सर्वहारा रातें- किताब
हम अभिनंदन करते हैं ज़ाक राँसिएर का कि वो हमारे बीच आए। उनकी किताब "सर्वहारा रातें" जो अभी प्रकासित हुई है जिसका हिन्दी भाषा में अनूवाद हुआ है। उन्होनें हमारे साथ अपनी किताब "सर्वहारा रातें" को लेकर अपना अनुभव बाँटा। उनसे हुई बातचीत में हमे बौद्धिक ज़िन्दगी के एक दौर की रचनाओं और गुज़रे कल के पहलूओं से मुख़ातिव होना है। उनके और हमारे बीच एक मुलाकात हुई जिसमें इतिहास को नया ढ़ंग से जीना और अपनी रचनाओं को लेकर खुद की क्षमता से अपने आसपास को सींचना था। जो उनसे बातचीत में उभरा जिसमें नया जीवन या अपना जीवन तय करके जीने की आज़ादी है उसे कैसे सोचें?
शरीर और हक़ीकत के बीच जब अपनी रचना को महसूस करते हैं तो उस के बिताए गए क्षणों को एक जगह एकत्रित करके या जमा करके देखें तो प्रतिदिन का एक आकार नज़र आता है। अपने मनमुताबिक सोची गई रचनाओं के समाज की धारणाओं से टकराना होता है लगातार वे दिखता है। समाज के नियम और कानून से बने निर्देशों के तारों में फँसने के बाद भी व्यक़्ति अपने संम्पर्क के नये तार जोड़ता है।
इसी ख़ास तरह में आने वाले शख़्सों के बारे में आपको रू-ब-रू करवा रहा हूँ। जो इतिहास मे जीते 'अतीत' की कई परछाइयों को ज़हन में एकदम से उभारने वाला ख़्याल देते हैं। वो जीवन जो किसी हवा-पानी, समाज, धर्म, रहन-सहन या रिती-रिवाजों से बंधित नहीं है। उस जीने और हर पल बनने की प्रक्रिया को हम दुनिया के किसी भी कोने में देख सकते हैं, सुन सकते हैं। हर शख़्स में अपनी रचना करके और ख़्याली दुनिया बनाकर जीने की गुंजाइश होती है। वो चाहें अपना देश हो या विदेश इंसान कहीं भी हो उसका वज़ूद उसे पल-पल के समावेशों में धकेलता रहता है
जिसमें जीने की साँस लेती क्रियाएँ होती हैं। जो अपने एकान्त को किसी दुनिया में जोड़ देती है और तब अपने अहसासों को खुद से समझने और सोचने कि जिज्ञासा जागती है।
हमारी जगहों में, ज़िन्दगी में, माहौलों में वो सम्भावनाएँ हैं जो एक-दूसरे के बीच के रिश्ते को रचनात्मक ढ़ंग से जीया जाने को कहती है। जो गुज़रे कल को भी आज के दौर से वापस मिलाती है और अपने साथ लेकर चलती है।
19वीं सदी के फ्रांसिसी ताला-मिस्त्रियों, दर्ज़ियों, मोचियों कम्पोज़िटरों के जीवन-संघर्ष, सपनों और बौद्धिकता की दिलचस्प और विचारोत्तेजक कहानी कहने वाली किताब जब 1970 में पहली बार प्रकासित होते ही सर्वहारा वर्ग के इतिहास और विचारधारा की स्थापित समझ के लिए चुनौती बन गए। इस पुस्तक की अहमियत पर समय, स्थान और भाषा के फ़ासलों का कोई असर नहीं पड़ा है। ग़ैर जिंसी उत्पादन सूचना क्रान्ति और ग्लोबल बाज़ार के मौज़ूद ज़माने में भी फ़ांसिसी दार्शनिक ज़ाक राँसिएर की यह रचना प्रासंगिक बनी हुई है।
इसके पन्नों पर श्रमिक जीवन और अनुभव के जिन रूपों को पेश किया गया है वह भारत के संघर्षरत मज़दूरों के ज्य़ादा नज़दीक लगते हैं। जो अपने रोज़मर्रा के संस्मरणों को अपने सपनों में लेकर जीते और वक़्त की कालगुज़ारियों में कविता या कहानियों को गढ़ते। ज़हन में आने वाले ख़्यालों के रचनात्मक ढ़ंग को बनाकर सतह दर सतह जमा करते जातें। किताब ये दावा मोटे पैमाने पर करती है की जो किताब की रचनाओं में उभरता जीवन है वो हर एक शख़्स में मौज़ूद है, बसा हुआ है।
बस, जरूरत है तो खुद में तलाशने की। इतिहास दोहराने का ही नहीं रह गया बल्कि उसे वापस पुर्णस्थापित करके हम जीवन को आलोकिक बना सकते हैं। आज वही सब कुछ घट रहा है जिससे मिलते-जुलते हालात का सामना उन दस्तकार-मज़दूरों ने किया था जिनका ज़िक्र इस किताब में किया है।
उस समय 19वीं सदी का जो समाजिक माहौल रहा जो सामाजिक संर्धभ (ढ़ाचा) रहा वो क्या था और उसमें जीने की क्या-क्या सम्भावनाएँ रही। उस समय फ्रांसिसी मजदूरों में मोचियों, दर्ज़ियों, ताला-मिस्त्रियों कम्पोज़िटरों के यानी उस स्तर के हुनरबाजों की दुनिया रात के अंधेरों को अपने लफ़्जों, ख़्यालगोइयों, कविता और कहानियों से रोशन हो जाती।
उन रातों में जो रंग होता उसे वो अपने अन्दर लेकर जीतें। तब ये लोग अपने से टकराई गई स्थितियों और उनकी रचनात्मकता को चिट्ठियों मे उतार देते। उन चिठ्ठियों की में लिखी गई रचनाएँ समय की ख़ुर्दरी परतों को अपने कोमल और करूणा भरे अहसासों से भर देती।
जिसमें अपने शरीर के टकराव, माहौल, सम्भावनाएँ होती। जिनसे कविताएँ, कहानियाँ, किस्सा, सवाल, बहस अपना मज़ा और फलसफाएँ होते। जिसमें एक दुनिया देखती थी। जो काम के बारे में नहीं थी। किसी कानून या नियम को लेकर लड़ाई नहीं थी। न ही कोई समाजिक मुद्दा जिसके खिलाफ़ नारे या आदोलन हो। बल्कि वो दुनिया होती जिसमें वे अपनी सम्मपन्यता में जीने की इच्छा रखते। अलग-अलग कल्पना लेकर जीते हैं। जैसे वो लोग दिन के ऊजालों को छोड़कर अंधेरों में भी अपने मन की ज़्योती से अपना दायरा देखते।
उनकी अपनी बौद्धिक ज़िन्दगी का समाज उन्हे वो जगह नहीं देता था जो वो चाहते थे। क्योंकि समाज हमे जो पहचान या रूतबा बनाकर देता है हमे उसी में जीना होता है। यानी एक न्यूनतम दायरे में। इस तरह समाज हमारा कई विभाजनों में गठन कर देता है और इस गठन के तहत ही हम जीने को मजबूर हो जाते हैं। सब के साथ न चाहकर भी हमे रिश्तों- नातों, सिमाओ में सहमती में जीने की आदत डालनी पड़ती है। हम इससे कोई विद्रोह नहीं कर सकते न ही उन्होनें किया था।
किताब हमें जिस ज़मीन पर लाकर रखती है उसमें अपने जीवन को नया ढ़ंग से जीने और मानसिकता के संतुलन मिलते हैं जिसमें प्रकृति भी हमें वो जीवन के बीज़ देती है जीन से ज़िन्दगी के कुछ और बगीचें तैयार किये जा सकते हैं।
बिना किसी काम, संघर्ष या विद्रोह की भाषा बनायें हम जीवन को जी सकते हैं जैसे उन्होनें भी जीया। एक नया ज़ुबान जो वो लोगों के मुँह पे डाल गए। अपने पास आती चीज़ों को असहमति मे जीया जो जगह या अपने नैतिक अधिकार की चिन्ता किए बगैर उनसे असहमत होकर जीवन में कल्पना करके जीना चाहा। उस अदा में वो लोग रहते थे।
हमारी बातचीत जब ज़ाक राँसिएर से इस किताब में कि गई रचनाओं और मजदूर वर्ग को लेकर हो रही थी।उनका कहना था की मैने सोचा की 19वीं सदी को कैसे देखे जो आक्राईव है। देखना की उसमें क्या मिलेगा? जब वे आक्राईव मे गए तो मिला की उसमें लिखी चिठ्ठियों में कविताएँ, फलसफाएँ, सवाल, बहस, मज़ा है। जो किसी काम के बारे में नहीं है और इंसान के जीने की कसौटी पर वो आवाज़ है "हम हैं" की लड़ाई थी। तर्ज़ुबे और अपने विश्वास को साथ लेकर चलना जो उन लोगों ने अपने दम पर किया। बिना समाज के प्रोत्साहन के अपने अकेलेपन को रचनात्मक रूप से सोचा और उड़ान भरी कल्पनाएँ दी।
ये अनूभव हमने भी किया की जब हमारे बीच ये आया की हम अपने रचना खुद करते हैं। अपने लिए अपना शरीर खुद बनाते हैं जिसमें समाकर हम बौद्धिक जीवन की आशाओं को सींचते हैं। समाज हमारे शरीर को बहुविभाजनों रख देता है। इसलिये अपना दायरा देखना और समझना कठिन हो जाता है।
हमारे विचार बातचीत के माहौल को अलग-अलग दिशाओं के फाटक खुल रहे थे। जो किताब की रचना को सोचकर समझकर हमारे साथी अपने आसपास फलने वाले लोगों की दिनचर्या को लेकर किसी के अकेलेपन या एकांत में जीने वालो की दुनिया के बारे में अपना गहरा शौध रख रहे थे जिसमें देखने के फ्रेम नज़र आ रहे थे। हमारी बातचीत में कुछ बिन्दू उभरे।
हमारे साथी शमशेर अली ने कहा, "कोई है जो शरीर पाने या बनाने के लिए जद्दोजहद करता है पर दिखता नहीं है।लेकिन उस का होने का अंदेशा लगता है। वो क्या है उसे कैसे सोच सकते हैं। मेरे लिए शरीर क्या मायने हैं और वो कैसे मेरे जीवन में मायने रखता है?
राँसिएर ने कहा, "शरीर में जो आया या शरीर से जो टकराया वो बार-बार होता रहा उस रचना में एक प्रेक्टिस को रखना था। जो उन लोगों का प्रेक्टिस था। "मैं" को कैसे जगह में जीते है? "मैं" कैसे रहूँगा किसी जगह में, किसी का अपने होने की आवाज़ को रखना।"
समाज विभाज को पैदा कैसे करता है? इससे टकराकर शरीर का जीवन, अपनी कल्पनाओ को जीना। उद्देश्य, काम समाज में किसी अधिकार के संर्घष से प्रभावित न होकर एक जंग से असहमति की ज़ुबान बना कर जीना। "सर्वहारा रातों" में जो जीवन है उससे अपनी पहचान की एक अलग ही तस्वीर दिखती है। नज़रिये जो कई कल्पनाएँ हमे सर्मपित करते हैं।
स्टूडियों मे हुई बातचीत में लख्मी ने कहा, "वो जो मुझे चाहिए वो शरीर मेरे सामने हैं पर मैं अपने अन्दर उसे कैसे सोचूँ जिससे मैं अपने से दूसरों के बीच की दूरी को समझ सकूँ। जो मेरे ख़्यालों मे एक दुनिया का गठन करता है। जो मेरे सामने है उससे जो दूरी है वो हमारे बीच क्या रिश्ता बनाती है? हमारे स्टूडियों में एक साथी जिनका नाम महेश है। महेश जी हमे महीने में दो-तीन बार आकर अपनी कि गई रचनाएँ सूना जाते हैं। वो अपने घर, परिवार काम के बीच से जो जगह निकालते हैं उसी में ही हमारे लिए जगह बन जाती। वो शख़्स अपने साथ कौन सा शरीर लेकर आता है जिसके बारे में उनके जैसा ही कोई उस शरीर से रिश्ता समझा पाता है।
मैं कहता हूँ एक शरीर है जो समाज मे मिलता नहीं जिससे हटकर मुझे अपना शरीर बनाना है जो मेरी सम्मपन्यता हो। मैं इस जीवन की सम्मपन्यता से संतूष्ट नहीं हूँ तो मेरे शरीर की क्या, कैसी, कौनसी आज़ादी होगी? जिस समय मे मैं अपनी कल्पना करने लगता हूँ उससे एक आकार उभरता है मेरा आज़ादी उसी शरीर में है। उसी में मैं उड़ान भरता हूँ। बौद्धीक ज़िन्दगी सब जगह है मगर इस में जो खुद से बने ढ़ाँचे हैं। वो ही नया शब्द की नया ज़ुबान नया दायरों की समझ देते हैं। मजदूरों के हमने जो ठिकाने देखे हैं। वो घर काम सामजिक, संर्धभ के ढ़ाँचे के अलावा कुछ नहीं देखा पाते पर इस के बीच में वो दुनिया है जिसमें अपने शरीर को नये सिरे से ऊर्जा प्रात होती है। बौद्धिक ज़िन्दगी लिखना कला ही नहीं है। आप कुछ सोच रहे हैं या आपके पास कुछ हैं जो आप खुद की सच्चाई को लेकर आज़ादी है।
जिसमें अपने आप को बनाने का प्रक्रिया है जो अपने पास ही होता है। जो आपको अच्छा लगता है सूझता है वो ही लिखने की प्रक्रिया है। जीने की आज़ादी है। आप के पास अस्पष्ट कुछ है जो आप किसी दूसरे के पास ले जाते हो। ले जाने की प्रक्रिया ही यात्रा कहलाती हैं।
राकेश
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