Saturday, February 21, 2009

मन में बहते लोग...

हम बहुत सी कहानियों के बीच में रहते हैं। बल्कि रहते आ रहे हैं। कई कहानियों में तो हमें ये तक नहीं मालूम होता है कि जिस कहानी में हम घूम रहे हैं उसमे हम कितने ऐसे लोगों से मिल रहे हैं जिनकी तस्वीर भी हमने आजतक नहीं देखी।

हमारे बीच में कई ऐसी शख़्सियतें घूम रही हैं जो महज़ कहानियों में बसती हैं। खिलती है, जज़्बा दिखाती हैं, नई दुनिया दिखाती हैं और फिर शब्द ख़त्म हो जाने के बाद में कहीं गायब हो जाती हैं। ये वे शख़्सियते हैं जिनको हर शख़्स जैसे अपने अन्दर ही लेकर चलता है। जिससे वे कभी खुद को बतलाता है तो कभी किसी ऐसे दृश्य को बयाँ करने की कोशिश करता है जिसे वे कब का अपनी कल्पना में कर गया है।

कहाँ हैं वे लोग? और कौन है वे लोग? ये सवाल सब एक वक़्त को उठते तो हैं लेकिन कुछ ही देर के बाद में पूछने के लायक नहीं रहते। मेरे होने से पहले की कुछ कहानियाँ, मेरे बाद में अपनी जगह बनाती हैं।

मैंने सुनी है कई ऐसी कहानियाँ जो महज़ उदाहरणों के लिए सुनाई गई हैं। जिसमें आते लोगों से मैं कभी नहीं मिला। अपने घर में और बाहर कई लोगों की ज़ुबान से कई ऐसे शख़्सों के बारे में सुना है जिनको आज के वक़्त में जब खोजने निकलता हूँ तो वो मुझे कहीं नहीं दिखते। ऐसे ही लोगों से ये दुनिया भरी हुई है। जो सुनाने वाला शख़्स खुद से तैयार करता है और पिछले वक़्त या उस शख़्सियत को बताने की कोशिश करता है जो वो खुद में कभी जी नहीं पाया था। मुझे ऐसा लगता है। हमारे इर्द-गिर्द लोग कई ऐसी शख़्सियतों से भरे हुए हैं।

माँगे लाल जी सुनाते हैं, "भईया, होली से दस या बारह दिन पहले ही हमारे यहाँ गलियों में खूब लोग आया करते। कहीं अलग ही जगह के हुआ करते थे वे। हम तो उन्हे जानते भी नहीं थे और न ही हमारे यहाँ का कोई उनसे परिचित हुआ करता। लेकिन उसके बावज़ूद भी सारे बड़े बुर्ज़ुग उनकी तरफ दौड़ पड़ते। उनके हर काम में अपना हाथ जरूर बँटवाते। वे घर-घर जाकर सभी के घर और परिवार के बारे में बताया करते और घर के किसी बीमार या सबसे प्यारे आदमी या फिर बच्चे का नाम पुकारते और फिर एक गीत चालू करते। सभी उसे सुनने के लिए खूब आया करते। गली-गली भीड़ लग जाया करती। हमें तो इत्ता पता है कि वे हमारे यहाँ के नहीं होते। खूब लम्बे-चौड़े और हाथों में लम्बे-लम्बे डंडे लेकर वे घूमते। पूरा एक महीना वे अपने को हर घर मे घूमा लेते और आखिर में एक लीला करते उसके बाद में सब ख़त्म। वे आदमी-आदमी ही हुआ करते थे। सबके सब शादिशुदा होते लेकिन बाल-बच्चों को पता नहीं कहाँ छोड़कर आते थे। एक ही महीने मे वे आदमी सबके दिल से लग जाते। हर कोई उनके मुँह में घर के सबसे प्यारे आदमी का नाम लिवाकर गीत गवाते और खुश होते। एक महीना जैसे सभी सारे सब कुछ भूल जाते हो। उसके बाद में वो गायब हो जाते और साल भर के लिए जैसे सब ख़त्म हो जाता।"

ये लोग या मंडली कहाँ है? या ये है भी या नहीं? इन सवालों को सोचना इस कहानी के मुँहजोरी करने के समान होगा। लेकिन जो बन्दे इस कहानी के जरिये निकल आए उन्हे कहाँ देखें? कभी-कभी हमें कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं जिनमे हम खुद को देखने लगते हैं और उस शख़्सियत से प्रभावित होकर एक कहानी बनाने लगते हैं। एक ऐसी कहानी जिसका अंत और शुरूआत हमारी इच्छाओं से बनी होती है। जिसमें हम खुद ही झूम रहे होते हैं। दोहराने में मज़ा और अपने पाठकों के साथ में ऐसे रूप को बाँटने की तमन्ना होती है जो अपने अस्तित्व के होने की माँग नहीं रखता। असल में हम अस्तित्व को इतना कठोर बना दिये हैं कि उसमें अपनी मनगढंत कहानियों अथवा उन शख़्सियतों के लिए जगह बची ही नहीं है जो हवा में बनती हैं लेकिन जमीन से जुड़ी होती है। इन कहानियों के जरिये असल में कहने वाला किसी चेहरे को या जीवन को नहीं बल्कि खुद को ही रच रहा होता है। उस गैर शरीर उसका गठन और उसकी दिनचर्या में आने वाला हर एक दृश्य सुनाने वाले की कल्पना से रचा होता है। ये जीवन है या कह सकते हैं जीवन रचने का तरीका।

एक शख़्स बेहद याद आ रहे हैं। वे मुझे आज से छ: साल पहले मिले थे। उस समय मैं एक एसटीडी की दुकान पर बैठता था। वहाँ पर वे रोज आते थे। फोन करने को नहीं बल्कि बतियाने के लिए। न जाने कितनी बातें भरी थी उनमे। हर रोज़ कुछ न कुछ बात लिए वे दौड़े चले आते थे। साथ-साथ हाथ में कुछ न कुछ जरूर होता था। कभी उनके हाथ मे कोई फोटो एलबम होती तो कभी किसी का राशन कार्ड तो कभी कपड़े की थैली तो कभी किसी चीज़ की रसीद। वे आते और टीवी ने कुछ देखते ही शुरू हो जाते।

जैसे आखिरी बार जब मिले थे तो कह रहे थे, "मैं अभी पिछले दिनों एक डिस्को गया था। दरअसल मेरी एक बहुत ही करीबी दोस्त का जन्मदिन था तो मैं उसके लिए कुछ तोहफा तलाश रहा था। मिला ही नहीं कहीं तो मैं एक डिस्कों मे घुस गया। वहाँ गुप अंधेरा था। लेकिन शौर बहुत था। लोग नज़र नहीं आ रहे थे। बस, डिस्को लाइट ही कभी-कभी वहाँ नाचते हुए लोगों को दिखा जाती रही। जहाँ पर बार बना हुआ था वहाँ पर रोशनी थोड़ी ठीक तरह से पड़ रही थी और वहीं पर कुछ फूल रखें हुए भी नज़र आ रहे थे। तो मैं थोड़ा स्टाइल बनाके चलने लगा। बनाना पड़ता है, नहीं तो सबको लग जायेगा कि ये यहाँ पर पहली बार आया है और गलती से घुसा है। तो मैंने जॉकिट के आगे की चैन खोली, हाथों को मस्त जैब में डाला और स्टाइल से गया। बोला, 'वन ग्लास बीयर प्लीज़' वो मेरी तरफ देखते हुए बीयर बनाने लगा। मैंने तभी वहाँ से एक गुलाब का फूल निकाल लिया था। मगर फिर सोचा जब यहाँ आ ही गया हूँ तो क्यों न थोड़ी देर रुका जाए। नाइट लाइफ के मज़े लूटे जाए। मैं वहीं अंधेरे में कुछ ढूँढता हुआ वहाँ रखे एक सोफे पर बैठ गया। उसके बाद तो तुम यकीन नहीं मानोगे भाई, मेरे साथ क्या हुआ? उसी सोफे पर मेरे साथ में दो कपल बैठे थे। एक-दूजे मे खोये हुए। पहले तो मेरे मन मे आया की मैं वहाँ से उठ जाऊँ लेकिन फिर मन में कहा की क्यों हटूँ। मैं वहाँ पर बैठा रहा। इत्ते में कोई मेरे बगल में बैठा मुझे ऐसा लगा। उसके बगल मे बैठते ही मुझे सैन्ट की भरपूर खूशबू आने लगी थी। थोड़ी देर के बाद में वो मेरी तरफ मे गिरने लगा। उस गुप अंधेरे में मुझे ये तक नहीं मालुम हुआ था की आखिर में मेरे बगल मे बैठा कौन है? ये एक लड़की थी। जिसमे भाई बहुत ज़्यादा पी रखी थी। वो मेरे ऊपर गिर चुकी थी। मैंने कैसे न कैसे उसे वहाँ से हटाया। मुझे लगा की कहीं ये मुझे अपना बॉयफ्रैंड समझकर न गिरी हो और इसके उस बन्दे ने मुझे देख लिया तो बेटा बहुत मार पड़ेगी। मैंने उसे वहाँ से हटा दिया। लेकिन वो तो अब मेरे पैरों में गिर गई थी। धीरे-धीरे मैंने उसे खड़ा किया और वो कहीं बेहोश न हो जाए इसलिये मैं उसके लिए सोफ्ट सोड़ा ले आया। उसमे थोड़ा नींबू मिलाकर। भाई उसे पीकर वो ठीक हुई। फिर तो वो मुझसे बेहद खुश हो गई। डांस के प्लॉर पर ले जाकर बोली, 'मेरे साथ डांस करो न प्लीज़' तेरा भाई तो जैसे चाह ही यही रहा था। डांस करने के लिए कितनी शादियों मे अब्दुल्ला की तरह दिवाना हुआ था। लेकिन मौका कहाँ मिल रहा था। और जब मैंने अपना डांस दिखाया तो भाई वहाँ सारे बन्दे मुझे ही देखने लगे। डीजे प्लॉर वाला तो मुझसे पूछकर गाना लगा रहा था। वहाँ सब दिवाने हो गए थे। लड़कियाँ मेरी तरफ मे डांस करने के लिए भागी आ रही थी। भाई तुम होते तो देखते। क्या मस्त और रंगीन माहौल बनाया था मैंने। सभी मुझपर दिवाने हो गए थे। वो लड़की तो पता नहीं कहाँ छूट गई थी लेकिन मुझे डांस करने मे मज़ा आ रहा था। अब तो मैं वहाँ पर कभी भी चला जाता हूँ। वहाँ का डीजे और बार वाला तो मुझे खुद बुलाते हैं।"

दुकान में जितने भी जने बैठे होते वे सब उसकी बातों में वे तलाशने की कोशिश करते जो उन्हे सच लगता। मगर कुछ ऐसे भी होते जिन्हे सच और सच्चाई से कुछ लेना देना नहीं होता। वे तो खाली उस दुनिया को सच मानते जो उन्हे उस छोटी सी कहानी में या उस शख़्स के मुँह से सुनाई देती। उससे ज़्यादा मज़े तो वे लोग लूटते जो कहानी के साथ उस बन्दे का डांस भी देखते। उनमे भी तो किसी चीज़ को दिखाने के लिए इसी कहानी की रचना की थी। वे जब 'डांस कर रहा था' ऐसा कहते तो साथ-साथ डांस भी करते। दुकान में दो-चार स्टेप मारकर वे ये साबित करते कि डांस वहाँ पर कैसा किया जो माहौल बना। लोग इनकी तरफ में खींचे। उनकी बातों को सुनकर कोई आश्चर्य नहीं होता था। वे थे ही ऐसे की जो चीज या हुनर आज दिखाना है उसको यूहीं नहीं बताना चाहते थे, वे उसको बताने के लिए कोई न कोई ऐसी कहानी का जन्म करते जो किसी ने पहले कभी किसी ने सुनी न हो। बस, लोग कुछ सीनों से ये साबित करते कि ये किस फ़िल्म का सीन है। लेकिन जो भी हो ऐसी कहानियाँ हर रोज़ पैदा होती और सुनाई भी जाती।

इन कहानियों में नज़र आते क़िरदार कहीं हो या न हो, लेकिन यहाँ ज़िन्दा हैं। कोई खुद को बताने के लिए कहानी बनाता तो कोई किसी न किसी वक़्त को मूल्य अथवा महत्वपूर्ण बनाने के लिए कहानी का जन्म करता। इन सभी में जीने की भरपूर संभावनाएँ दिखती। तरीके नज़र आते, ये दो ही लोग नहीं है जो शहर में निकले हैं कहानियाँ बनाने को या रचने को। ये शहर या दुनिया भरी हुई है ऐसे कंहकारो से, पाठक की तलाश में। कहानियों में नज़र आते लोगों से दुनिया बेहद रंगीन नज़र आती है। ऐसा लगता है जैसे काम और रिश्तेदारों की पँहुच से दूर की दुनिया है। कहानियों का जन्म और किसी क़िरदार का जन्म क्यों करते हैं लोग? और ये लोग कहाँ हैं? फिर से वही सवाल उभर आता है। इन अनेकों शख़्सियतों के बीच में मैंने खुद को देखने की कोशिश की है। कहीं तो मैं इन शख़्सियतों से मिल जाता हूँ तो कभी ये तलाश बनकर ही रह जाती है। क़िरदार तो चले गए लेकिन कितनी ही ज़ुबानों पर अपनी कहानियाँ रख गए। शायद हम भी ऐसे ही क़िरदारों में शामिल होने जा रहे हैं।

लख्मी

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