सवाल किसी और का - जवाब कोई और देता है शहर इस मूलधारा से हम को बनाने और रचने की बहुत गहरी ताकत लिए चलता है। हर वक़्त हमें कोई अपने सवालों और कल्पनाओं से बुनने की कोशिश करता रहा है जिसकी पुष्टी करते हैं शहर की छाती पर लगे तमाम बोर्ड, माथे पर लिखी लाइनें, पाँव पर चिपके स्टीगर और हाथों में थामे अनेकों पेम्पप्लेट। हर वक़्त बिना कोई गहरी आवाज़ लिए चीखते हैं - चिल्लाते हैं और अपना दवाब प्यार से थोपने को कह डालते हैं।
इन्ही चीख-पुकारों के पीछे कई आदेश छुपे होते हैं। आदमी कब-कब शांत खड़ा दिखता है? आदमी को शांत देखने की कोशिश करने वाले हम हमेशा उसे किसी न किसी उत्तेजना के शिकार बना देखते हैं। असल में हमें उसका अहसास नहीं उसकी स्थिती नज़र आती है। आदमी बैठा है, खड़ा है, लेटा है या चल रहा है या फिर हिल रहा है। लेकिन हर वक़्त वो किसी न किसी बैराग में है। वो ज़िन्दा है।
बेबाक अन्दाज़ में हम अगर कहे तो जब शांत होता है, बैठा हो या चल रहा होता है तो भी वे कई बिन आवाज़ के आदेशों की धीमी धुनों पर नाच रहा होता है। इन डाँस में कोई सवाल नहीं होता हाँ, अगर होता है तो बस, रिएक्शन और उसमे शामिल कई अद्धछुपे जवाब। हर इंसान अपने साथ ऐसे ही कई अनकेनी जवाबों का शोर लिए चलते हैं।
हमारी हर स्थिती किसी न किसी सवाल का उत्तर ही बनती है। हर वक़्त किसी न किसी ऐसे सवाल का जवाब शहर की सड़क पर बिखरे पड़े होते हैं जिसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता। क्या हमें पता है की हर रोज़ घर से निकलने के बाद शहर हमसे क्या पूछता है? और हम उसका जवाब कैसे देते हैं?
कोई किसी को कुछ बोल नहीं रहा मगर फिर भी किसी से मुख़ातिव है।
लख्मी
1 comment:
achh hai. thori bhasha aasan hoti to sadharan pathak bhi padh pate.
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