सड़क पर चलते स्कूटर की आवाज, उसके साईड मे साईकिल वाले की घण्टी की आवाज, आते-जाते लोगों की बोलने की आवाज, जो चाय की दुकान से आ रही है। धूप मे सिकते हुए लोगों की बिढ़ियों का धुँआ छोड़ते हुए आवाज। हाथ मे अख़बार के पन्ने पलटने की आवाज जिस के ऊपर, इलेक्शन, मँहगाई, मैट्रो ट्रेन और लॉ फ्लॉर बसों पर बहस करने की आवाज आती है।
समय, सुबह के 9:40 बज रहे हैं।
पुलिया पर बैठे लोग वहाँ पर अपनी-अपनी बातों को बड़ा-चढ़ा कर कहते रहते हैं। पास की चाय की दुकान से एक-आदा प्याली चाय नगद व उधार पीते हुए सड़क से गुजरते शख़्सों को देखते है। जैसे ही वो आता है उसे देखकर सब हँसने लगते हैं। फिर थोड़ा रुककर कहते हैं, "आओ भाई सज्जन, आओ भाई सज्जन।"
सुबह 9:45 बजे।
पुलिया पर बैठे लोगों ने कर्राहते हुए कहा,"रात की उतरी नहीं है क्या?
दूसरा बोला, "ये तो सुबहा का नशा है।"
तीसरा बोला, "अरे नशेड़ियो का क्या? चाहें ये नशे मे हो या सॉपी में हर वक़्त ऐसे ही रहते हैं।
सज्जन तीसरे वाले की आवाज को सुनकर मुँह से गुटखा थुका। उसके होठो मुँह मे चबाये हुई छालियों की ऱाल लगी हुई थी।
सज्जन, "साले तू तो दारू का कीड़ा है।"
सड़क से होकर निकलती आरटीवी बस की आवाज। आसमान मे पचास मीटर ऊँचाई पर उड़ते चील-कऊओ की आवाज।
सुबह 9:50बजे
वो बनियान को उठाकर अपनी चमड़ी को हाथ से खुजाकर बोला, "भाई जी दारू मे कीड़ा मर जाता है।"
सज्जन गुटखे मे सने पीले-पीले दातों से हँसकर नत्थू को उँगली करते हुए बोला, "मगर दारू का कीड़ा तो नहीं मरता, बाकी सारे कीड़े मर जाते हैं।"
इस बात पर सारे बैठे हुए जोर-जोर से हँसने लगे। चाय की दुकान को सज्जन ने चाय का ऑडर दिया। तेजू नाम का एक शख़्स सज्जन को गाली देकर बोला, "दल्ले तेरी शक़्ल अच्छी नहीं है तो बात तो अच्छी कर लिया कर।"
"जब देखो गाली देकर बात करता है। क्यों बे-साले तेरी खाता हूँ क्या? जो मेरे बाप की तरह चौड़ा हो रहा है।" सज्जन हाथ झटकते हुए दाढ़ी को मसलता हुआ बोला।
नत्थू गरज़कर पुलिया से उठकर उसे धमकाने के अंदाज मे उसके ऊपर सीधे सवालो कि बारिश करने लगा, "अबे नहा-धोकर आया कर? हर वक़्त नशे मे रहता है। कभी आदमी की तरह रहा कर। देख तेरी आँखों मे ढेड़ लगी हुई है।"
इस पर सज्जन ने उसकी बातों को काटते हुए, उसे नीचा दिखाने कि कोशिश मे कहा, "तू बता तेरी औकात क्या है? बोल-बोल तुझे अभी खरीद लूँ?”
"चल-चल तू क्या खरीदेगा। तू मेरे जूते के बराबर भी नहीं दरअसल दोनो ने लगा रखी थी।
सज्जन, "बता तेरे जूते की क़ीमत क्या है? अभी ले... अभी ले। अभी देता हूँ। वो तपाक से ज़ुंझला कर बोला।
नत्थू ने ये सोच कर 'हाँ' कर दी, की सुबह-सुबह कौन जैब मे नोट रखता है, "ला चार सौ रुपये दे।"
"क्या चार सौ रूपये?” नत्थू की बात पर सज्जन विश्वासपुर्ण हाँ-हाँ कर के बोला।
"बस चार सौ रुपये जूते क़ीमत है? अभी खरीदता हूँ। बेचेगा क्या?”
अख़बार पड़ते हुए शख़्सों ने नत्थू को चने के झाड़ पर चड़ा दिया।
"अबे ले-ले, चार सौ के तो तेरे जूते भी नहीं होगें। इस बेवड़े को जूतों की क़ीमत का क्या पता।"
नत्थू उनकी बातों मे आ गया और खुशी-खुशी जूते सज्जन के हवाले कर दिए।
सुबह, 10:55बजे
सड़क से होकर निकलते मोटर गाड़ियों की गर्राहट रोज की तरह ऑटो स्टेंड के पास ऑटो स्टार्ट करने की आवाजें आती। नत्थू ने जैसे ही सज्जन के हाथों मे जूते थमाये सज्जन ने अपनी कमर से तैमद मे रखे सौ-सौ के नोट निकाले नत्थू हैरान हो गया पर नत्थू का जूता तो सरे आम निलाम हो गया था। अब उस पर कोई चान्स नहीं था। सारे हँसने लगे "भई वहाँ ये हुई न बात सज्जन ढीगें मारने लगा।
पुलिया पर बैठ हुए तेजू ,पप्पू और गोपी सज्जन को पागल बोल कर उस की गुपचुप खिल्ली उड़ाने लगे। लेकिन सज्जन ने कोई घाटे का सौदा नहीं किया था। जूतों को हाथ मे लेकर सज्जन ने कहा, "ये जूते मेरे हैं। मैं चाहे जलाऊ या फैंकू।"
तेजू उठकर सज्जन के काँधे पर हाथ रख कर बोला, "यार इन्हे किशन की दुकान पर टाँग दे दुकान को बुरी नज़र नहीं लगेगी। इस से चाय वाले का तो भला होगा।"
वो दोनों जूतों को दुकान के सामने लगे बाँसो के ऊपर लगाने लगा।
सुबह11:00 बजे
सब जोर-जोर से हँसने लगे।
"और है क्या कुछ, बनिये की औलाद। पैसा बात का या स्वाद का, क्यों भाई।"
नत्थू झूठे मुँह बोला, "मुझे तो नफ़ा हो गया।
सज्जन ठहाके लगा कर हँसा, "क्या बोला नफ़ा, अबे ये तेरे जूते नहीं थे इज्जत थी। जो सब के सामने मैंने उतार ली। तू नफ़ा देख रहा है।"
सज्जन घूमा जूते बाँस पर से उतार कर सड़क पर पटकने लगा दो बार, फिर उठाए, फिर पटके फिर उठाए, फिर पटके। फिर जूतों को पैंरो से मसलने लगा और हँस-हँस कर कहता। देख दल्ले, देख।"
वो फिर जूतों को दे पटक, दे पटक, दे पटक।
सुबह 11:05बजे
वहाँ खड़े सारे ये तमाशाई मँजर देख रहे थे। सज्जन को कोई पागल कहता तो कोई सिर फिरा कहता। जब वो जूता जमीन पर देकर मारता तो सारे उसका साथ देते। मार और मार जोर से मार फाड़ दे सालों को।
जूतों के बार-बार पटकने से सड़क की धूल उड़ती और आस-पास धूल के बादल से बनने लगे। हँसते लोगों की परछाईयाँ चलने लगी। धूप ठीक चेहरे के दाँई तरफ़ पड़ रही थी। सड़क के दोनों ओर फेरी वालों की फेरीयाँ थी। फल वालो की आवाज, जूस वाले की आवाज, मेकैनिक की दुकान से हथोड़ा बजने की आवाज।
जब सज्जन जूतों को पटकता तो नत्थू के चेहरे पर उदासी सी छा जाती। लग रहा था की उसे किसी बात का मलाल था। सज्जन ज़ुझारू मिजाज से कहता, "हाँ और बोल क्या कुछ है? सज्जन मर्द है बात से फिरेगा नहीं।"
नत्थू दोनों पैंरो मे जुर्राबे पहन कर बैठा रहा। बड़ा तनहा सा महसूस कर रहा था। घर से जूते पहन कर निकला था। इसलिये उसे? बिना जूतों के दोस्तों मे बैठने मे बुरा लग रहा था। नत्थू के लिए जैसे सारी चीजें रुक गई हो। उसकी आँखे पत्थरा गई थी।
सज्जन सब की तरफ़ हाथ उठा कर बोला, क्यों भाईयो, पैसा बात का या स्वाद का? आवाज कर नत्थू औकात बता अपनी।"
उसने ये कह कर फिर जूतों को उठा कर सड़क पर पटकना शुरू कर दिया। ले, ले, फिर ले, फिर ले, ले साले, फिर दोबारा ले, वो अपना सारा गुस्सा उन पर उतारने लगा। फिर दोनों हाथों को ऊपर उठा कर बोला, "ओए है कोई, भाई ऐसो को तो सज्जन अपनी जैब मे लेकर चलता है।"
सुबह 11:10बजे
वो वहाँ से गुजरते एक बुढ़े आदमी का हाथ पकड़ कर बोला, "ताऊँ बता, पैसा बात का या स्वाद का? ये जूता उसका है वो जो पुलिया पर बैठा है। मैंने ये खरीद लिया है।" वो उँगली के इसारे से नत्थू को देखाता है।
वे बुढ़ा शख़्स सज्जन की तरफ़ मुस्कुराकर चला गया और कर भी क्या सकता था। यहाँ क्या माजरा था। ये उसे क्या पता?
सज्जन ने जूतों को अब फुट बॉल बना कर लातें मारना शुरू किया। वो जोर-जोर से जूतों को ठोकर मारता रहा। कभी आगे से, कभी पीछे से, कभी उपर से, कभी नीचे से बस, कुचले जा रहा था और नत्थू को ये देखकर पसीना आ रहा था।
अब उस ने नया तनाशा शुरू कर दिया जो भी सड़क से होकर जाता वो उसे रोकता। एक स्कूटर वाले के आगे आकर उसे रोका और बोला, "भाई जरा अपनी गाड़ी का टायर इस जूते के ऊपर चड़ाकर निकालो। वो गुजारिश करने लगा तो स्कूटर वाले ने सिर 'हाँ' मे हिला कर जूते के ऊपर से चड़ कर निकल गया।
सुबह 11:15 बजे
सज्जन मुँह फाड़कर चिल्लाया, हाँ-आ..अ..अ... हा-हा- आ मजा आया। नत्थू के बच्चे देख, भईयो ये मेरा जूता है। मुझे तो इस से खेलने मे मजा आ रहा है तो पहने कितना मजा आयेगा।
तभी उसने जोर से जूतों मे ठोकर मारी। वो ताबड़तोप ठोकर मारता गया फिर वो लोगों को रोक-रोक कर जूतों का किस्सा बता कर उनके सामने जूतों मे ठोकर मारता।
"भाई साहब, ये चार सौ का जूता है। देखो कैसे सड़क पर पिट रहा है।"
ये सुनकर सभी एक शौक सा मना कर चले जाते। वहाँ से जो भी निकलता वो उसे रोकता, जब सब्जी की फेरी वाला वहाँ से निकला तो, "उसे रूक-रूक जरा ओए भाई, जरा अपनी रेहड़ी को इन जूतों के ऊपर चड़ाकर निकाल मुझे अच्छा लगेगा।"
रेहड़ी वाला रेहड़ी को जूतों के ऊपर चड़ाने लगा। उस वक़्त नत्थू जूतों को देखे जा रहा था। एक जूता पूरब मे तो एक पश्चिम पड़ा। नत्थू को चिड़ा रहा था। सड़क से निकलने वाली गाड़ियाँ कभी जूतों के ऊपर से तो कभी जूतों के पास से होकर निकल जाती।
वहाँ से एक कूड़ा बिनने वाला कमर पर बोरा उठा कर जा रहा था। उसे सज्जन ने देखा, ओए कबाड उठाने वाले सुन जरा। इधर आ।"
तभी तेजू बोला, "यार इस कबाड़ी को ही जूते दे दे, किसी का तो भला होगा।"
"नहीं साले, इस जूते को तो कबाड़ी भी नहीं पहनेगा।"
ये सुनकर नत्थू वहाँ से उठकर चल दिया। सज्जन ऐसे ही हँसता रहा।
राकेश
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