Friday, November 21, 2008

'कम्पलेन्ट' और 'इन्तजार' की दुनिया

समाज के कई खेलों मे एक खेल ये भी है। जिससे चलता है दुनिया का गोला।
कम्पलेन्ट और इन्तजार से लदा समाज कभी सिकुड़ता नहीं है वो अपने पाँव फैलाता रहता है और इसके फैलाव मे फँसे हम लोग हमेशा सोचते हैं कि इसमे हम सेफ हैं। लेकिन इसका जोर हमारे सेफ रहने के दायरों को खोख़ला कर देता है।

हमारे आसपास बने इस समाज मे कुछ लोग इन्तजार कर रहे हैं तो कुछ लोग कम्पलेन्ट कर रहे हैं मगर ये क्यों है? उसका किसी को पता नहीं है। हम अपने से ये कभी नहीं पूछते की हम किसके इन्तजार मे है? हम क्यों इन्तजार मे है? या फिर हम किससे कम्पलेन्ट कर रहे हैं? हम क्यों कम्पलेन्ट कर रहे हैं?

इन सवालों को देखा जाये तो, ना तो समाज सोचता है और ना ही उसने रहते लोग। हम तो ये भी नहीं सोचते की इन सवालों के दायरों मे हम क्या हैं? क्या सोचते हैं? बस, इसके भागीदार बनने से हम अपने आपको एक साफ़ और क़्लीन कोने मे कर लेते हैं। ये सोचकर की जिम्मेदारी अब हमारी नहीं रही।

कसूर होना, ना होना या रह जाना क्या है? और इन्तजार होना, ना होना और रह जाना क्या है?

मेरी मानों तो ये किसी फोलडर से कम नहीं होता जिसमे चीजें रखकर भूली जाती हैं। हमारे आसपास घूमते लोगों मे दो तरह के लोग और दो तरह के सवाल हैं। जैसे-

पहले शख़्स:- आज किसी से मिलो तो वो इन्तजार मे है, कोई मौके के, कोई साथी के तो कोई किसी ख़ास वक़्त के और अपने कदमों को ठोस रूप से कहीं गाड़ लेता है। अब वो तब तक नहीं हिलेगा जब तक की वो इन्तजार ख़त्म नहीं होगा। हर कोई अपने अन्दर किसी ख़ास की तस्वीर बनाकर बैठा है जिसके इन्तजार मे वो अपनी ज़िन्दगी को बिता सकता है। कई रियाज़ किसी के इन्तजार धरे हैं। जिसको खोलने वाला कोई नहीं है। या है तो वो आया नहीं है। ये इन्तजार की हद है। लेकिन इससे होगा क्या? अपने साथ या जिसका इन्तजार कर रहे है उसके साथ?

दूसरे शख़्स:- इन लोगों से मिलो, तो वो किसी ना किसी को कोस रहा होता है। कभी वक़्त को, कभी साथी को, कभी परिवार को, कभी अपने को तो कभी मेनेजमेन्ट को। इसमे वो अपने आपको किनारे पर रहने वाला एक शख़्स बना लेता है। साफ-सुथरा और कुछ ना जानने वाला। ये दनिया इतनी बड़ी है कि इसमे सब कुछ घुलने लगता है। समाज मे कई लोगों के साथ मे ये खेल चलता है। जिसमे दोष होना और ना होना भी एक बिसात की तरह से फैला है। बाकी सब किरदार हैं। काफी सारे लोगों से बात करने पर लगा की जैसे, कई रियाज़ इसी खेल ने कहीं खो गए हैं। जिसका कोई कौना नहीं बन पाया है। अब सोचो इससे होगा क्या? अपने साथ और उसके साथ जिसको कोसा जा रहा है?

सीधे लव्ज़ो मे कहे तो ये हमारे आसपास मे एक खेल की भांति ही है। जिसमे समाज से सवाल करने वाला ही अहम किरदार है। उसके बाद सब कुछ गड़े-मुर्दो की भांति उख़ाड़ना बाकि रह जाता है। जितना गहरा उख़ाड़ो खेल उतना ही मज़ेदार बनता जाता है और अपना दायरा इतना बड़ा या गहरा बना लेता है कि उसमे सारे रिश्ते-नाते ख़ोख़ले लगने लगते हैं। फिर चाहें उन रिश्तों को बनने मे जीवन के कितने ही महत्वपूर्ण साल लगे हो।

ये होता क्यों है?, इसका होना क्या लाता है? इसमे क्या ठहर जाता, क्या रूक जाता है और क्या जम जाता है? और इसका निवारण क्या है?

लख़्मी

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