इन दिनों जीवन के बदलते दौर में
ज़िन्दगी की रफ्तार बहुत तेज हैं।
इसमे कभी तो लगता है कि ज़िन्दगी कहीं ठहर गई है,
और कभी खुद से मुलाकात ही नहीं होती है।
इस आम-ए-हाल में फूल नहीं तो क्या गम हैं,
इस चुंबन के बीच भी कुछ बातें नम हैं।
इस शहर-ए-फिज़ाओं में फूल नही तो क्या हुंआ,
पल पल कहानियों की सेज तो है।
मैं नहीं तेरे सामने तो क्या हुंआ,
जो तुझे समर्पित की, वो भेंट तो है।
भूत,वर्तमान,भविष्य की क्यों चिंता करे,
तेरे ही हाथों में तेरी तकदीर तो है।
कस ले मुट्ठी और चलाचल राही मेले में,
कहीं तो झुकेगा आसमाँ ये आवाज़ तेरे सीने में तो है।
अतीत कोई परछाई नही,
अतीत की अनंत परछाई है।
जो विचरण करती है हक़ीकत के मंज़र में,
वो खुद से जूंझ कर जीती है,
और बनाती है कल्पनाओं की रहनुमा ज़िन्दगी,
उन ज़िन्दगियो की तेरे पास कुछ तस्वीर तो है।
जो शरीर तूझे चाहिए,
वो शरीर तेरे नजदीक तो है।
वक्त वक्त से टकराता है,
वक्त को धकेलने की अदा तो तुझ पे है।
मोड़ कर रख दें इन लोहें की सलाखों को,
चट्टानों को पिघलाने की कला तो तुझ पे है।
बना दे वो समां कि तेरी परछाई जहां पड़े महफिलें जाग उठे।
वक्त की करवटों मे सोए भूत के अक्स को ले आ बाहर,
तेरे ज़िंदा ख़्यालो से रूबरू होनें के लिए,
सब तेरे अपने तो हैं।
शहर की गली,कूचों,रास्तों और आशियानों मे,
कोई अंनजान शख्स सपने सजा रहा है।
ज़रा देख वापस तेरी आँखों मे उन सपनों की चमक बाकी है।
उसने ज़मीं को स्वर्ग बनाने की शपथ ली है,
जो स्वर्ग है वो स्वर्ग आजादी है वो स्वर्ग आशियाना है।
वो स्वर्ग पालन पोषण है वो स्वर्ग ख्वाईश है वो स्वर्ग तेरा अपना स्वयं में हैं।
करदे वो उजाला की जुगनुओं की रोशनी फीकी पड़ जाये,
अंधेरो को छुपने के लिये ठिकाना न मिले,
करदे शूरू दुनियाओं का गठन करना,
इस जंगल मे नज़रों से बचना मुमकिन नहीं तो क्या हुंआ,
नज़रो से टकराने की ज़ुबां तो तुझ पर है।
जीवन की इच्छाएं जंगल में भटकती हैं,
अनंत बहुरूपिया शख्सों के बीच में,
जीने की वजह बनाने की कतार मे तू तो है।
जंगल के शिकंजों मे फंसे है तो क्या हुंआ,
फंदो के आसपास बगीचा बनाने की जिद तुझ पे है।
इंसानों मे इंसान बनकर जीनें की इबादद तो तुझ पे है।
राकेश
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