्रकार की दूरी की जरूरत होती है या नजदीकी की। मैं पिछले 12 सालों की बात कहूँ तो मैंने बहुत से बदलाव देखे हैं लेकिन उन बदलावों को मेरी जरूरत नहीं थी, वे तो होने ही थे लेकिन वो बदलाव मेरे जीवन पर भी गहरी छाप छोड़ते हैं तो मैं क्या छोड़ रही हूँ?

ये सवाल मेरे लिए भी सुने-सुनाये नहीं थे या मैं अपने बने-बनाये समीकरण से इसका जवाब नहीं दे सकता था। क्योंकि अगर ऐसा होता तो मैं वो कह पाता जो मैं अपने घर के पास होते बदलाव या शहर मे होते बदलाव को अपने घर मे नहीं महसूस करता। क्या ये बदलाव होने और मेरे साथ होने मे फ़र्क होता है? मेरा होना जरूरी नहीं है लेकिन मेरे साथ होना तय है। ये क्या रेखायें खींचते हैं? जैसे मेरे एक और साथी ने एक सवाल किया था मुझसे जो बिलकुल ऐसा ही था। उसने कहा था, जिस स्कूल मे हम बस्ता लेकर जाते है, पढ़ने के लिए, वर्दी पहनकर। रोज जाते हैं। लेकिन स्कूल छोड़ने के बाद मे हम उसी स्कूल मे आज जाये हाथ मे कैमरा लेकर तस्वीरें खींचने के लिए तो क्या नज़र होगी हमारी?

ये सवाल बहुत छोटा था पर इसका आधार गहरा था जो आज समझ मे आ रहा था। हम अपनी जगह से, जहाँ पर हम रहते हैं उससे क्या नाता बनाकर रखते हैं जिससे कुछ जगहें नज़रअंदाज हो जाती है? ये नजदीकी और दूरी का रिश्ता क्या है? बदलाव से और होने या न होने से।

दिन का अंत यही सोचते-सोचते हुआ लेकिन नज़र फिर से उस सड़क पर चली गई जहाँ से ये बस्ती पूरी नज़र आती है। अपने मे खोई हुई और अपनी ही आवाजों मे गुम सी हुई।

लख्मी

No comments: