Saturday, January 23, 2010

तकनिक को पहनकर सोने के जमाने आ गये।

मेरे ख़्यालों की मलिका
रात भर जागा बनाकर
इंटरनेट को खटोला मन का

झाँकता रहा पूरी रात बनकर
कोई संत, की शायद गूगल विन्डों से कहीं मिल
जाये कोई मंत्र

दूर संचार भी दूर था
थी सूचनाओं की मच्छलियों की घूसपेठ
मेरे मन के बाज़ार में
मिल जाये कोई तो तंत्र

इस चोर बाज़ार में
जहाँ बसा सकूँ कोई अपनी चिंगारियों का बसेरा
वहाँ किसी की अनूमती न हो
हो बे-लगाम मेरी सोचों का सवेरा

इस बेबाक सफ़र में
न कोई लक्ष्य न कोई मंजिल
अन्जान है यहाँ हर हमराही हमारा
गली-गली में लगे चिन्ह वापसी के
दिखाया लाईव ज़िन्दगी का
तामाशाबिन नज़ारा

कोशिश तो बहुत की, कि धरलूँ टिम-टिमाती जूगनूओं को
पर न था हताशा को ये गवाँरा
थे तार उलझे-उलझे मेरे किस्मत के
खत्म कर दिया वारलेस सिस्टम ने
नये जमाने के मॉडम आ गये
तकनिक को पहनकर सोने के
जमाने आ गये।


राकेश

3 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया है.

ravi ranjan kumar said...

थोड़ा अशुद्धियों पर ध्यान दें. कविता अच्छी है.

ravishndtv said...

अच्छी कविता।