Wednesday, November 5, 2008

एक पर्दा जो बे-पर्दा है

पहेली, जिसको हम बहुत रोमांचक मानते हैं। जिसके अन्दर घुसने से डरते भी हैं और उसमे घुसने को इच्छुक भी रहते हैं। उसे सुलझाना भी चाहते हैं और उसमे कभी-कभी खुद भी उलझना चाहते हैं। अपने लिए एक ऑदा भी ढूंढते हैं जिसको सुलझा कर महाशय की महारत हासिल कर सकें और कभी-कभी उसको "नहीं मालुम" कहकर, ये जताना चाहते हैं कि ये तो बच्चो का खेल है।

लेकिन, इतने के बावज़ूद भी ये किस्सागोही हो या पहेलीगाथा कभी हमारे बीच मे से गायब नहीं होती। इसमे घुलते लोग कहीं ना कहीं दिख ही जाते हैं।

पहेलियाँ खाली जुबानी ही नहीं होती, वे नज़रो के साथ भी खेल खेलती हैं कई अनेको मुखौटों से, रूप बदलने से, आवाजों के खेल से, इशारों से और ना जाने कितने ऐसे रॉल हैं जिन्हे हम रोज बनाते हैं। कभी अपनी मनमर्जी से तो कभी नामर्जी से। दोनों मे कोई ख़ासा फ़र्क नहीं है बस, रॉल मे डूब जाने का या फिर रॉल को खुद मे डूबा देने जैसा है।

कभी सोचा है कि इन पहेलीनुमा ज़िन्दगियों के बीच मे क्या है ऐसा जो नज़रो को छुपा देता है? या क्या है इनके बीच मे जो हमको उन तक पहूंचने नहीं देता?

कभी लगता है कि इंसान, माहौल और समय हमारे साथ एक खेल खेलते हैं। उनके आने से और कुछ समय तक रहने से एक खेल सा होता है। रोजाना की दिनचर्या मे दिखने वाले दृश्य भी एक पहेली की ही तरह से अपने आपको प्रश्तुत करते हैं। जब एक पल के लिए नज़र किसी दृश्य पर ठहर जाती है तो वो अपने खेल मे हमको डुबा लेते हैं।

हमारे सामने हर वक़्त एक पहेली चल रही है। जिसको समझने के लिए हमे हमारे आगे चलते कई ऐसे अनकेनी पर्दो के पार जाकर उनका नज़ारा करना होगा। कभी वे नज़ारे बस की भीड़ मे होते हैं तो कभी घर के दरवाजे पर। जिनमे बस, एक पलक झपकने की ही देरी होती है और हम उसमे उलझ जाते हैं।

ये वाक्या भी कुछ ऐसा ही है। पहली बार मैं अपने घर को पर्दे की ओट से देख रहा था। ये बिलकुल ऐसा ही पल था जैसे कोई किसी का इंतजार कर रहा है और उसे हर शख़्स के चेहरे मे उस आदमी का चेहरा दिखाई दे रहा है इसके इंतजार मे वो बैठा है। मेरा एक बहुत भुख़क्कड़ दोस्त कहता था जब मैं बहुत भूखा होता हूँ तो मुझे बस भी ब्रेड का पैकेट लगती है और चलकर मुझ तक आ रही है।, खैर, ये हमारे किसी काम का नहीं है।

घर मे सब कुछ वैसा ही था जैसे रोज चलता है। माँ झाडू लगा रही थी और दरवाजा खुला हुआ था पर कुछ-कुछ पल के बाद मे देखने के लिए तो वही कुछ था लेकिन दिमाग मे कुछ और ही चल रहा था। जैसे ही कुछ बदलता तो आँखें खेल मे शामिल हो जाती। जो आज रोजाना की तरह से बितने वाला वक़्त कर रहा था।

हमारे आसपास मे कई पहेलियाँ हैं जो अपने ही घर को देखने का पूरा नज़रिया बदल देती हैं। घर मे बीत रहे हर दृश्य एक सवाल या कुछ चौंकाने वाले लगने लगते हैं। कहीं पर एक सन्नाटा है और कहीं पर एक चमक, दोनों को एक साथ घर मे देखने से कभी हम दृश्य को अपने अन्दर से नहीं निकाल पाते। वो बस, निकल जाने वाला समय लगता है। हमें पता है कि कितने दृश्य को हमने बिना देखे या महसूस किये अपने आगे से निकाल दिया है। बिना कुछ किए? दिन मे कितने दृश्य हैं जो हमें ठहरने को कहते हैं? और कितना का हम बिना अहसास किए अपनी ज़िन्दगी से बेदख़ल कर देते हैं?

मगर यहाँ आज ऐसा लगा जैसे कुछ ठहर गया है। दरवाजे से दिखने वाला हर गुजरता वक़्त इतना धीमा था के उसका अहसास खुद मे भर रहा था। जैसे हर दृश्य के बीच मे कई अनेको लेयर बन गए थे और मैं हर लेयर मे था।

किसी जगह को सिलोमोश्न मे देखना और उसी को गती मे देखना, इनमे क्या फ़र्क होता है?

जिस स्पीड से रोजाना समय बितता है वो क्या है? हमे किस स्पीड आदत हो गई है? वो हमारी है या हमे दी गई है? ऐसे कई पर्दे हैं जो पहेली बनकर हमारे सामने नाच रहे हैं। मानलो, धड़कन भी एक संगीत है और पहेली की तरह से चल रही है बस, उसकी स्पीड़ पता नहीं है।



दिनाँक 27 जुलाइ 2006 , समय रात्रि 8:00

लख्मी

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