Tuesday, February 10, 2009

एक ख़त खुद के नाम

सन 2005
दिल्ली, 110062

इस ख़त की शुरूआत सन 2005 में हो चुकी थी मगर इसमे आने वाले हर अल्फ़ाजों को बाहर आने का रास्ता आज मिल पाया था। इसमे मौज़ूद हर अल्फ़ाज मेरी बेबेसी की कहानी कहते हैं जिसे और अब अपने अन्दर रखने की हिम्मत नहीं है मुझमें।

मैं इस ख़त की शुरूआत कर रहा हूँ। अपनी उस ज़िन्दगी से जो मैं कभी अपने से बाहर नहीं निकाल पाया। एक डर रहा और एक आस।

कुछ भी पहले जैसा नहीं है। सब कुछ बदलता जा रहा है। ये जो आज मेरे साथ हुआ वो पहली बार होने वाला वाक्या नहीं है। जैसे-जैसे वक़्त बितता जा रहा है मैं अपने दिमाग मे कई यादें जमा करता जा रहा हूँ। जिनसे भी मैं मिल रहा हूँ या जिससे भी मैं बातें कर रहा हूँ वो किसी न किसी कारण मेरी यादों में जमा होते जा रहे हैं। हर दिन मेरे साथ में कोई न कोई नया रिश्ता अपने कदम बढ़ा लेता रहा है। इस बात का तो बिलकुल भी अफ़सोस नहीं है और न कोई गिला है मुझे। ये तो बहुत ही खुशी की बात है। तन्हाइयों को बाँटने में और अपनी पहचान बनाने में जीवन के कई साल लग जाते हैं पर फिर भी हम कभी रिश्तों में मुक्म्मलित तरह से परिचित नहीं हो पाते। ये उसके लिए मेरे जीवन में बहुत अनमोल था। लेकिन फिर भी मुझे डर क्यों है? एक ऐसा डर जिसके होने या न होने कोई फ़र्क तो नहीं पड़ने वाला था मुझपर या मेरे जीवित शरीर पर मगर फिर भी धड़कन कभी-कभी अपनी रिद्दम से तेज भागने लगती है।

आज जब मैं अपनी ज़िन्दगी को पलट कर देखता हूँ तो कई लोग मुझे अपने आसपास नज़र आते हैं जिनसे मैं अपनी यादें और अतीत बना पाया हूँ। जो सब मुझे साफ़-साफ़ नजर भी आते हैं पर जो नज़र नहीं आते वो कहाँ है? जो दिखता है उसी को मैं अपनी खुशी ज़ाहिर कर लेता हूँ पर जब मैं वापस पलट के देखता हूँ अपने आज के समय में तो भी कोई नहीं दिखता। क्या यहाँ पर मुझे दोबारा से रिश्ते बनाने होगें? क्या हर बार हम दिमाग को साफ़ कर देते हैं?

इसके बारे में मुझे हाल ही में मालूम हुआ। ये तो एक खेल है। इस खेल को रितियों का नाम देकर मजबूरन करना पड़ता है। जिसमे जीवित या मृत्य दोनों ही भागीदार बनते हैं। बाकि तो सब यहाँ पर चूसा हुआ माल है। जिसमे दोबारा रस़ भरने की उम्मीद तो नहीं मगर आस पर उसे छोड़ दिया गया है।

दिन के पोने बारह बज़ रहे थे। आज के दिन धूप बिलकुल नहीं थी। दोस्त की लाश घर के आगे रखी थी। ये कोई पहली बार देखने वाला नज़ारा तो नहीं था। उसकी लाश पर रोने वालों की कमी नहीं थी। उसके पाँव पकड़कर रोने वाले आज उसको छ़ोडना ही नहीं चाहते थे। किसी अपने नज़दीकी की ज़ुदाई बहुत ही बैरन होती है। रह-रहकर खाती है। उसी को आज सभी महसूस कर रहे थे। पहली नज़र में उसी देख भी नहीं पाया था मैं। सोच रहा था की उसके पास जाकर बैठू तो कहाँ? अगर उसके सिरहाने पर बैठूगाँ तो वो मुझे देख नहीं पायेगा और अगर उसके पाँव की तरफ मे बैठूगाँ तो उसको बूरा लेगा। बस, उसी को खड़े-खड़े मैं देखे जा रहा था। वक़्त इस तरह से सुलघ रहा था उसके सिरहाने में रखी अगरबत्ती हो जो धीमे-धीमे मिट रही थी। मुझमे और मेरी यादों में वो खुशबू नहीं थी की आज उसतक पहुँचा सकूँ। मैं रो नहीं रहा और न ही इतनी ताकत थी मुझमे की किसी रोने वाले को चुप भी करा सकूँ।

अब उसे उठाने का वक़्त आ गया था। इस बार मैंने सबसे पहले अपने कदम बड़ा दिए। जब मैं उसे उठा रहा था तो इक पल के लिए भी मेरे हाथ नहीं कांपे थे। उसके सिरहाने वाला डंडा मैंने अपने काँधो पर उठाया हुआ था। हम उसके घर से आधा किलोमीटर दूर चले आये थे। शमशानघाट सामने ही था। मैं चलता जा रहा था और जब सामने वाली सड़क को देखता तो लोग हमें देखकर अपने हाथ जोड़ लेते और दो-दो कदम हमारे साथ में चल पड़ते। शमशानघाट के कुएँ की एक चौकी पर उसे उतार दिया गया। उसके शव को वहाँ पर रखकर सभी उससे तीन-तीन कदम दूर हो गए। उसके नज़दीक अब सिर्फ उसके पिता जी ही रह थे और बाकि तो उसके लिए वहाँ आई किसी भीड़ से कम न थे। उसे अभी भी वैसा का वैसा ही वहाँ रख हुआ था। एक पंडित वहाँ पर कुछ बोलता तो वहाँ आये उसके घर के कुछ बुर्ज़ुग अपना कुछ कहते। इसी बातों में वो वहाँ पर वैसा ही
8लेटा हुआ था जैसे किसी को जानता ही नहीं है।

अब उसको अपने से कहीं दूर भेजने की क्रिया शुरू हो गई थी। उसके पिता जी ने एक मटके में पानी लिया और उसके चारों ओर चक्कर लगाने लगे। मटके को अपने काँधो पर उठाये वो उसके चक्कर लगाने लगे और थोड़ा-थोड़ा पानी जमीन पर गिराते भी रहे। ये उसको मोक्ष के लिए तैयार किया जा रहा था। ताकि वो अपने साथ मे किसी भी रिश्ते कि महक भी लेकर ना जाये। जो उसने यहाँ पर लिया वो चाहें किसी की खुशबू हो या महक वो सब यहीं पर उसे धो दिया जायेगा। पंडित जी हर चक्कर के नाम का मंत्र पढ़ते और कहते की "जो पाया वो यहीं पर रह जाये। सारे रिश्ते-नाते और सारे नियम वो सभी तुम्हारे लिए छोड़कर जा रहा हूँ मैं।"

ये उसके शब्द थे जो पंडित जी के मुँह से निकल रहे थे। अब उसे उठाकर अन्दर ले जाया जा रहा था। शमशानघाट के नियम के अनुसार उसे मोक्षस्थल पर लिटा दिया गया। लोग अब भी रो रहे थे। लेकिन अब क्यों जब की अपने रिश्तों और नातों को तो वापस लौटा चुका था। अब 'राम नाम सत्य' की आ‌वाज़ें लगनी बन्द हो गई थी। 'राम नाम' का जाप अब बिलकुल बन्द था शायद राम का नाम लेना अब यहाँ किसी के बस का नहीं था। उसके वहाँ पर कदम रख दिया था। मोक्षस्थल को साफ़ किया जा रहा था। उसके पिता जी लकड़ियों का एक बंडल बना रहे थे और उसके भाई वहाँ मोक्षस्थल की जमीन को साफ़ कर रहे थे।

लकड़ियों पर उसे लिटाया हुआ था। घी, कपूर, समाग्री, कलावे, लकड़ियों का चूरा, सिन्दूर व हल्दी सभी निकाल कर रख दी गई थी। धीरे-धीरे करके पंडित जी जैसा-जैसा कहते जाते उसके पिता जी वैसा ही करते। एक थाली में कपूर की ज्योती जलाई गई। थाली में पड़े सिन्दूर और हल्दी को घोल कर टीका बनाया गया जिसे उसकी अर्थी की लकड़ियों पर लगया जा रहा था। उसके पिता जी बिलकुल शान्त से वो सब करते जा रहे थे। थाली को लेकर एक चक्कर लगाते और उस लकड़ियो के बन्डल में आग लगाते। आखिरी सफ़र शुरू था। सभी उसके नज़दीक आ गए थे। सभी को मालूम था की आखिरी में क्या होता है? मैं भी उसी की तरफ़ में बड़ा। पंडित जी एक तसले में काफ़ी सारे लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकडे लेकर आए और सभी ने एक-एक लकड़ी का टुकडा अपने हाथों में उठा लिया था। मैं भी उसी के साथ में वो सब करता जा रहा था। अपने हाथों में लकड़ी का टुकडा लिए खड़ा हो गया। अर्थी में मुखागनी देने से पहले सभी उसकी तरफ़ में बढ़ते और उन लकड़ियों को उसकी अर्थी पर डाल देते और हाथ जोड़कर पीछे की तरफ़ में हो जाते। मंत्रो का जाप चालू ही था। जिसमे होता की हम आज भी तुम्हारे अपने है और हमारा ये प्यार रखले। अपने हिस्से का प्यार और रिश्ता सभी उसके ऊपर से वार रहे थे। ये आखिरी था रिश्ते का वारना उसके बाद तुम हमारी ज़िन्दगी में एक याद बनकर ही रहोगे। जो हमेशा ताज़ा रहेगी।

सभी ने अपने हिस्से का प्यार और सौगात उसके सपूत कर दी थी। जैसे किसी मेहमान के विदा होने पर उसके हाथों में कुछ रख दिया जाता है। अपनी याद को ताज़ा रखने के लिए। मगर शायद ये ज़्यादा दिन तक ज़िन्दा नहीं रहता। उसके किसी और दौर में जाने के बाद में वो भूली-बिसरी कहानी हो जाती है। जिनको गढ़े मुर्दे कहा जाता है। बहुत ही दूर चले गए थे सभी। बस, दूर से ही उसके जलते शरीर को देख रहे थे। लकड़ियों से निकलती आग की लपटों में वो नज़र भी नहीं आ रहा था। इतनी तेज भाप थी की आग सभी को पीछे धकेल रही थी। उसके जलने के बाद जैसे सारे नाते अब ख़त्म हो चुके थे। पंडित जी अब भी वहीं पर खड़े थे। वो जिस अर्थी में उसको लाया गया था उसमे से किसी मजबूत डंडे को निकाल रहे थे। थोड़ी देर के बाद में उन्होंने एक लम्बा और बहुत ही मजबूत डंडा निकाला और उस जलती आग में दे दिया। वो शायद कुछ निकाल रहे थे। डंडा मारते और लकड़ियों को खिसकाते हुए उन्होंने उसके सिर को निकाल दिया था। फिर उन्होंने बहुत ही जोर से उसके जलते सिर में उस डंडे को घूसा दिया था। वो सिर टूट गया था उसका एक हिस्सा तो बाहर की तरफ भी निकल आया था तो उन्होंने उसे उसी डंडे से अन्दर की तरफ में खिसका दिया और यहाँ बाकि लोगों के पास में आकर खड़े हो गए।

मेरे साथ मे खड़े लोग उसे देखकर हाथ जोड़ रहे थे। कोई कह रहा था की वैसे तो सिर किसी-किसी का अपने आप ही चटक जाता है मगर इसका नहीं चटका। बहुत प्यार करता था ये अपने परिवार को जो उसकी यादों को अपने साथ मे ले जाना चाहता था। मगर ऐसा हो नहीं सकता इसे जाना तो बिना यादों की है। नहीं तो पिछले जन्म की यादों मे ये ठीक-ठाक दिमाग नहीं ले पायेगा। उसके सिर को टूटते ही सभी उसकी तरफ में आगे बढ़े और अपने हाथों मे एक-एक पत्थर उठाया और उस जलती चिता की तरफ में अपनी पीठ करके उस पत्थर को अपने सिर से पीछे की तरफ में फैंक देते।

ऐसा सभी कर रहे थे। उसके घर वाले भी। मेरे हाथों मे एक नहीं कई पत्थर थे। क्योंकि मेरे साथ उसकी एक याद नहीं थी। काफ़ी सारी यादें तो ऐसी थी जिसे घंटो बैठकर बातों में दोहराया था हमने। पंडित जी ने उसके सिर पर तो डंडा मार कर उसे यादों से और चेहरो से मुक़्त कर दिया था मगर हमारे सिरो में डंडा कौन मारेगा? ये चेहरा जो हमारे दिमाग मे बसा है और यादें जो दिल मे समाई है उसे कौन मुक़्त करेगा? क्या कोई उपाए है हमारे लिए। कितने पत्थर फैंकता मैं? वहाँ पर ऐसा कोई भी नहीं था जिसमे ये रितियाँ न की हो और न ही कोई ऐसा था की जिसने ये पत्थर न फैंका हो। वो अब भी जल रहा था। वो किसी के साथ न आ जाए इसका डर था यहाँ पर हर किसी को। ये क्या नितियाँ थी। मरने के बाद में सभी अच्छे हो जाए है ये उसके घर के सामने गाया जा रहा था। मगर यहाँ पर ये डर था कि कहीं वो पीछे न चले आये।

उसके पिता जी पत्थर फैंक नहीं पा रहे थे। वो पत्थर को उठा नहीं पा रहे थे। अब आकर रोये थे वो। एक ग्राम का वो पत्थर उनके लिए कई किलो के बराबर था। उस पत्थर को अपने ऊपर से वारना आसान नहीं था। उसका भाई बहुत रो रहा था। "पिता जी हमारा भईया गया हमें छोड़कर अब वो नहीं आयेगा" कहता हुआ बहुत जोर से रो रहा था। उसके पिता जी वो पत्थर फैंक नहीं पाये थे। सभी चले गए थे वहाँ से अब तक। खाली पंडित जी उसके पिता जी को समझाने में लगे थे।

मेरे हाथों के पत्थर मेरे पास ही थे। आज कोई भी ऐसा काम नहीं था जो मैं बहुत विश्वास से कर पाया था। ये खेल था जिसमे मैं अकेला ही खेल रहा था। मगर इसमे भी मैं हारा ही था। खूद से।

तुम्हारा...

लख्मी

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