कल सुबह जो हुआ उस घटना का किस्सा मेरे ज़हन में ताज़ा था। क्योंकि वो किस्सा सब को बेहद पसंद आया था।
सांप मरा हुआ था, धीरे-धीरे जब हम उसे छूने की कोशिश कर रहे थे।
जंगल में जानवरों की आवाज़ों के अलावा कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। पूरी पहाड़ी में जमीन के बीस से पच्चीस फिट नीचे बने गहरे कुँए में खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। कुँआ सूखा था जिसमें बड़े-बड़े पत्थर पड़े हुए थे और उन पत्थरों के ऊपर साइकिल थी जो दिखने में नई सी लग रही थी। हम उस दिन को कभी नहीं भूला सकें। जो हम पर कहर बनके छाया था।
मैं और मेरे चार साथी। ललीत, लख्मी, अनीश, बिट्टू। हम रोज सुबह जंगल में टहलने जाते थे। इस दौरान हम थोड़ी मटरगश्ती भी कर लेते थे। उस रोज़ हम नीम की दातून तोड़ने कुँए के पास गए तो सुबह की करारी धूप जंगल के वृक्षों को चटक भरा स्वाद दे रही थी। अनीश कुँए की तरफ गया तो उसने नीम के पेड़ की टहनी को पकड़ कर खींचा ही था कि उसकी नज़र कुँए के अन्दर गई और वो चिल्लाया, "लख्मी, ललीत, राकेश अबे जल्दी आओ देखो क्या है यहाँ?"
उस का बौख़लाता चेहरा देखकर हम भी उस तरफ भागे। कुँए कि मुंडेरियो पर से जब हमने नीचे झाँका तो एक नीले रंग की साइकिल कुँए में पड़ी थी जिसे देखकर हम भी उछल-कुद करने लगे। दिल में लालच भरे ख़्याल आने लगे। क्या करते कुछ पाने की खुशी में कुछ सूझ नहीं रहा था। हम चारों ने सलाह की कि क्यों न इस साइकिल को बाहर निकाला जाये। पर सवाल ये था की कुँए में जायेगा कौन? हम कुँए के अंदर जाने की लिए एक-दूसरे को मनाने लगे। राजी होने के बाद भी एक और बात थी की सबसे आगे कौन चलेगा? कुँए को देखकर सबके होश फ़ाकता हो रहे थे।किसी को तो अन्दर जाना ही था तो मैं, ललित और अनीश कुँए के भीतर उतरने को तैयार हो गए।
कुँए की दीवार में बनी मोटी दरारों में से चिटियों का झुँड गुज़र रहा था। उसे देखकर हमारी साँस फूलने लगी। कहीं ये चिटियाँ हमारे कपड़ों में घुस गई तो भागना भी मुश्किल हो जायेगा। लाल पत्थरों के बीच कुछ गहरे मोटे-मोटे सुराख़ जिनके भीतर पंछियों के घोसले बने हुए थे। जब हमने नीचे जाते हुए उन घोसलों मे हाथ लगाया तो उस कुँए मे से जैसे ढ़ेरों कबूतर और छोटी-छोटी चिंडियाएँ उड़कर बाहर आकर ऊपर से चली गई। तेजी से उड़ने की आवाज़ से घबराहट होने लगी। जब हम कुँए में पँहुचे तो साइकिल हमारे एकदम नज़दीक थी। हम सब कुँए की छ: फिट चौड़ाई और लम्बाई के बीचो-बीच खड़े थे। साइकिल को जैसे ही मैं उठाने के लिए लपका तो जैसे आवाज़ गले में फँस गई। "क्या हुआ रे।" अनीश ने पुकारा। हाथ काँप रहे थे। आँखों की पुतलियाँ फैलने लगी। ललित और अनीश मेरे पीछे ही था बाकी सब ऊपर। इतने में लख्मी ने भी आवाज़ लगाई कुछ मिला क्या?
जहाँ हम खड़े थे वहाँ लाल पत्थर जमा हुए थे। लगा था किसी ने वर्षो पहले इस कुँए को लाल पत्थरों से भर दिया हो। उन लाल पत्थरों में वो दबा हुआ था जिसके कारण मेरी आवाज़ तक न निकली थी। पत्थरों में आँख ठीक से उसे देख नहीं पाई। अनीश ने कहा, "सोच क्या रहा है जल्दी करो वरना कोई आ जायेगा।" मैंने अपना हाथ वापस खींचा और कहा तुझे ज़्यादा जल्दी हो रही है न तो तू ये काम कर। "अनीश अबे फट्टू हट पीछे।"
जब वो साइकिल की तरफ हाथ बढ़ाने लगा तो उसका भी वही हाल था जो मेरा हुआ था। "साँप-साँप-साँप, भागो-भागो।" वो इतना जोर से चिल्लाया की हम सब बैचेन हो गए पर हम जब खुद को बचाने की कोशिश कर रहे थे तो देखा की साँप तो वहीं है जहाँ वो पहले था। हम सब यही सोच ही रहे थे। इतने में।
"ये हिलता क्यों नहीं" अनीश बोला।
"मैं भी वही सोच रहा हूँ।"
साँप का मुँह हमारी तरफ ही था लग रहा था की जैसे उसे पता नहीं की हम उसके आसपास ही खड़े हैं। "क्या ये ज़िन्दा है? साइकिल के चक्कर में आज जान से हाथ धो बैठेगें। निकलो यहाँ से।"
"लेकिन कैसे पाँव हटाये वो सामने हैं। अगर जरा और आहट की तो बचे-बचाये मारे जायेगें।"
"पर वो हिल क्यों नहीं रहा। लगता है बेहोश है बेचारा।" ललीत ने कहा।
"तो जाके मदद करदे उसकी।"
मैंने कहा, "क्या भाँग खाई है जो साँप से पँगा लूँगा। साँप किसी का दोस्त नहीं होता। अब करें क्या? कुछ तो सोचो।"
"सोचना क्या जब ओखली में मुँह दिया तो मूसले से क्या डरना।"
मैंने साइकिल की तरफ दोबारा हाथा बढाया तो साँप की आँखें मुझ ही को देख रही थी। मैंने वापस हाथ खींचकर ललीत से कहा,"यार लग रहा है की ये साँप जाग रहा है।"
ललीत ने कहा, "नहीं, तो क्या सो रहा है अबे जल्दी करो।"
"साँप के आगे से कौन माई का लाल बच सका है जो हम बचेगें। फिर भी कोशिश करो जो भी करों फटाफट करो भाई मेरी साँस फूल रही है।"
साइकिल को चुपके से उठाने के लिए हम तीनों ने साइकिल को पकड़ा फिर हाथ वापस खींचा। साँप हमें घूर रहा था। हमारे और साँप के बीच तीन फिट का फासला था। हमने उसमे एक कंकडी उठाकर मारी मगर वो नहीं हिला फिर दोबारा हमने उसमे कंकडी मारी वो नहीं हिला, हिलता भी कैसे? साँप तो मरा हुआ था। पर शुमसान जगह में जमीन के ऊपर जितना डर लगता है उससे कहीं ज़्यादा जमीन के अन्दर लग रहा था। साँप को तो हटाना ही था तो हमने जी कैड़ा करके साइकिल को हटाने की एक और कोशिश की काँपते हुए मन में सवाल आ रहा था की कहीं ये साँप काट न ले पर वो काटता कैसे? वो तो मरा हुआ था। कुँए के अन्दर हवा भी साँए-साँए करती हुई पत्थरों में समा जाती। "यार कहीं साँप उठ न जायें और उठ गया तो काट लेगा। लेकीन साँप काटता कैसे? साँप मरा हुआ था।
जैसे-तैसे तीनों ने साँप से लोहा ने की ठानी। अपने शरीर में फूँक भरकर जब मैंने बालों में हाथ फैरकर हिम्मत जटाते हुए साँप से बचते हुए साइकिल को धीरे-धीरे से अपनी तरफ किया तो ....मेरी नज़र साँप पर पड़ी और मन मे सोचा अगर ये साँप ज़िन्दा होता तो अभी हम तीनों को सबक सिखा देता। जहर के मारे हम कुँए में ही दम तोड़ देते अगर साँप काटता तो। मगर वो काटता कैसे? साँप तो मरा हुआ था।
मगर मन माने तभी ना, हमने साइकिल के टायर को जोरों से हिलाया ताकि साँप उठकर भाग जाये। पर वो तो जरा सा भी नहीं हिल रहा था। हमने साइकिल को एक तरफ से उठा लिया था ताकि साँप उसके नीचे दबे तो भाग जाये पर वो तो वहीं पड़ा था। वो वहाँ से जाता भी कैसे वो तो असल मे मरा हुआ था।
इस मसले का एक हल है। अगर साँप को हम यहाँ से बाहर निकाल दे तो साइकिल भी आराम से निकल सकती है।
ललित ने कहा, "लख्मी से कोई चीज़ मँगवाओं जिसमें ये मरा हुआ साँप डालकर ऊपर भेजा जा सकें।"
जैसे भी करके लख्मी ने कपड़ों और पन्नियों को जोड़कर रस्सी बनाई और नीचे फैंकी। वहीं पास में लकड़ी से हमने साँप को फिर से छेड़ा उसका मुँह हमारी तरफ हिला। अनीश ने कहा, "संभलकर जरा कहीं काट न ले पर हम फिर से भूल रहे थे कि वो काटता कैसे? भई साँप तो मरा हुआ था।"
कुँए मे हमसे डर कर सारे पंछी उड़ चुके थे। हमारी मौज़ूदगी हमें ही डरा रही थी। उस साँप के ऊपर गहरे केसरी रंग के निशान बने हुए थे। लगभग वो छ: फिट लम्बा तो था। हम तीनों को लपेटने के लिए काफी था। उसके मुँह से हल्की सी जीभ बाहर दिख रही थी। दिमाग मे फिर से वही दौड़ा अगर हमने उसे तंग किया तो फिर से ही दिमाग का फितूर बाहर निकल आया कि वो काट लेगा पर वो काटता कैसे? साँप मरा हुआ था।
धूप की चिलमिलाती रोशनी हम पर पड़ रही थी। जिससे हमारी परछाई हमें बनी हुई दिख रही थी। साँप को बाहर निकालने के लिए रस्सी में उसे बाँधा। उसकी चिकनी चित्तेदार चमड़ी में सलवटें सी पड़ने लगी कहीं ये ज़िन्दा हो गया तो हमें काट खायेगा पर वो काटता कैसे? साँप तो मरा हुआ था।
लख्मी ने फिर ऊपर से आवाज़ लगाई, "अबे कुछ हुआ?”
अनीश चिल्लाया, "यार बार-बार कुछ हुआ-क्या कुछ हुआ क्या चिल्ला रहा है? नीचे आकर देख न क्या क्या नहीं हो रहा। डर के मारे मेरा दिल बैठा जा रहा है। नीचे ये साँप है ऊपर से तू चिल्ला रहा है। मैंने सुना है साँप मरने के कुछ देर बाद ही होश में आ जाता है।"
ललित ने कहा, "शुभ-शुभ बोलों यार। तेरी ज़ुबान काली है। कहीं ऐसा हो गया तो साँप हमें काटे बिना नहीं छोड़ेगा।"
अनीश बोला, "मगर यार सांप काटेगा कैसे? वो तो मरा हुआ है।"
इस डर ने हमें वहाँ से कुछ लेने नहीं दिया। मगर अनीश मानने वाला नहीं था। उसने पूरी साइकिल तो नहीं मगर साइकिल की गद्दी, टायर और केरियल निकाल लिए थे। मगर ये सब निकालते हुए हम यही सोच रहे थे की अगर साँप एक बार उठ गया न तो आज हमारा आखिरी दिन है। मगर साँप उठने वाला नहीं था क्योंकि वो तो मरा हुआ था।
राकेश
No comments:
Post a Comment