क्या हम एक-दूसरे की तरफ धकल रहे हैं? शहर या हमारे आसपास मे ऐसी कौन सी शख़्सियत है जिसकी तरफ हम बढ़ रहे हैं? अगर मैं इस सवाल को कुछ ऐसे पूछूँ की, हम जिस रिदम मे' खुद को बना रहे हैं। अपनी कल्पना को, बौद्दिक रूप को या अपने आसपास को तो क्या हम ये अपने स्वंय के अकेले रूप को बना रहे हैं या हमारे आसपास में ऐसा कोई है जिसके जीवन मे ये सभी संभावनाएँ पहले ही खेल चुकी हैं? हम जिस माहौल में सांस लेते हैं उस माहौल में हम कई लोग ऐसे चुन लेते हैं जिसका जीवन और शैली को हम चाहते हैं। मगर सवाल यह है कि जिसकी शैली को हम चाहते हैं जिनके नक्शे कदमों पर अपना कुछ बनाना चाहते हैं जिसका पीछा करने के लिए अपना जीवन बनाते हैं। मरने के बाद हमें कोई कैसे याद करेगा, यह सोच समाज में क्या मायने रखती है?
पिछले दिनों मेरी एक शख़्स से मुलाकात हुई। वे चालीस साल के हैं। लिखने के शौकिन है। लेकिन ये शौक खाली लिखकर रख लेने के जैसा नहीं है। वे खिलता है और उनसे माँग करता है किसी ऐसे पाठक को या सुनने वाले को खोजने की जिसमे ये बीते हुए किसी वक़्त की छाप देख सकें। इसी धून मे इन्होनें कई ऐसे माहौल रचे हैं जिनमे कई पाठकों के रूप मे इनको सुनने वाले मिले हैं लेकिन ये सुनने वाले एक पल-दो पल के हमसफ़र बने। किसी महफिल मे जैसे सुना और माहौल तक ही सीमित रह गया। ये महफ़िलें असल में किसी स्टेज़ शो की ही भांति रही। एक माहौल बना और वापस अपने-अपने घरों में लौट गया। हाँ भले ही यहाँ से एक ऐसी पहचान का जन्म हुआ जो किसी चीज़ से बंधी नहीं थी। लेकिन इन माहौलों का हर रोज़ की ज़िंदगी से और नये रिश्तों से क्या मेल था?
महेश जी बत्रा अस्पताल मे काम करते हैं। गीत गाने का बहुत शौक रहा है इनको। साथ ही साथ अपने सहयोगियों के संग मे रहकर कुछ लिखने का भी। इसमे इनकी कोशिश रही है कि हम जैसा भी जीवन जी रहे हैं उसमे किस का नाम शामिल है? वो जिसने पैदा किया?, वो जिसने जीवन दिया? या वो जिसके साथ जीने का फैसला और वादा किया?
वे पिछले दिनों जब मेरे पास अपना कुछ सुनाने के लिए आते तो शरीर मे एक ख़ास ही तरह की बैचेनी होती। हाथ जैसे काँपते रहते, बार-बार अपनी कमीज की जैब से कोई तह लगे हुए पन्ने को निकालते तो कभी वापस रख लेते। उनके मुख पर हमेशा मुस्कुराहट रहती। वे जो सुनाने आए हैं उसे सुनाये या न सुनाये के वियोग मे रहते। जब तक मैं खुद नहीं कह देता की "महेश जी और सुनाइए क्या लिखा है आजकल में?" तब जाकर उनका वही पन्ना दोबारा से निकलता और सुनाने से पहले ही उसे आधा-अधूरा कहकर नवाज़ देते। उनकी कमीज की जैब मे न जाने कितने ही पन्ने मुड़े पड़े रहते। किसी पर किसी का पता, नाम, टेलीफोन नम्बर तो उन्ही मे लिपटा हुआ एक पन्ना निकलता जिसपर कोई गीत लिखा होता।
तब कहीं जाकर वे सुनाने के लिए तैयार होते। अपना गीत सुनाने के बाद मे वे उस गीत से जुड़ी न जाने कितनी ही बातें बताना शुरू कर देते। कभी लिखते वक़्त क्या माहौल था या लिखते वक़्त क्या सोच दिमाग मे चल रही थी। जो लिख नहीं पाये वे क्या रहा और क्या लिख गए वे। सब कुछ उनकी ज़ुबान पर धरा रहता। कभी-कभी अपनी बातों मे वे अपने घर और परिवार के बारे मे बोलना शुरू करते तो मेरे पास बोलने के लिए कुछ नहीं होता था। अपने घर मे चलती जरूरतों को वे हटाकर तो लिखने की दुनिया मे दाखिल होते थे। इस दाखिल होने मे उन्हे कई चीज़ों से बहस करनी होती थी तो कभी-कभी जानबूझ कर गैरजिम्मेदार बनना होता था। वे अपनी संगनी और संगत के बारे हमेशा बड़े प्यार से बताते हैं। उसमे जैसे उनको जीने के लिए बहुत सांसे मिलती हो। उसी संगत को लेखन मे भरने की चेष्टा उनमे भरी दिखती थी। बिना रूके और बिना डर के वे उस संगत को बताते। जैसे सब कुछ खुला हुआ है दुनिया मे। वापस जाने की जरूरत नहीं है। जो बीत गया वे लौटेगा जरूर पर कैसे वो उनको खुद से बनाना है। इसी धून मे वे कभी इधर तो कभी उधर चले आते। बदरपूर मे रहते हैं वे लेकिन कैसे एक गीत पूरा हो जाने के बाद मे यहाँ दक्षिणपुरी मे साइकिल पर चले आते। काम से छुट्टी होते ही वे अपनी साइकिल पर अपने काम की वर्दी मे ही चले आते। इससे उनके लिखने से ज़्यादा उनके सुनाने की तड़प पर ज़्यादा नौछावर होने को दिल करता।
उनके साथ मुलाकात करने के बाद कई चीज़ें जैसे हमारे बीच मे खुली छूट जाती। उनका सुनाना, यहाँ इतनी दूर से किसी पाठक के खोज करते हुए आना। ये तो मूल्य रखता ही था लेकिन इससे भी ज़्यादा जैसे हमारे बीच मे कुछ और चल रहा था। जिसे अभी तक हम छू नहीं पाये थे। मैं इस समय हमारे दरमियाँ कुछ दूरी देखने की कोशिश कर रहा हूँ। जो हमें एक-दूसरे की तरफ मे धकेल देता है। ये धकेलना ये नहीं था कि यही हमारा आने वाला कल था। बल्कि ये ऐसी लकीर थी जो बड़ती घर व कुछ जिम्मेदारियों के चलते उनके जीवन मे खिंच गई थी। वे उस लकीर को मिटाने बैठे थे और मैं उस लकीर को ये समझ कर डर रहा था कि ये अपने आप खिंचती है शायद मेरे साथ भी खिंचेगी। ये लकीर हमारे लिए कोई सरहद नहीं थी और न ही ये इतनी बूरी थी कि ये हमें जला देगी अगर हम बाहर गए तो। ये तो वे परत थी जो बिना देखे ही हमारे साथ हमेशा चलती रहती है। समाजिक दुनिया मे इसे सैद्धांतिक जीवन कहते हैं। जो हम बनाते नहीं है बल्कि बना-बनाया मिलता है बस, बर्कारार रखने की मुहीम मे हम अमादा रहते हैं।
वे जब भी अपनी संगत के बारे मे बड़ी सहजता से और प्यार से बताते तो मैं हमेशा उन्हे उन सभी चित्रों को लिखने की कहता। और कोशिश करता था कि वे उन चित्रों को उतने ही प्यार से लिखे भी। जितना की उन्हे उनमे सांसे मिलती हैं वैसे ही वे उसको जीवित रखें। मैं हमेशा उन्हे ये दुनिया लिखने का न्यौता देता। वो मुझे दुनिया बताते तो मैं उसे बाँटने की कहता। यही जोरा-जोरी हमारे बीच मे चलती रहती। मगर कभी-कभी वे कुछ ऐसी बातें मेरे सम्मुख रख देते जिनसे पार पाना मेरे लिए मुश्किल होता। वे कहते, "कभी था वक़्त हमपर कि हम बिना किसी चीज़ सोचे ही न जाने कितने शब्दों को उतार लेते थे। कोई टेंशन नहीं होती थी। जब देखों, जहाँ गए वहाँ के बारे मे खूब गीत लिखा करते थे। अब तो मन मे बहुत सारी चीज़ें घूमती है लेकिन जैसे ही घर वापस आते हैं तो फैमिली के चेहरों मे इतनी जिम्मेदारियाँ नज़र आती हैं कि कुछ भी करने को इच्छा नहीं होती। काम पर होते हैं तो सोचते हैं कि घर मे खाना खाने के बाद मे आराम से लिखेगें। मगर यहाँ आने के बाद मे तो जैसे सब कुछ मिटता हुआ नज़र आने लगता है। कभी बच्चों में, कभी बीवी मे, कभी रिश्तेदारी में तो कभी घर की सौदेबाज़ी मे सारा दिमाग चला जाता है।"
वे अपने घर और काम के साथ हुए समझौते को बयाँ करने की कोशिश करते हैं। साथ ही साथ अपने बौद्धियाना जीवन की कसक को कभी भूल न जाए उसी चाहत मे रहते हैं। उनके साथ मुलाकात मे यही खींचातानी चलती है। वे जब कहते हैं, "घर की जिम्मेदारी और काम की टेंशन आदमी पर नहीं होती तो वे उड़ सकता है। ये काम तो जैसे उड़ने ही नहीं देता। आपसे मिलकर हमें तो जैसे आसमान नज़र आता है।"
ऐसा लगता है जैसे उनके जीवन मे किसी ऐसी चीज़ को पकड़ने की इच्छा रहती है जो काम और रिश्तों के आसमान में किसी कटी पंतग की तरह से उड़ रही है। इनकी ज़ुबा मे बस, वे आशाओ की पतंग अभी जमीन पर नहीं गिरी। ये रिश्तों व काम से लदा आसमान रात होते ही घर के चेहरों को वहाँ गड़े तारों मे दिखाता है। जो कभी-कभी जरूरतों के बादल बनकर बरस पड़ते हैं। जैसे-जैसे अंधेरा गहरा होता जाता है वैसे-वैसे ये अपने चेहरों मे जिम्मेदारियों की चमक भर लेते हैं। तब तो जैसे कुछ भी नहीं दिखता। वे आशाओं भरी पतंग भी जैसे छुप जाती है। उनके लिए उनकी कटी पतंग को पकड़ना कोई मुश्किल काम नहीं है। तभी तो यहाँ बातों के पुल बनाने की चाहत लिए माहौल रच लेते हैं। हम दोनों के बीच मे हम दोनों के जीवन एक-दूसरे के लिए उदाहरण बनकर चलते हैं। एक जीवन को महेश जी अपने रोज़मर्रा मे बैठाने की कोशिश करते हैं तो दूसरा मैं उनके जीवन की लकींरों को खुद मे महसूस होने की कग़ार पर चलता हूँ। एक बेहद महीम सी रेखाएँ हमारे दरमियाँ चलने लगती हैं। हम उस मुलाकात को कैसे अपने से दूर या अपने मे डाल सकते हैं जहाँ पर दोनों एक-दूसरे के लिए उदाहरण बने हुए हैं।
महेश जी, बीते हुए दिनों की छवियाँ मुझमे देखने की कोशिश करते हैं और मैं उनके आज में अपने को डलता हुआ देखता हूँ। हाँ भले ही ये मेरे लिए बेफिज़ूल की सोच भरने के समान होगा लेकिन महेश जी की मुलाकात मे यही सवाल उभरता है। जहाँ मेरे लिए वे एक ऐसे सवाल की भांति दिखते हैं जो कलाओ या बौद्धियाना जीवन के चित्र बनने की ताकत रखते हैं। लेखन या अपनी दुनिया रचने की तमाम चाहते किसी ऐसे ब्लैकहॉल की तरफ़ मे दौड़े जा रही हैं जो हमने खुद से बनाया है। ये गलत भी हो सकता है। लेकिन कई बौद्धियाना महक इस दुनिया की पड़ोसन बनी हैं। आज जो महेश जी बना पाए हैं वे उनका खुद का रचा गया जीवन है। उन्ही रिश्तों-नातों, घर व जिम्मेदारियों के बीच मे रहकर तैयार हुआ है। खुद के साथ हमेशा खुद को तराशने की कोशिश और नये आयामों के साथ मे माहौल रचने की चाहत ही हम दोनों के बीच की दूरी को मार देती है।
ये मुलाकातें उनके साथ मे मेरे को आने वाले कल के लिए तैयार करती और महेश जी के लिए शायद बीते हुए उस वक़्त को पकड़ने की उंमग भरती जो आज भी आसमान मे तैर रहा है। अभी जीवित है, तभी तो उड़ान मे है। बस, खाली किसी पाठक और ऐसे चेहरे की तलाश मे है जिसमे खुद के स्वरूप को देखने की चाहत पलती है।
लख्मी
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