नीचे वाली सिढ़ियों से ही गीतों की तेज आवाजें आनी शुरू हो गई थी। लगता था की चार से पाँच जनों की पूरी टोली है। सबसे तेज आवाज़ हारमोनियम और ढोलक की थी। साथ ही साथ औरतों के तेज गीतों की। गला भर्राया हुआ सा मालुम हो रहा था। गीत कौन सा गाया जा रहा है वे समझ में नहीं आ रहा था। मगर तेज संगीत की धूनों के कारण उस आवाज़ में भी मधुरता के कण सुनाई पड़ रहे थे। कभी खाली संगीत ही सुनाई पड़ता तो कभी खाली गीत ही सिढ़ियों से ऊपर चले आते। ढोलक की हर थाप पर घूंघरूओ की आवाज़ भी उस भर्राई आवाज़ का साथ देती हुई चली आती।
वे सभी गीत-संगीत अभी के लिए नीचे वाले घर में ही रुक गए थे। वहीं पर आवाज़ घूम रही थी। ये एक बहुत ही टूटी सी बिल्डिंग है, सरकारी क्वॉटरों की। अस्पताल में काम करने वालो को दी गई थी। चार मन्जिल और सिढ़ियाँ कमबांइड बड़ी और चौड़ी। जिनपर कभी तो साड़ी बैचने वाले, तो कभी बच्चो का चूरन बैचने वाले घुसे चले आते हैं और आज ये मिरासियों कि महफ़िल, टोली समीत यहाँ की बेजान दीवारों में गीतों की वर्णमाला डालने चले आये थी। गीतों में बिखरते शब्द बस, गुहार ही थे। उसके साथ में मनोंरजन की बहार भी।
सिढ़ियों से ही वे लोग नज़र आ रहे थे। ऊपरी मन्जिला में रहने वाले लोग सिढ़ियों पर खड़े होकर देखने की कोशिश करते कि आखिर ये माज़रा क्या है कि चित्रहार सिढ़ियों में अपनी बहार लगाये है। लोगों का झुंड सिढ़ियों की मुंडेरियों पर जम गया था। लोग इस तरह से मुंडेरियों पर लटके थे की नज़ारा पूरा आँखों में उतर जाये। 'कहीं कोई नाच तो नहीं रहा, कोई ठुमक तो नहीं रहा, कोई थिरक तो नहीं रहा।' आखिर में इस मनोंरजन का भी मजा क्यों ना लिया जाये। ऐसा मौका बार-बार थोड़ी मिलता है। इसलिए आँखे बिना नीचे आये वहीं से देखना चाहती थी।
वैसे यहाँ के लोग बेहद इन्टेलिजेन्ट हैं, भीड़ करने पर विश्वास नहीं रखते। भीड़ में शामिल होने पर भी। ये लोग हाईसोइटी के जो हैं। बन्द कमरों मे रहना, हमेशा दरवाजा बन्द करके, जहाँ पर दरवाजे की घंटी का काम दिखाई देता है। अगर पड़ोस के घर में कुछ हो रहा हो तो ये बिना बुलाये देखने भी नहीं जाते। सामने वाले घर में कोई नाच भी रहा है तो अपने घर की किचन की खिड़की से सब कुछ देख लेगें लेकिन वहाँ उस माहौल में हिस्सेदारी नहीं दिखाते। ऐसा करने से सोइयटी थोड़ी फीकी पड़ जायेगी। यहाँ पर भी उस महफ़िल में बस, अपने दरवाजे से ही देखना चाहते थे। वहीं पर खड़े सब कुछ पाना चाहते थे। नहीं तो वापस अपने बन्द दरवाजो में खाली आवाज़ सुनकर ही जी लेगें और अगर इनको पता चल जाये की जो महफ़िल नीचे वाले घर के सामने लगी है वो थोड़ी देर में इनके दरवाजे पर भी होगी तो बस, चेहरे के भाव ही बदल जाते हैं। उसके बाद तो शरीर की भाषा में ऐसी हलचल आ जाती है की, ये सब इनके लिए बेकार का ड्रिरामा लगने लगता है और ज़ुबान पर होता है कि "ऐसा तो हम रोज़ ही देखते है।" अब चाहें उस महफ़िल में कोई भी गीत गुनगुनाया जा रहा हो वे सब पहले की ही प्रेमगाथा बनकर रह जाती है। चाहें उसमे नये शब्द हो या नये अन्दाज़, सब के सब पुराने किलों की तरह जम जाते हैं।
चलों, यहाँ तो दुआ से अभी ऐसा कुछ नहीं था। टोली का काम नीचे के दरवाजे से ख़त्म हो गया था। अब वो अपने मे गुनगुनाते हुए ऊपर की सिढ़ियाँ चड़ रहे थे। हारमोनियम और ढोलक की थाप दोनों एक साथ में चली आ रही थी और उनके साथ में गीतों में मचलती आवाज़े झूम रही थी। घूंघरू की हलचल अभी के लिए रुक गई थी। दूसरी मन्जिल कमरा नम्बर 135 का उन्होनें दरवाजा खटखटाया, वैसे तो गीतों की आवाज़ों से पूरी बिल्डिंग चौकन्नी हो गई थी। बस, खटखटाना इसलिए जरूरी था कि जो गीत इस वक़्त में गाया जा रहा है वो किसके नाम पर सपूत है? दरवाजे पर जैसे ही खट-खट हुई तो बाहर खड़े उन सभी के शरीर में जैसे बिजली सी उतर आई हो। गीतों की आवाज़ से लेकर संगीत की धून तक सभी में तेजी उतर आई थी। ढोलक की एक थाप लगी और गीत उस भर्राई आवाज़ में तैर गया।
दरवाजे पर एक लड़की थी, वो इन पाँचो जनो को देखकर वहीं पर खड़ी अपने घरवालो को आवाज़ लगाने लगी। उसकी आवाज़ भी बाहर में गाये जा रहे गीतों की आवाज़ों में खो गई थी। मगर, घर की दीवारों ने उसकी आवाज़ को ज़्यादा वज़नदार बना दिया था। अन्दर घर में से एक आदमी बाहर आकर खड़ा हो गया और उन्हे देखने लगा। उनके सामने पाँच जने थे। एक के गले मे हारमोनियम लटका था तो दूसरे के गले में ढोलक टंगी थी। दोनों के मुँह में लाल रंग की लाली छलक रही थी। माथे पर काले रंग का बड़ा सा टीका लगा था और हाथ अपना काम बड़ी बेफिक्री से कर रहे थे। खाकी कुर्ते में दोनों एक ही कंपनी के मुलाजिम लग रहे थे और सबसे आगे ख़डी थी तीन औरतें। तीनों ने घाघरा चौली पहना था अलग-अलग रंग का मगर तीनों मे ही छोटे-छोटे शीसे जड़े थे। एक औरत ने अपने शरीर पर सफेद रंग का दुसाला डाला हुआ था और दूसरी ने अपने गले मे एक थैला लटकाया था और हाथों मे घूघंरू लेकर बजा रही थी। दुसाला ओड़े औरत अपनी बड़ी मोटी और भर्राई आवाज़ में गीत गा रही थी। इन तीनों में से तीसरी की उम्र थोड़ी कम थी। उसने गुलाबी रंग का घाघरा चौली पहना था जो बेहद चमक रहा था। उसी ने अपने पाँव मे घूंघरू पहने थे। जो बस, बीच-बीच में थाप के साथ में उछल पड़ती थी। उसी को देखने के लिए सिढ़ियों की मुंडेरी पर भीड़ लटक रही थी।
गीत गा रही वो मोटी भर्राई आवाज़ वाली औरत के माथे पर काले रंग की मोटी सी बिन्दी लगी थी। उसका चेहरा बेहद भारी व बड़ा था। उसके चेहरे पर कई रंगो का मेकप था। आँखों की आईब्रों से लेकर कानो तक लाल और सफेद रंग की छोटी-छोटी बिन्दियाँ बनी हुई थी। गाल और ठोडी पर काले रंग की तीन एक साथ बिन्दियाँ बनी थी। आँखों मे काला और ये भारी काज़ल भरा हुआ था जिसके कारण उसकी आँखें लाल हो चली थी। नाक मे भारी व मोटी नथ थी और कान मे बड़े-बड़े पीतल के कुंडल थे। गले मे मेटल का भारी सा हार था। हाथों मे कलाइओ से लेकर कांधे तक उसने बाजूबन्द पहने हुए थे। वे उस लिबास मे बेहद भारी लग रही थी। उसके साथ-साथ उसकी आवाज़ उसके उस रूप को और भी मजबूत बना रही थी। किसी भी गीत को उसकी आवाज़ मे सुनने का मतलब था की कभी ना भूलाया जायेगा। अगर गीत याद न रहा तो ये बात तय रहेगी कि उसका चेहरा और रूप कभी दीमाग से ओझल नहीं होगा। उसी से ये वक़्त और महफ़िल यादों में किसी खूटी से टंगा रह जायेगा।
उन्होनें अपने गीत में मकान मालिक का नाम दोहराते हुए उन्हे खुश करने की कोशिश की। मकान मालिक अपना नाम उनके गीत मे सुनकर चौंक से गए। 'उनके गीत में मेरा नाम कैसे आया?' इस टोली ने इतना बेहतरीन माहौल बना दिया था कि उन्हे ये तक याद ना रहा था कि उनका नाम उनके ही दरवाजे पर लटकी तख़्ती पर लिखा है।
“राजा राम जी सवारी पँहुची रे इंद्रलोक"
जिनको लगा मीठे लठ्ठुओ भोग।
राजाराम मकान मालिक का ही नाम था। वे उनकी तरफ़ मे चौंकते हुए देखने लगे। राजाराम जी पंत अस्पताल मे ही काम करते हैं। वे वहाँ वॉडबॉय हैं। हालाँकि अब उनकी उम्र बॉय की नहीं रही। चवालिस साल के हो गए हैं। उन्हे वैसे इन गीतों मे बेहद मज़ा आता है। वे उनकी तरफ में देखकर मुस्कुराये और उन्हे घर मे बुलाने का फैसला लिया। वहीं दरवाजे पर बैठने का इशारा करते हुए वे अन्दर चले गए। मंडली ने उनका इशारा पाया और वहीं चौखट पर ही बैठ गई। बस, माहौल में इस वक़्त मद्धम हारमोनियम कि ही आवाज़ आ रही थी वो भी खाली एक ही हाथ चल रहा था। हारमोनियम की आवाज़ जैसे इस वक़्त माहौल को पम्प कर रही थी। कमरा उसी आवाज़ मे इतना सुहाना बन गया था कि जैसे सफ़र मे हो और विविधभारती चल रहा हो। कमरे मे केवड़े अथवा मुगरे के फूलों की महक भर गई थी। पाँचो टोली के लोग वहीं चौखट पर ही बैठने की अजेस्टमेन्ट कर रहे थे। राजाराम जी अन्दर कमरे में से पानी का जग भर कर बाहर आये और उनकी तरफ मे देखकर मुस्कुराने लगे। उनके चेहरे पर एक चमक थी। सबको पानी पिलाया और वहीं उनके साथ में लगे सोफे पर बैठ गए। उनकी बीवी और उनकी तीनों बेटियाँ उनके साथ मे ही आकर बैठ गई थी। टोली की आँखें इस समय मे पूरे कमरे में घूम रही थी। कभी कमरे में घूमती तो कभी सामने बैठे इस घर के मालिकों पर।
“अरे आप तो चुप हो गए, कोई गीत सुनाइये।" उनकी बीवी ने कहा।
“कौणसा गीत सुनना है थारे को, बीन्दड़ी।"
“अपने जी ने अनुसार कोई सा भी सुना दो।"
उन्होनें पीछे बैठे हारमोनियम वाले से कुछ आँखों में इशारा किया और हारमोनियम की धून शुरू हो गई। साथ में बैठी मे वो गुलाबी घाघरे वाली लड़की खड़ी हो गई और एक बार फिर से उस भर्राई आवाज़ मे कोई बेहद तड़कता लोकगीत बाहर आने लगा। इसमे उसके शब्दों को जानना या समझना कोई जरूरी नहीं था। पहली चार लाइन बेहद धीमे थी। जैसे ही उन लाइनों मे हल्की की रुकावट आई तो बस, ढोलक की दनादन थाप लगनी शुरू हो गई। यहाँ पर थाप लगी और वहाँ वो गुलाबी घाघरे वाली लड़की के पाँव जमीन में दबादब पड़ने लगे। वे वहीं पर हल्का-हल्का घूम रही थी। जब वो घूमती तो लगता जैसे उसके घाघरे का झोल भी उसके साथ में थिरक रहा है। गीत के साथ-साथ मे उसके होंठ हिल रहे थे। वो घूमती -घूमती राजाराम जी के किचन मे चली जाती और फिर बाहर आ जाती। वो तो बस, थाप पर दबादब कूद रही थी और बार-बार घूम जाती, अपनी चुनरी को अपने हाथों से कभी तो दायें तो कभी बायें करती, फिर घूम जाती, कभी घूमती-घूमती बैठती और फिर झटके से खड़ी हो जाती, फिर से अपनी चुनरी को पकड़ घूम जाती।
उनकी चौखट तो अब तक भर चुकी थी, देखने वालो की भीड़ दरवाजे पर जमा हो गई थी। सभी अवधारणाये तोड़कर लोग राजाराम जी की चौखट पर खड़े महफ़िल का आन्नद ले रहे थे। सभी मे उचक-उचक कर देखने की लालसा नज़र आ रही थी। आँखें जिसे खोज रही थी वो तो किचन में नाच रही थी। गीत में लय और संगीत में कसक इतनी जोरदार थी कि पाँव अपने आप जमीन से उठने लगते। ये नाच सभी में क्यों आ रहा था? ये सवाल बहुत बड़ा अथवा गहरा था। मगर इस हालात में किसी भी सवाल को सोचने का मतलब था की आप महफ़िल की मदहोशी से बेहयाई कर रहे हैं।
गीत काफी लंबा था, गाने और संगीत बजाने वालों के चेहरे पर पानी की बूंदे छलक आई थी। वो घूंघरू बजाने वाली के हाथ सुर्ख लाल हो गए थे। इतने मे एक बहुत ही मोटी आवाज़ में गीत शुरू हुआ। ये आवाज़ उन टोली मे से किसी की नहीं थी। वे आवाज़ राजाराम जी की थी, जो आज अपनी ही धुन में थी। पानी का ग्लास हाथ में पकड़े राजाराम जी बेहद मदहोश थे। दरवाजें पर खड़े सभी लोग मुस्कुरा रहे थे। उनकी बेटी बहुत खुश थी। राजाराम जी उस मोटी भर्राई आवाज़ वाली औरत के मुँह की तरफ देखते हुए गीत गा रहे थे। चेहरे पर गीत के साथ मे चलते भाव थे। कभी मुस्कुराहट के तो कभी कहीं खो जाने वाले, अपनी आँखें बन्द करके वो एक लम्बी लय को अपने मुँह मे छेड़ जाते।
ढोलक की थाप उसी तरह से बज रही थी जैसे अभी तक बुदबुदा रही थी। माहौल में इस जरा से बदलाव से रोमांच और बड़ गया था। अब टक्कर बराबर की थी। एक ऐसी टक्कर जो बेहद लज़ीज़ थी।
राजाराम जी कैसे इस अस्पताल की लाइन में आ गए थे ये सोचना नगवारा था। इससे पहले वे कई महफ़िल की शान से कम नहीं थे। अपने चार दोस्तों के साथ मे ये निकले थे लड़को और लड़कियों मे कला भरने। मगर खाली वे गीत जिनको कोई गाता नहीं हैं, कोई उनके पीछे दीवाना नहीं है। वे गीत कहाँ है? ये भी पूछना किसी के लिए जरूरी नहीं होता। अपनी इसी धून से निकलने के बाद मे ये इसी अस्पताल मे डेलीवेज़ का काम किया करते थे। जो कभी होता तो कभी नहीं होता था। जगंलो मे जाकर अपने गीतों को बहुत तेज़ आवाज़ में गाया करते थे। जहाँ पर लोग बड़ी जोर-जोर से हँसते थे वहाँ पर ये अपने गीतों मे खोते थे। इनका रिश्ता गीतों के साथ बिलकुल ऐसा ही था जैसे साल के एक महिने मे सपेरे अपने साँपो को आज़ाद छोड़ देते हैं कभी उनकी ख़बर नहीं लेते उसके बाद मे उन्हे दोबारा पकड़ते हैं, जहाँ पर छोड़ा था वहीं पर जाते है। लेकिन वो वहाँ नहीं मिलते।
यही इनका हाल था, अपने काम और उसकी टेंशन से जैसे ही बाहर आते तो बस, कहीं गायब हो जाते। किसी को नहीं मिलते। ये उन दिनों मे खोते, गायब होते और फिर से उस दौर मे पँहुच जाते जहाँ से इन्होनें खुद को निकाला था। ये होना खाली काम और समाजिक ज़िन्दगी मे ही कायम था, कला के साथ मे इसका रिश्ता डगमगाया था।
आज जैसे फिर से वो महिना था जिसमे इन्होनें खुद को आज़ाद छोड़ दिया था। उनकी लड़की उस गुलाबी घाघरे वाली लड़की के साथ मे नाच रही थी। कभी उसकी मुद्रा के साथ मे अपने शरीर को ढाल लेती तो कभी उससे कोसो दूर हो जाती। ये सिलसिला जारी था। राजाराम जी के लिए ये दौर किसी भी अवधारणा से कसा हुआ नहीं था।
जो कदम बाहर दरवाजे पर खड़े उनको निहार रहे थे वे कमरे मे आ गए थे। उनके गीतों मे कोई बीते सवाल का घेरा नहीं था। बस, माहौल मे कैसे उस लज़ीज़ स्वाद को बरकरार रखा जा सकता है वे था। उनकी बीवी तो बस, ये सोच रही थी कि अब पड़ोस मे होती बातों को कैसे समझेगी? कैसे लोगों को ये बतायेगी की उनके पति में ये कहाँ से और कैसे आया?
ये दौर ना जाने कितने तरह के भाव चेहरे पर बना रहा था और राजाराम जी का वो गीत ख़त्म ही नहीं हो रहा था। शायद यहाँ कोई चाहता भी नहीं था की वो कभी ख़त्म भी हो।
लख्मी
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