Wednesday, February 4, 2009

सहमति की ज़ुबान

कल मेरी दोस्त बुशरा से फिर मुलाकात हुई, इस बार उसकी ज़ुबान में सहनशीलता थी। कई बातों से सहमति और कई बातों मे आश्चर्यजनक इच्छा भी। उसकी सहमति पूरी तरह से किसी भी बात को मान लेने वाली राह न थी। इस सहमति में कई आशाएँ छुपी थी जिसमे आने वाली संभावनाये विरोध मे भी जा सकती थी और अपनी ज़ुबान मे लौक भी हो सकती थी।

सहमति में चलने वाला दौर, ज़्यादातर बहुत चीज़ों को अपनाकर जीता है। जो अपने अपनाने को खुला छोड़ देता है। जिसमें अपनाने वाली चीज़ कभी भी अपना रूप बदल सकती है। ये न तो संधि होती है, न ही राज़ी होना और न ही कबूल करना। इन शब्दों में नज़र आने वाली छवि बेहद पैक होती है। इसके रूप के साथ बहस और संभावनाये घूम नहीं सकती। ये हम अक्सर मानकर चलते हैं।

सहमति में ऐसा नहीं होता। सहमति कई तरह की आशाएँ और संभावनाये खोले रखती है, बदलती है, बोलती है, ताना कसती है, छेड़ती है, पैक होती है तो कभी अपने ही जीवन के तर्क जोड़ देती है। कबूलना, संधि और राज़ी होना न मानकर भी किया जाने वाला फैसला बनकर उभरकर आता है जिसमे बदलाव की अन्य गुंजाइशे बाकी नहीं होती।

शब्दों के इस खेल में शख़्सियतें नाचती हैं। अपना आशियाना बनाती हैं जो इन शब्दों से रूप पाती हैं।

बुशरा की एक दिक्कत है वो अगर कोई बात छुपाना भी चाहे तो भी नहीं छुपा पाती। उसके शब्दों से उसके चेहरे के भाव मेल नहीं खाते। अकेले हमेशा किसी न किसी चीज़ को खोजती रहती है और शब्द लिखते हुए ज़ुबान का कोई छोर बना लेती है। उसकी आँखों की बैचेनी में ऐसा लगता है जैसे हर वक़्त कोई तलाश चलती रहती है। वो अपने मन में सवालों को रख नहीं पाती। सवालों के साथ रिश्ता कहकर-जवाब पाना नहीं होता। ये आसपास को बनाते हैं और आसपास उसको बनाता है। ये दो अलग तरह के चित्र जुड़ाव रखते हैं।

सवाल, अपने नज़दीक चलते माहौल में उतारने और उससे पार पाने की नइया नहीं है। सवाल उसके नज़दीक और बेहद नज़दीक बनाते माहौल और आसपास को बनाने वाले दौर बनते हैं। जो अपने में सभी कुछ खींचकर कोई आकार बना डालते हैं। कुछ सवाल अपने लिए भी होते हैं पर सवाल कभी बेचित्र नहीं होते। बस, फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि उनमें चेहरे बदलते रहते हैं।

ये छुपाना उसके बस का नहीं है। अगर छुपाना भी चाहे तो भी छुपा नहीं सकती। ये उसकी फित्तरत और अंदाज में शामिल नहीं है। भले ही वो जब अपने माहौल या चुने हुए कोनों मे वापस चली जाती होगी तो उसकी छवि का नाता उसकी फित्तरत और अंदाज से कोई जुड़ाव नहीं रखता होगा। मगर ये सोचना अपनी बात की माफी माँगने के समान होगा। फित्तरत और अंदाज में कई भाव बेरंग और बदरंग होते हैं। जिनका जिक्र हमें दूर किनारों मे फैंक देता है। जहाँ से वापस लौटना मुश्किल होता है। क्योंकि उसकी दूरी का अनुमान लगाना बेहद कठीन है।

उसकी ज़ुबान में बैचेनी कुछ तलाश रही थी। वो बोली, “ये छुपाना क्या होता है?, छुपाना हमें क्या बतलाता है?, क्या इसका कोई सही मायना है? क्योंकि मैं जो सोचती हूँ और आसपास में देखती हूँ वो इसे गहराई मे डाल देता है।"

ये कहकर वो चुप हो गई, थोड़ी देर के बाद में फिर से बोली "हमारे यहाँ, बस्ती के बाहर से कई रैलियाँ निकलती हैं। हर बार नई ही भीड़ देखने को मिलती है। कभी रैलियाँ तेजी से निकल जाती हैं तो कभी कहीं पर रूकी सी रह जाती हैं। नया ही शौर बस्ती के बाहर लगा दिखाई देता है। लेकिन इन सब में ये 'छुपाना' शब्द मेरे दिमाग में अटक जाता है। कई बार बाहर बस्ती के सामने से निकलने वाली रैलियों में हमारी बस्ती को छुपा दिया जाता है। सामने से निकलते समय एक बड़ा सा पर्दा लगाकर बस्ती को ढ़क दिया जाता है। क्या मैं इस छुपाने को समझ सकती हूँ? हमारा अस्त्तिव कहाँ है? हम जिस जगह के लिए सारा झगड़ा करते हैं, लड़ते हैं, हक माँगते हैं ये सब किसके लिए है? एक टाइम के बाद मे ये बस्ती भी विस्थापित कर दी जायेगी तो हम किन शब्दों मे बोलेगें कि बस्ती का रूप ये है? खाली काग़जात ही हमारी पहचान है, लेकिन जब हमारे पास काग़जात होते है और घर मे कोई नहीं होता तो? ये सवाल खाली डब्बा बनकर रह जाता हैं। ये सफेद रंग का पर्दा आँखों पर छाया सा लगता है। इसको कैसे सोचूँ? हमारी बस्ती मे रहने वाले लोगों को इस बात से कोई दिक्कत नहीं है। सभी मस्त हैं, जी रहे हैं, उस पर्दे के पीछे से ये भी देख लेते हैं कि रैलियों मे क्या निकाला जा रहा है? और बड़े खुश भी होते हैं। कभी-कभी तो बहुत से लोग इस पर्दे के सामने अपनी दुकानें भी लगा लेते हैं। ये पर्दा हमारी बस्ती की आम दिनचर्रा में जुड़ गया है। वैसे कहने को यहाँ पर सोचने के लायक बहुत सी चीज़ें, बातें, माहौल और अवधारणायें हैं, उनमे ये भी अपनी जगह बना लेती है। मेरे लिए ये कभी आम सी बात नहीं बनी क्यों? क्या मैं इनसे अलग हूँ या मेरे पास वो अंदाज़ नहीं है जीने के जो सब कुछ भूलकर अपने मे खो जाते हैं।"

बुशरा की कही बात कोई उसकी जगह के लिए ही नहीं थी। ये छुपाना हो या छुपा देना। दोनों ही अलग-अलग क्यों न हो लेकिन किसी जगह या उसके जीवन के लिए ये एक ही ज़ुबान का काम करते हैं। कितने मासुम और छोटे से शब्द हैं ये दोनों लेकिन असल ज़िन्दगी में अपनी छाप को बेहद गहरा छोड़ देते हैं। हम इन शब्दों से खेल चुके हैं, अपने जीवन के उन दिनों मे जब हमें शायद इन शब्दों के मायने भी नहीं पता थे। ये खाली उस खेल की तरह से होते जो दोस्तों को आश्चर्यजनक और जमा करने के लिए कोई गुट बनाते। लेकिन ये अब खेल नहीं रहे। इनके मायने कुछ और हो गए हैं, बुशरा के जीवन मे इनके मायने बने-बनाये नहीं है बल्कि बना दिए गए हैं।

मेरे लिए जो सवाल बना वो था, हमें कैसे पता है कि हमारी जगह शहर से जुड़ी हुई है? बिना काग़जात, काम और रिश्तों को अपनी ज़िन्दगी से जोड़े हुए।

कहने को तो हम कह सकते हैं कि हमारी जगह से कई वो जगहें जुड़ी हैं जो हमारी पड़ोस कहलाती है। वो लोग जुड़े हैं जो हमें खोजते हुए आते हैं और वो कार्यक्रम जुड़े हैं जो बाहर सड़कों से गुजरते हैं। लेकिन फिर दूसरा सवाल ये बनता है कि इन सभी का हमारी जगह के होने या न होने से क्या फ़र्क पड़ता है?

हम ये मानकर चलते हैं कि हमारे पड़ोस में बसी जगहें शहर कहलाती हैं। हम भी किसी के लिए शहर हैं, इसमे ये कह देना ही काफी नहीं रहता। वे लोग जो हमें खोजते हुए आते हैं उनके साथ हमारी किसी न किसी छाप का पैमाना जुड़ा होता है। ये छाप या तो हमने छोड़ी है या मुलाकात का कोई असर कहीं ठहरा रह गया है।

छाप छोड़ना क्या होता है? इस छाप मे क्या-क्या शामिल होता है? कहते हैं हर कोई अपनी होने के सबूत छोड़ता है। दोस्तों की महफ़िलों में, रिश्तों में, जगहों में, सफ़र में हर कोई अपनी कोई न कोई छाप छोड़ता हुआ चलता है।

शायद जगहों ने भी अपनी छाप छोड़ी है, वे क्या है? हम अपनी खुद की जगहों को कैसे शहर की कगार, भागदौड़ और ठहराव मे देखते हैं? ये सवाल शायद उन जगहों के लिए नहीं बना जिनके टूटने के कोई आसार नहीं हैं। लेकिन उन जगहों मे बेखौफ़ घुस जाता है जिनके आसार रोज़ाना पनपते हैं और रोज़ाना मर जाते हैं। ये जगहें हैं बस्तियाँ जिसमे में बुशरा रहती है। वे अपनी जगह को कुछ ऐसे सवालों से देखती है। कभी टूटती है तो कभी बन जाती है। लेकिन जीने की आस कभी ख़त्म नहीं होती। यही जीने की आस शहर से उसको जोड़े रखती है। इस आस का असल में रूप क्या है वे न तो उसे पता है और न ही किसी और को। इसी रिद्दम मे तैरते रहना ही इस जगह को अपना रूप बनाने की चेष्टा देता है।

वो पर्दे के पीछे की दुनिया में जीना और पर्दे के सामने आकर अपनी दुनिया बनाना। ये जद्दोजहद चलती रहती है। यही जीवन है।

लख्मी

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