Saturday, February 14, 2009

एक महीम लड़ाई

अपने नज़दीक किसी वस्तु घटना अथवा बात को दोहराने की नज़र खाली उसको बताना या उसके साथ रिश्ता बनाना ही नहीं होती। दोहराना किसी चीज़ के विवरण और उसकी गाथा को बतलाने तक सीमित नहीं है। वे अपना एक नक्शा खुद से बनाता है जिसमें कई ऐसी चीज़े भी अपना स्थान बना लेती हैं जो उससे काफी दूरी पर है अथवा उससे कोई नाता भी नहीं रखती।

दोहराना अपने साथ होते नाते को बयाँ करना नहीं होता। वे अपनी रेखाएँ खुद से पैदा करता है। जो रिश्ते अथवा दूरी को प्रकाशित करने की डोर बनता है।

मेरे घर की सभी चीज़ें जिसके साथ में मेरा व्यवहार और जरूरतों के हिसाब का बेजोड़ नाता है। उसकी मौज़ुदगी मैं अपनी यादों से, बीते हुए कल के दृश्यों से बयाँ कर सकता हूँ पर उस हालात में वो मौज़ुदा चीज़ मेरे नज़रिये में क्या रूप लेती है? क्या मेरी यादें अथवा कोई नक्शा जो उसके आधार पर बन गया है?

दोहराना ये मौज़ुदा वक़्त के माध्यम अपना मेलजोल जता पाना तथाता और समर्पण से जुदा है। न तो इस विवरण में भाग्यनुसार चित्र होते हैं और न ही हथियार डालकर उस चीज़ को अपना अहसास समर्पण करने के जैसा होता है।

मेरी आँखों के साथ हर चीज़ का टकराना एक नया ही रास्ता बनाती है। हम जिस भी वस्तु और उसके साथ में बनते अपने रिश्तें को दोहरा रहे हैं वे महज़ उस वस्तु के रूप और आकार को ही नहीं बना रही बल्कि उसके साथ-साथ मेरे साथ हो रहे हर शब्द के मिलन से मेरे किसी वक़्त को बना रही है। जो उस वस्तु के दोहराने से उत्पन्न हो रहा है।

किसी भी कहानी या चीज़ को दोहराने मे उसके पिछले रूप के साथ में बहस और किसी नये आकार की मांग होती है। हम दोहराने में असल में दोहराए जाने वाले पल में कुछ नया फूँक रहे होते हैं। जैसे- हर कोई किसी एक ही कहानी या चित्र तो जब भी अपनी ज़ुबान पर लाता है और किसी को सुनाता है तो उसने दोहराने वाले के अपने शब्द जोड़ने कि संभावनाएँ भी शामिल होती हैं। कहानी व चित्र अलग-अलग ज़ुबान पर आते ही अपने आकार में नये शब्द भर लेते हैं फिर वो किसी एक की कहानी नहीं रहती।

दोहराना कभी-कभी किसी चीज़ को खींचना भी होता है। ये खींचना लम्बा-चौड़ा करना नहीं होता। जैसे- हमारे सामने दादा-दादी के माध्यम से कई कहानियाँ घूम रही हैं। आपने कभी देखा है किसी दादा या दादी को कहानी सुनाते हुए, एक कहानी जिसे रोज़ सुनते हैं लेकिन कैसे जब तक बच्चे को नींद नहीं आती तक दादी उस रोज़ सुनी कहानी को खींचती है। वे उसमे क्या भरती है?

ऐसे ही दोहराना, कभी ताज़ा करना, कभी याद रखना, कभी याद से लड़ना तो कभी भूल न जाना की लड़ाई करता है। ये वे दुनिया है जो दोहरा सकती है। वे लोग हैं जो अपने किसी न किसी रूप को, वक़्त को दोहरा रहे हैं। कभी डर के साथ तो कभी भड़ास के साथ लेकिन इन लोगों के अलावा वे लोग भी हैं जिनके पास दोहराने के लिए कुछ भी नहीं हैं? दोहराना शब्द क्या ताकत देता है? ये ताकत किस चीज़ की है?

दोहराना जैसे बोलना और ख़ामोशी के बीच घूमता है। लोग भी उसी बीच की दुनिया हर वक़्त रचते हैं। किसी का दोहराना ख़ामोश हो जाये तो वे क्या है? उस जीवन को या उस शख़्सियत हम कैसे सोचते हैं जिनके पास दोहराने के लिए कुछ भी नहीं है?

एक शख़्स जो दक्षिणपुरी मे जाने वाली एक सड़क के किनारे रहता है। उससे बहुत लोग बातें करते हैं। उससे ये सोचकर बातें करते हैं कि वे कुछ गज़ब ही बोलता है। न तो वे बीते हुए समय की होती है और न ही वे आने वाले कल की। वे किसी ऐसे वक़्त की होती है जो क्षणिक है, आया और चला गया। कभी-कभी वे बीच मे दो चार गानों की लाइनें भी डाल देता है तो लोग हँसी-खुशी उनके पास मे बैठे रहते हैं। वे जब भी कुछ बोलते हैं तो उसमे उनका कोई भी रिश्ता या बीता हुआ कल नज़र नहीं आता। वे उस क्षणिक अवस्था मे जीते हैं।

मैं इस चीज़ को बताने मे इसलिए उल्लासपुर्ण हो रहा हूँ क्योंकि जिस जीवन को, याद को या अनुभव को अपनी ताकत कहते हैं वे सब यहाँ पर आकर फैल हो जाते हैं। दोहराना शब्द किस जीवन या समय से ताल्लुक रखता है?

वहाँ उस माहौल में बैठने वाले हर शख़्स के साथ उस आदमी का रिश्ता खाली बातों से पनपता है जिसमें बोलने वाला वे अकेला ही है। लेकिन सुनने वाले सारे लोग अपने-अपने बीते दिनों को दोहराने मे कभी पीछे नहीं हटते। दोहराने मे हम आने वाले समय को कब बोलते हैं और बीत चुके समय को कब? कोई सब कुछ ख़त्म करके आया है उसका अहसास क्या होता है?

उस माहौल मे दो तरह का दोहराना है। लेकिन असल मे दोहराना क्या है? हम अपने अनुभव को और बीते समय मे झेले पलों को अपनी ताकत मानते हैं। लेकिन उसे कैसे सोचे जिसके पास मे ये दोनों ही नहीं है? उसकी चुप्पी और बोलना क्या होगा? उस समाजिक माहौल मे दोनों अपनी जगह बनाते हैं फिर भी एक महीम लड़ाई है।

लख्मी

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