Friday, November 28, 2008

जगह का बनना

इसे दक्षिण पुरी कहते हैं
लगभग बाराह या साढ़े बाराह बजे का वक़्त होगा। गाड़ी गली मे कई कपड़ों की रस्सियों को तोड़ती हुई अंदर आ घुसी थी। झुग्गी तो अभी पूरी तोड़ी भी नहीं थी और गाड़ी वाले ने सभी को अवाज लगाई की "चलों भाई किस-किस को चलना है अंदर बैठ जाओ।" सभी ने कपड़ों को साड़ियों और चादरों मे लपेटकर गठ्ठियाँ बाँध ली, पर कपड़ों के साथ-साथ लोगों ने दरवाजे, खिड़कियाँ, चौखट और टीन की छतें भी उखाड़ ली थी। वो भी तो ले जाना था। लेकिन एक ट्रक और चालीस लोग और उनका समान भी उसमे, ये बड़ा-बड़ा उखाड़ा गया समान, घरों का ढाँचा कैसे ले जाया जाए? कोई इसे छोड़कर जाना नहीं चाहता था। सभी ने जैसे-तैसे उसे भी ट्रक मे भरा और गठ्ठरियों पर बड़े समानों की तरह लद गए।

सभी सोच रहे थे कि "जाना कहाँ पर है? वो करीब ही होगी?” ट्रक मे बैठे सभी दस मिनट गाड़ी चलने के बाद मे बड़ी जोर से चिल्लाते या आवाज लगाते जिनमे से ख़ासकर आवाजे औरतों की होती "ए, भईया कहाँ ले जा रहा है और कितनी दूर है?”

वो ट्रक की ट्रोली की तरफ़ मे निकलती छोटी सी खिड़की से तेज आवाज मे कह देता "बस, आने वाला है यहीं पर है आप सब बैठ जाओ रोड खराब है।"

इतना कहकर वो चुप हो गया और थोड़ी देर के बाद उसने हमें यहाँ इस जंगल मे लाकर छोड़ दिया जिसे वो दक्षिण पूरी कह रहा था।



शुरूवाती दो दिन
दक्षिण पुरी जो अलग-अलग जगह की बस्तियों के विस्थापन से बनी है। जहाँ पर शहर की अन्य जगहों से लोगों को लाया गया। ओखला, पहाड़गंज और कितवई नगर। दक्षिण पुरी की गलियों मे जहाँ पर चालीस से पैंतालिस मकान हैं। कई गालियाँ तो एक ही जगह से आए लोगों से बनी हैं। पूरी गली एक परिवार की तरह से है। चाचा, मामा , ताया और पता नहीं क्या-क्या? सारी औरतों के चेहरे पर घूँघट हमेशा चड़ा रहता है। इन औरतों के बीच मे अक्सर दक्षिण पुरी की शुरुवाती बातों की कहानियाँ उछल पड़ती है।

कहती है, "जब हम यहाँ पर आए थे तो काफ़ी मारा-मारी होती थी। कभी घरों को घेरने के लिए तो कभी रात मे पेहरेदारी के लिए। हमारे तो सभी एक ही तरफ़ के लोगों ने एक पूरी लाइन ही घेर ली थी और किसी को अंदर ही नहीं आने दिया। रात भर सभी खाट डालकर बैठे रहते। चार सोते तो दो जागते, ऐसा ही चलता। पर शाम को बड़ा मजा आता था। हम तो चुपके से खेतों मे जाकर सब्जी तोड़कर लाते थे। ताजी-ताजी सब्जी मिलती कभी 'सेम की फली' तो कभी 'पालक' काफ़ी सब्जियाँ लगी थी। यहाँ दूध तो भैसों का मिल ही जाता था और शाम का खाना रोजाना सब्जी तौड़कर लाओ और बनाओ ऐसा रहता। जंगल तो था पर खाने को मिल जाता था सब ठीक ही था। शुरु के दो दिन मुश्किल थे पर कट गए।



दोबारा ढूँढते रहे हम तो
काम-वाम सब छूट गया था, इस घर के चक्कर मे। जैसी बातें वहाँ ओख़ला की बस्ती मे होती थी हमारे घर के आगे वैसा तो यहाँ पर कुछ भी नहीं था। मुझसे अक्सर कहते थे, "भोलू राम तू चिंता मत कर अपनी जगह और पक्के मकान मिलेगें" ऐसा सुनने से काफ़ी होसला बड़ता था। लेकिन हम जब यहाँ पर आए तो यहाँ तो खेती होती थी और कुछ पहाड़ भी थे। यहाँ पर खानपूर गाँव की तरफ़ के जाट-गूज़र लोगों के खेत थे। जो एक ही तरफ़ मे फैले थे जिस तरफ़ मे हमको जगह मिली थी वो कच्ची जमीन थी जो पता नहीं क्यों चौबिसों घण्टे गीली रहती थी। पहले दिन और रात को तो हम यूहीं उसी कच्ची जमीन पर अपने समानों पर ही लदे सोए रहे। बच्चों को हम पहले ही उनकी नानी के यहाँ पर सिकंदरा बाद मे छोड़ आए थे। बस, मैं और मेरी वाइफ ही यहाँ पर आए थे। दिन तो हमारा ये देखने मे ही निकल गया था की कितने और लोग हैं जो हमारी तरह यहाँ आए हैं और पता नहीं कहाँ के होगें? जैसे ही कोई ट्रक वहाँ आता तो यहाँ बैठे सभी की नज़रें उसी की तरफ़ जाती और समान उतारते और बैठते लोग दिखने लगते चारों तरफ़ घाँसे और खेत देख-देखकर मन ही नहीं भर रहा था। वहीं पर बार-बार नज़र घूम रही थी। फिर थोड़ी देर के बाद हमने समानों को एक तरफ़ मे रखा और चादर तानकर छाँव करने की सोची पर रात भी हमारी जागते हुए गुजरी।



शमसान तले थे सभी
"अरे यहाँ तो बड़ बुरा हाल था। ऐसी जगह दी जहाँ अगर एक छप्पर डालने के लिए डण्डा जमीन मे गाड़ते तो गड्डा खोदते ही हड्डियाँ निकलती थी। यहाँ तो ये दक्षिण पुरी पूरा शमशान था। लोग यहाँ पर लाश जलाते और दफ़नाते थे। आसपास तो पहले से ही लोग रहते थे। ये मदनगीर गाँव, खानपूर गाँव, तुगलकाबाद के लोगों का शमशान घाट था और यहाँ तो जब आए थे तो कभी भी जानवर निकल आते थे। शांप, नेवले, बिछ्छू, अरे मुझे याद है एक बार हम घर बनवाने के लिए नींव खुदवा रहे थे तो जमीन गीली थी। नींव को गहरा खोदना था। जब नींव खोदनी शुरू की तो कुछ हड्डियाँ निकलने लगी। जब तो कुछ नहीं हुआ पर जैसे ही जमीन मे से इंसानी आधी खोपड़ी निकली तो मेरी वाइफ के तो होस ही उड़ गए। वो तो बेहोस तो गई, उसे तो पता ही नहीं था की उसे तो नींव गाड़ने की पूजा करनी है। उसने तो साफ़ मना कर दिया था। यहाँ रहने के लिए उस समय वो पेट से भी थी, पप्पू होने वाला था। वो तो भागने लगी फिर काम हल्का करके उसे उसके पीहर छोड़कर आया और बाद मे खुद बनवाया ऐसा हुआ।

नेता जी अक्सर उस दिन को याद करते हैं और दक्षिण पुरी को अगर किसी को बताना हो तो शमशान घाट कहे बिना रह तो नहीं पाते।




कौने मे रहने का मज़ा
दक्षिण पुरी जहाँ-यहाँ आज मकानो की किमत बहुत है और कौने के मकानो की किमत तो दस, बराह, पन्दराह लाख तक है। कौने के मकान वाले लोग तो आज बैठे-बैठे लेन्ड लॉड हो गए है। गली मे रहने वाला हर शख़्स आज कहता है की काश हमारा कौने का मकान होता आज। लेकिन, जब यहाँ दक्षिण पूरी मे नये-नये बसे थे या जब दक्षिण पुरी बस रही थी तो कोई भी कौने का मकान लेने को राजी नहीं था क्योंकि आसपास बड़े-बड़े खेत और दूर-दूर तक दिखता जंगल तो हमेशा डर रहता था किसी जानवर के आने का कौने का मकान एक दम पिछड़ा सा लगता था तो सभी अन्दर का मकान चाहते थे। लोगों के बीच का और रात होने के बाद तो लूट-पात भी होती थी आसपास के कुछ (लठेत, शराबी-कबाबी लड़के लूटपात भी करते थे) तभी तो कोई भी अपने कमरे या छप्पर मे ही जगा खाली देखकर कुछ भी उड़ाकर ले जाते थे। हर वक़्त जान-माल ख़तरा बना रहता था पर आज तो कौने के मकानो मे लोगों ने दूकानें खोलकर किराये पर चड़ाई हुई हैं और घर बैठे-बिठाए तीन-चार हजार किराया आ जाता है साथ की साथ रोड लाइट, कलोनी लाइट अलग लगी है।




दक्षिणपुरी और अस्तबल
ओमी जी जिनके लिए यहाँ आना एक लम्बा और थोड़ा भड़कीला रहा। ओमी जी का ओख़ला बस्ती मे एक छोटा सा अस्तबल था जिसमे उनकी तीन गाये पलती थी जिनका दूध वो निकालते और बैचते थे लेकिन जब वहाँ से 1975 मे झूग्गी को हटाया गया तो अस्तबल भी टूटा। सभी तो ट्रको मे बैठकर यहाँ दक्षिण पुरी मे आ गए पर ओमी जी की गायों को लाने का ठेका नहीं लिया था सरकार ने तो उन्हें ही एक बग्गी मे गाये और घर वालों को लाना पड़ा। जब हारे-थके यहाँ दक्षिण पुरी मे आए तो खुद भी भूखे थे और गाय भी गायों को तो यहाँ खाने को एक हरा खेत मिल गया था पर ओमी जी की मुश्किले अब बड़ गई थी। क्योंकि वो गुजरों से पंगा नहीं लेना चाहते थे। गायें जब मर्जी खेतों मे घुस जाती और खेतों को खाती तो हमेशा ओमी जी गायों को बाँध कर रखते और हमेशा देख भाली करते पर उनका यहाँ दूध का काम बहुत चला था। यहाँ कोई खाने पीने का साधन नहीं था तो लोग स्टोव तो साथ ही लाये थे तो दूध लेकर चाय पानी का तो इन्तजाम कर लेते थे। लगभग सभी दस, बराग दिनो का सौदा साथ लेकर चले थे पर ओमी जी ने भी अच्छा अस्तबल सा बना लिया था एक बड़ा अस्तबल।




नई जगह के बनने का मतलब क्या होता है?
एक जगह का टूटना और कोई नई जगह का बनना इसका मतलब होता है की नये सपनों को जिन्दा करना सब अपने साथ-साथ घर बनाने का कुछ तो समान लेकर आए थे। अब एक झुग्गी तोड़कर झुग्गी मे तो वापस कोई रहना नहीं चाहता था तो लोगों ने अपना कच्चा-पक्का घरोंदा बनाने शुरू किया। लोग रोज दूर दो-छ: किलो मीटर पैदल जाते और बन रहे या टूट रही स्कूल की तरफ़ जाकर वहाँ से टूटी सिल्प, सिल्लियाँ उठा लाते और पहाड़ियों पर जाकर मिट्टी खोद-खोदकर भर-भर कर लाते। उस समय मे तो इंटे भी सस्ती आती थी तो अब लोगों ने अपने खुद से अपना घरोंदा बनाना आरम्भ किया। मिट्टी से चिनाई करते इंटे-दर-इंटे चड़ाकर कम से कम रहने लायक तो बना ही लिया। छत पर बस्ती से लाई सिमेंट और टीन की चद्दरे डाली और एक कमरे का घर तैयार किया। दिन भर मिट्टी खोदकर लाते फिर चिनाई मे लग जाते। अन्दाजे से दिवारें खड़ी करते। बस, मजबूती को देखकर और फिर जमीन को यूहीं मिट्टी का छोड़ दिया फिर उसी मे रहना भी शुरू किया।

लख्मी

No comments: