Monday, November 3, 2008

लेखन का किनारा क्या है?

पिछले दो सालों मे मैं कई लोगों से मिला हूँ। उनके लेखन के ऊपर बातचीत मे और उनके अपने रियाज़ से बातचीत करने मे। सोचने के लिए कई सवाल मिलें, जिनमे उनकी अपनी समाजिक जीवन की बहस थी और वो दौर था जिसमे उन्होंने अपने आप को कभी तो सिकौड़ लिया तो कभी समाजिक जीवन से बहस मे लगा दिया। ये सोचकर की वे अपने रियाज़ से नाइंसाफी नहीं कर सकतें। ये उनके लिए काफी ठोस और बेहद नाज़ुक दौर रहा। लेखन की दुनिया को मिटाने के लिए या हम यूँ भी समझ सकते हैं कि किसी रियाज़ से सवाल करने के लिए जिन सवालो हमेशा एक स्थान पाने की मांग होती है। जो भी रियाज़ हम लेकर चल रहे हैं उसकी जगह क्या है? या वे कहाँ हैं? इस सवाल ने कई रियाज़ो को तोड़ दिया है। जिसमे लोग गुम हुए हैं।

लेकिन लेखन का सिलसिला अब भी रुका नहीं है। वे चल रहा है, टूटे हुए हर्फों मे ही सही, लेकिन उसका रूप है। इससे कोई सवाल नहीं है। जीवन के कुछ पल कहीं सिकुड़ तो सकते हैं मगर, वे ख़त्म हो गए वे नामुमकिन है। मेरा सवाल कुछ अलग है। लेखन- हम इसमे क्या खोज रहे हैं? क्या लिखने के तरीके, लेखन मे दुनिया, कल्पना कि दुनिया, सोच-जो निरंतन है या फिर लोग? हम क्या खोजते हैं?

हमारे पास दो डायरियाँ हाथ लगी, जिनमे दो लोगों ने अपने दिनो को संजोने के लिए अपनी समाजिक दुनिया से मेल किया था। ये वे मिलाप था जो उस शख़्स को जीने की तमन्ना देता है, उड़ान देता है, एक सांस भरता है। उसी से एक इच्छा जागी की ये दुनिया का एक और पहलू है। जो जल्दबाजी मे नाक के नीचे से निकल गया है या फिर इसे लोगों ने अपने जीने का अवशेष मानकर कहीं रख लिया है। दिनो को अपनी ज़िन्दगी मे दोबारा दोहराने के लिए। अपने रिश्ते, काम व उनमे होते सवालो को अपने से पुछने के लिए। जो कभी हादसो मे आये हैं या उन्ही हादसो जरिए पूछे गए हैं। ये बहुत ही बेहतरीन पल था।

सवाल यहाँ से शुरू होता है, मेरे जो दिमाग मे घूमता रहा है वे ये है की लेखन, लिखने की इच्छा, शब्दों के साथ खेल, शब्दों को पहचानना अथवा उससे कोई तस्वीर बनाना ये खुद मे डाला कैसे जाता है? या हम किसी और शख़्स मे इस अहसास को डालते कैसे हैं? शहर कैसे डाल रहा है?

इसको लेकर भी कई टिप्पणियाँ शहर मे बहुत लोगों मे घूम रही हैं। वे इसको अपने ही कारणो से साबित कर सकते हैं। जो उन्होंने जाना है, वे बोल सकते हैं। टिप्पणियाँ भी तो इतनी जानदार होगीं की उसको सुनते ही लगेगा कि हाँ बात तो सही है। पर उन टिप्पणियों से सवाल का निवारण नहीं होता, वे कुछ समय के लिए छूप जरूर जाता है। कहने वाले शब्द है, या कहिए की इसको दबाने वाले शब्द हैं, 'हर शख़्स अपने बीत रहे समय को दर्ज करना चाहता है।', 'शहर ने इतने बदलाव किए हैं कि उनमे कई ज़िन्दगियों को तबाह कर दिया है', 'कोई हमारे साथ खेल खेले और उसे दोहराया भी ना जाये', अपने अनुभव को दोहराने के लिए लिखा जाता है, और भी कई टिप्पणियाँ है जिसे खोल कर बताया जा सकता है। मगर, इस वक़्त मैं उसको रखना नहीं चाहता। क्योंकि उससे सवाल की अहमियत ख़त्म हो जायेगी।

सीधी सी बात ये है कि, मैं अभी तक जिन लोगों से मिला, मेरे संदर्भ के बाहर- मुझे लोग लिखने वाले कई मिले, जो अपनी ज़िन्दगी के निचौड़ को बखूबी सम्भालना जानते हैं। लेकिन उनकी उम्र क्या है? 36 साल, 40 साल, 45 साल, 50साल, 57साल शायद उससे भी ज़्यादा होगी। ये लेखन कब का है? आज के शहर से कई साल पहले का, जब ये शहर, अपने शहर होने का नाम ले रहा था। जिसको हम बौद्धिक जीवन के नाम से नवाज़ते हैं। उनमे लोग वो हैं जो अपने लिए एक स्थान बना चुके हैं। नये लेखक कहाँ है? यानि के मुझे अपने दो साल के सफ़र मे कोई लेखन करना वाला शख़्स नहीं मिला। जो इस उम्र से कम है। लोग बहुत मिले जो रियाज़ करते हैं लेकिन वे रियाज़ हैं। गानो के, संगीत के, डांस के, टेक्निकल चीजों के, ड्राइविगं के, राजमिस्त्रियों के और इनमे सबसे ज़्यादा है पेन्टिग के यानि के चित्रकला।

पेन्टिग करने वाले रियाज़कर्ताओ की यहाँ पर भरमार है। कोई नया शख़्स जब भी मिलता है तो अपनी पेन्टिग दिखाता है। रंगो से खेलता है। स्कूल मे बच्चो से बात करो तो उन्हे पेन्टिग करना पंसद है। कम्पयूटर पर पेन्टिग, ग्राफिक्स बनाना बेहद भाता है। मौहल्लो के कॉम्पटिशनो मे लोग पेन्टिग मे सबसे ज़्यादा भाग लेते हैं। ये सब क्या है? क्या कोई नई दुनिया की तरफ़ हम जा रहे हैं या फिर कुछ छोड़ रहे हैं?

फिल्मों मे भी लेखन गायब सा दिखता है। कल्पना मे लेखक के कमरे का हाल कुछ यूँ होता है। एक बड़ा सा कमरा होगा, उसमे बहुत सारी किताबें रखी होगी। कमरे के एक कोने मे एक टेबल होगी। उसपर एक टेबल लेम्प, कुछ पेपर, पेन स्टेंड, पेपर वेट रखा होगा। बस। इसके अलावा क्या?

पेन्टर का कमरा, बताने की जरूरत ही नहीं है। फिल्मों मे पेन्टर ही तो छाये हुए हैं। एक बड़ा सा कमरा होगा। उसमे पूरे मे काल्पनिक जबरदस्त वॉलपेन्टिग हो रखी होगी। उससे देखते ही पब्लिक उसके बौद्धिक होने के ढाँचे को समझ जायेगी। फिल्म- "तारे जमीन पर” मे होता चित्रकारी मेला इसका सबूत है।, फिल्म- "जाने तू जाने ना" मे हिरोइन के भाई का कमरा ऐसे खोला गया है जैसे बस, पूरी फिल्म मे सबसे ज़्यादा रचनात्मक आदमी वही है। और अगर किसी लेखन को दिखाया जायेगा तो, एक दिवाना लड़का या लड़की जिसको कमरे मे बन्द कर दिया गया है उसने अपने प्यार का नाम पूरे कमरे मे लिख दिया है। फिल्म- “एक-दूजे के लिए" और फिल्म- “कुली"। आप शायद मुझसे भी ज़्यादा फिल्मों बता सकते हैं जिसमे लेखन ज़्यादा दिखाया गया हो। लेकिन उन्हे बताने से होगा क्या?

फिर जब गौर किया तो समझ मे ये आया कि दिक्कत किसी स्कूल, फिल्म या समाज मे नहीं है। दिक्कत शायद हममे उपज रही है। लगता है जैसे हाथों के साइज के हिसाब से हमने अनुभव को माप लिया है। नहीं तो-

बच्चा जब छोटा होता है तो घर मे उसको रंगो भरी चीजें दी जाती हैं। खेल मे भी बच्चा पेन्टिग कर रहा होता है। बच्चो को पेन व कॉपी क्यों नहीं दी जाती? बच्चा अगर किसी खाली पेज पर पेन से कुछ लिखने की कोशिस करता है तो उसको क्या डिजाइन है कहकर बोला जाता है? बच्चा हमेशा अपनी ड्राइंग की कॉपी से बहुत लगाव रखता है। उसी को सबको दिखाता है। कोई घर मे आता है तो वो भी उसकी पेन्टिग देखकर उसको "शबास" कहकर एक ताज दे देता है। ये खेल ही उपजता है। मैं ऐसा नहीं कह रहा ही ये करना गलत है। इस तराजू मे मैं जाना ही नहीं चाहता। लेकिन कुछ खेल हम कर रहे हैं वे समझना होगा।

पेन्टिग और लेखन, इनके ढाँचे क्या हैं? और कहाँ हैं?

मैंने जब ये एक पेन्टिग करने वाले से बात की तो वे बोले, “पेन्टिग का एक सफ़र दिखता है। अगर कहीं नहीं कुछ हुआ तो पेन्टिग एक हाथ का काम बन जाता है। इससे हम अपनी रोजी रोटी चला सकते हैं। कहीं भी दुकान खोल कर बैठ सकते हैं। ये बहुत आसान लगता है।"

शहर मे लेखन की कोई दुकान क्यों नहीं दिखती? ये मैं बहुत अच्छे स्वभाव से कह रहा हूँ। जैसे- लोग पेन्टर के पास आकर अपनी पेन्टिग बनवाते हैं। वैसे किसी लेखक के पास मे जाकर अपने जीवन के बारे मे बातचीत करके उससे कुछ लिखवाते क्यों नहीं? ये क्यों नहीं होता कि कोई आये और कहें कि ये अपने बारे मे मैंने लिखा है इसको जरा आप पढ़कर मुझसे बातचीत किजिये?

लेखन के ढाँचे कोने मे या किन्ही पन्नो तक क्यों सिमित हो जाते हैं। वे इस तरह से शहर से संवाद क्यों नहीं करते? ज़्यादा से ज़्यादा किताब, पर्चे, पोस्टर या कोई पत्रिका। उसके अलावा क्या?

कई सवाल तो, मेरे खुद के ऊपर चले आते हैं। जिसमे मैं सामने वाले को तो समझा सकता हूँ मगर अपने आपको नहीं। वे सवाल मेरे अन्दर रह जाते हैं। लेखन, क्या है? कहाँ है? और कहाँ तक जायेगा? क्या शहर मे कोई हिन्दी विवाद, बहस, बदलाव या दंगा होगा क्या तभी लिखा जायेगा? या कुछ और भी उसके साथ मे सोचा जायेगा? या खुद को बुलंद किया जायेगा या किसी को तैयार किया जायेगा? मैं अपने शब्दों को मजबूत करता जाऊंगा या किसी और के बहकते शब्दों को आकार देने की कोशिस करूंगा?

ये सभी सवाल, बेहद अटपटे से लगते हैं मगर इनमे कुछ छुपा हुआ है। जो गहराई से हमसे संवाद करता है।

लख्मी

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