Thursday, February 26, 2009

मेरी परछाई

मेरा दिमाग, मेरा नहीं है,
इसपे किसी और का नशा दाखिल है।
जिसकी वज़ह से मेरे कदम लड़खड़ाते हैं,
मन भटक जाता है और कहानी बन जाती है।

दूसरो की तरह मुझे भी भूख लगती है, प्यास सताती है।
मैं ज़िन्दा हूँ इसलिये सीने में एक आग सुलगती है,
जिसे मैंने कब से दबा रखा है।
जिसे छिपे होने पर भी उसका नाम सब को बता रखा है।
जो मेरी परछाई का भी साथ देता है,
उसपर मेरा यकीन हर दफ़ा होता है।

मैं अपने अंदर दाखिल हो पाता हूँ,
जो मेरे ख़्याल में, स्वभाव में अपनी ज़ुबान देता है।

जिसकी सुबह की रोशनी में चाहूँ और नश्वर
और जीवन के कणों में दृष्टिकोण में प्रकृति को देख पाता हूँ।
अगर वो मेरे करीब है तो मैं उसके करीब हूँ।
तो क्या पूर्ण है?

यही तो मेरी सम्पन्न नहीं है,
वो मेरे नज़दीक है मैं उसके नज़दीक हूँ।
पर आपस में पारदर्शी रिश्ता नहीं है,
इसलिए जीने में ज़्यादा मज़ा आता है।
फिर सारी हक़ीकतों का ये रिश्ता जीवन का संबंध बन जाता है।
राकेश

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