दक्षिण पुरी मे कई जगहों व लोगों से मुलाकात करने के बाद मे कई सवाल उभरे और उनके साथ मे उभरें कुछ शख़्स जिनके जीवन के सवालों को हम चाहकर उस अहसास के साथ मे नहीं रख या समझ सकते जो किसी की ज़िन्दगी के सार हैं। जिनसे उसने अपने जीवन के कई मूल्यवान किनारों को दोबारा से समझा या बनाया है। ये कुछ लोग जिन्हे किसी ना किसी ऑदे के नीचे रखकर देखा जाता है लेकिन इनके ज़रिये बनने वाले माहौल जो हाँलाकि वो माहौल नहीं होते जिनसे हम ये कह सकते हैं कि एक नाटक जो बस्ती के बीच के दायरों को तोड़ देता है। बल्कि ये वे माहौल है जिनसे पड़ोस, आसपास, लोग, समाजिक नितियाँ और कलाए जुड़ती है।
ऐसे कई लोग हैं। जिनके किसी पल को उभार कर ये समझा जा सकता है कि ये आखिर मे कर क्या रहे हैं? अपने आसपास और समाजिक नितियों के बीच।
नाटक ही जीवन है...
राजू जी जो बहुत अच्छे एक्टर हैं और कई अलग-अलग तरह के नाटक भी कर चुके हैं। एक नाटक मंडली भी बना रखी है। जिसमे वे अलग-अलग लॉकेल्टी मे जा-जाकर नुक्कड़ नाटक करते हैं। और अपने रॉल को खुद लिखते हैं। कैसे? और कहाँ से? उनकी एन्ट्री होगी, उसे तैयार करते हैं। लेकिन एक सवाल हमेशा उनसे बात करने पर उभरा की वे कभी भी अपने ब्लॉक या इलाके मे नुक्कड़ नाटक नहीं करते। बहुत कम लोग हैं जो शायद ये जानते होगें कि वो नुक्कड़ नाटक भी करते हैं। अपनी जगह से बाहर मे अपनी कला को दिखाना क्या है? क्या है जो वे अपने यहाँ नहीं दिखा सकते मगर बाहर दिखा सकते है?
माना, ये कोई ऐसी कला नहीं है जो किसी को खुश करने वाली हो। अपने लिए जो एक जीने का तरीका बनता है। वो किसी ढाँचे या स्पेस का इंतजार नहीं करती। क्या हर किसी को खुलने के लिए किसी ख़ास जगह या शख़्स का इंतजार है?
संगीत से जुड़ी कायनात...
एक शख़्स हैं जो गिटार सीख रहे हैं अभी। अपने काम पर से आने के बाद अपनी छत पर बैठे गिटार पर अगुंली चलाते रहते हैं। उनका रियाज़ अपनी छत पर ही चालू रहता है। गानो कि उन्होनें एक कॉपी बनाई हुई है। उसी मे हमेशा मश्गुल रहते हैं। पर आजकल उन्होनें एक टाइम बनाया हुआ है जैसे ही वे कोई गाना बजाने मे सक्षम हो जाते हैं। जैसे रिद्दम, ताल, लय सबमे परफेक्ट हो जाते हैं तो रात को गली मे खाट बिछाकर अपना गाना बजाने लगते हैं। जिससे शायद कोई सुने या ना सुने पर जो लोग गली मे खाट बिछाकर सोते हैं। वो सुनते हैं और बड़े शौक से।
बीता समय बड़ा नाज़ुक होता है...
आज भी घसीटाराम जी के पास जाओ तो वो अपनी कॉपी का जिक्र करते हैं। उसके कितने पेज थे? उन पर क्या-क्या लिखा था? और किन-किन रंगो के पेनों से, सब पता है उन्हें। उसी से अक्सर बात शुरु होती है। जिसका लगभग वही पेज हमेशा खुलता है जिसमे पहली बार उनका 'रसिया जाना' लिखा है। मगर वे कॉपी है ही नहीं। वे जानते हैं किसी के सुनने कि इच्छा को और बैठने कि ललक को। हर बार वे उस माहौल को बनाने मे समक्ष हो जाते हैं।
अजी सुनते हो क्या...
अक्सर गली मे आवाजों का खेल रहता है। सभी अपने-अपने डैग तेज आवाज मे चलाकर कॉम्पटिशन करते हैं। जिसकी भी आवाज तेज होती, वो जीत जाता यानि के उसके डैग के चलने से बाकियों की आवाजें दब जाती और वे अब अपना रौब दिखा सकता है पूरी गली मे। सामने वाले घर मे भी इसी का भूत सवार है। हमेशा शान्त रहने वाले घर मे विजय जी एक सीडी प्लेयर ले आये थे। अब सीडी प्लेयर के आगे डैग क्या करेगें? विजय भाई तो अपने काम पर चले जाते मगर उनकी बीवी उसे तेज आवाज मे चलाकर अपने सुबह का काम निबटाती रहती और काम के ख
ख़त्म होने तक उसकी आवाज पूरी गली मे गूँजती। मैं अक्सर दोपहर मे अपनी छत पर बैठ जाया करता था, तो वो मुझे देखकर अपने सीडी प्लेयर को बन्द कर दिया करती थी। बस, मेरे हाथ मे एक डायरी रहती थी।
वो सामने वाला घर...
गली के कोने के घर की दीवार पर एक शख़्स फोटो स्टूडियो के लिए बैकग्राउंड पर्दे बनाया करते हैं। सभी उनकी पैन्टिग को कुछ देर तक तो देखते रहते मगर ज़्यादा देर तक वहाँ पर कोई खड़ा नहीं होता और उन्हैं पैन्टिग बनाते हुए छोड़ जाते। चॉल्स अंकल को पैन्टिग बनाने का शौक है, मगर शहर मे शौक को पैशा बनने मे ज़्यादा वक़्त ही कहाँ लगता है। मैं अक्सर उनके पैन्टिग बनाने के वक़्त मे उनके साथ बैठ जाया करता हूँ। ये गली का वो कोना है जहाँ पर गर्मियों मे भी बहुत अच्छी हवा लगती है। मैं भी वहीं पर उनको देखकर जमीन पर कुछ बना लिया करता। वो अपनी पैन्टिग बनाने मे व्यस्त रहते तो मैं कभी कुछ बनाने मे, तो कभी कुछ लिखने मे। यही सब कुछ चलता रहता था हमारे बीच। एक दिन शाम मे पाँच या छ: बजे के टाइम मे वे मेरे घर आये। उनके साथ मे एक शख़्स और थे। उनके हाथों मे एक बैग था। उन्होनें मुझे "Hello How are you?” कहा और बातचीत आगे बड़ी। वो मेरी पढ़ाई और भविष्य के बारे मे पुछते गए और देखते-देखते उन्होनें अपने बैग मे से एक पीले पन्नों की किताब निकाली और मुझे देकर चले गए।
वो पहला ख़ुमार...
जतन लाल जी ढोलक के माहिर है। उनकी ताल पर उनके थिरकते पाँव और उनकी जुबाँ से निकलते गीत किसी भी महफिल को सजा सकते हैं और लोगों को मदहोश भी कर सकते हैं। उनके गीत शादियों मे गाए गए गीतों से टक्कर भी ले सकते हैं, मगर अपने परिवार की रोक-टोक पर वो कभी भी ये जाहिर ही नहीं कर पाते। कहते है, "एक बैटो-बेटियों वाला और नाती-पोतो वाला आदमी ढोलक की थाप के साथ-साथ नाचेगा या औरतों के साथ मे गीतों मे बहस करेगा तो लोग क्या कहेगें? अज़ीब तरीके से देखेगें लोग।"
इसी डर को लेकर वो अपने गीतों को कहीं किसी कोने मे बसाए हुए हैं। वे कहते हैं, "कला कभी छूप नहीं सकती वो गुलाटियाँ मारती जरुर है।" वे कभी-कभी नशे के ख़ुमार मे निकल पड़ती है। वे दिवानापन और नाच उठता है सारे परिवार के साथ। बस, फिर क्या होता है? जिस जतन लाल जी को कोई नहीं जानता वो भी ये देखने चले आते हैं कि पहली बार के नशे का ख़ुमार है और थिरकने वाले पाँव रुकते नहीं और जुबाँ कभी अटकती नहीं। ना जाने कितनी बार पहली बार के नशे के ख़ुमार मे कितने गीत निकल गए होगें। वे सवाल लेकिन अब भी कहीं जीवन मे अटक गया है। जिसका जवाब तलाशना किसी के बस का नहीं है।
कई नक्शे बनाये हैं उनके हाथो ने...
लाला प्रसाद जी पिछले कई सालों से लोगों के घर बनाते आये हैं। पेशे से मिस्त्री हैं। पहले के कई सालों तक ये उन जगहों पर खड़े रहा करते थे जहाँ पर इन घर बनाने वालों की भीड़ रहती है। इस भीड़ को शहर की कई जगह पर देखा जा सकता है। जहाँ पर दिन के चड़ते-चड़ते इतने लोग जमा होना शुरू हो जाते हैं कि भीड़ को भीड़ कहना भी गलत लगने लगता है। कई माहिरो का मेला हो जाता है वो। जहाँ पर नौसिखया भी खड़े हैं और गुरू भी। उन्ही को चुनने चले आते हैं लोग। वे जगह हैं, चिराग दिल्ली, दक्षिण पुरी की विराट सिनेमा और आठ नम्बर मोड़, और भी कई होगीं।
अब ये ठेकेदारी मे काम करते हैं। जिसके बिनाह पर और इनके काम की मेहनत से इनको दिल्ली के बाहर भी ले जाया जाता है। घर, कोठी और ऑफिस बनाने के लिए। इन्होनें दक्षिण पुरी मे बहुत कम मकान बनाये हैं लेकिन गज़ के हिसाब को लेकर बहुत कल्पना रखते हैं। इनका अब यही काम बन गया है। इनकी गली मे अक्सर कोई भी घर बनवाने की सोचता भी है तो अक्सर यही उनके घर मे बैठे नज़र आते हैं। जमीन पर कुछ लाइने खींचते हुए या कॉपी पर कुछ बनाते हुए।
कितना पैसा लगेगा? कितना मटिरियल होगा? कितनी इन्टे होंगी या कितनी सिमेंट की बोरियाँ लगेगी। ये सब को सोचते हुए वो नक्शा बनाते नज़र आते हैं।
पैसो का अन्दाजा और जगह का अनुमान देते हुए उन्होनें, गली मे अभी तक कई ऐसे मकान हैं जिनके नक्शे इन्ही के हाथों से होकर गुजरे हैं। कई लोगों ने तो छोटे-छोटे हेर-फेर इन्ही से अपने घर मे करवाए हैं। जैसे किचन, चबूतरा और टंकी। ये सब की सब, जब बनाई जाती है या घर मे इनकी नई जगह बनानी हो तब कोई ना कोई माहौल बना होता है। वो बनाने के ये पैसे भी नहीं लेते बस, दबादब बीढ़ी और चाय पीते रहते हैं।
क्या अदा क्या ज़लवे...
राजेश भाई कभी किसी टाइम मे बहुत अच्छे बॉडी बिल्डर हुआ करते थे। कई कॉम्पटीशन मे इन्होनें हिस्सा भी लिया है पर कभी जीते हैं या नहीं, ये नहीं कहा जा सकता। ज़ीम करते-करते मे कई हड्डियों के और नशो के बारे मे इन्होनें जान लिया है और अच्छी बॉडी होने से इनको दक्षिण पुरी के एक नये ज़ीम कॉचिंग करने की जॉब मिल गई। जहाँ पर पैंतीस लड़के हैं इनके पास एक्सॉइज़ कराने के लिए और पॉज़िंग के लिए भी। हर रोज़ तो बॉडी बनाने की ही एक्सॉइज़ कराया करते हैं मगर बीच-बीच मे बॉडी दिखाने की भी। जिसे पॉज़िंग कहा जाता है। जहाँ आइने के सामने कई लड़के अपनी बॉडी को पॉज़ बना-बना कर देखते और उसमे नये तरीकों से देखने की नज़र होती साइज़, स्टाइल, तरीका, स्पेशिलिटी, बहतरीन कट और बैलेन्स।
इन सबकी अपनी एक आँख रहती है। जो राजेश भाई बखूबी जानते हैं। एक बार इनका मंडी हाऊस मे कॉम्पटीशन था और इन्होनें अपने तीन लड़के तैयार कर लिए थे। कॉम्पटीशन की वज़न कैटेग्री थी। 60 किलो, 70 किलो, 75 किलो, 80किलो, 85 किलो, 90 किलो और उसके ऊपर भी। राजेश भाई के लड़के तो 60 किलो के वज़न मे उतर रहे थे।
ये वहीं पर अपने लड़को को पॉज़िंग करके दिखा रहे है। अपने कपड़े उतार कर तो इनके एक लड़के ने कहा जो इनका बहुत चहेता था जिसको लेकर इनके दिमाग मे बहुत कुछ था वो बोला, "भईया आप भी उतरिये ना 75 किलो के वज़न मे।"
ये कुछ बोले नहीं और बस, हँसकर सारी पॉज़िंग कराते रहे।
उनका उकसाना...
काफी पहले एक जगह जो हमारे दरमियाँ थी। वहाँ पर कई लोग आया करते थे। वो जगह वैसे तो एक देसी कल्ब थी। जहाँ पर सुबह और शाम मे कई लड़के आते थे। लड़के, बुर्ज़ग हर उम्र के लोग आया करते। कई तो अपनी नौकरी ख़त्म होने के बाद मे आते थे तो कई महज़ हवा खाने के लिए ही आते थे। वहीं पर कैलाश भाई आया करते जो सरकारी नौकरी करते। शहर की सफ़ाई करने की उनकी ड्यूटी जैसे ही ख़त्म होती, वो सीधा ऑफिस से वहीं पर चले आया करते। सभी लड़के अपनी-अपनी एक्सॉइज़ मे लगे रहते। वो भी अपनी एक्सॉइज मे लग जाते। वो काफी पुराने थे एक जगह के इसलिये किसी से कुछ नहीं कहते बस, आते और अपनी एक्सॉइज़ मे लग जाते। एक वही थे जो पूरे कपड़ो मे एक्सॉइज़ किया करते, नहीं तो बाकि चाहें अभी हाल ही मे आये हो बस, हल्की सी बॉडी के टाइट होते ही अपनी कमीज़ उतारते और अपने पम्प होते शरीर को आइने मे देखते या वहीं पर नज़र मारते हुए दबादब सैट पर सैट मारते जाते।
बॉडी पर इसका कोई खासा प्रभाव नहीं पड़ता मगर दिमाग मे साइज़ बड़ता ही नज़र आता। एक बार एक लड़के ने कहा, "पता है भाईयो कैलाश उस्ताद की बॉडी क्या धांसू है, मस्त है बेटा, बाईस्कैप देख जरा नहीं तो चेस्ट देखले और सोल्डर तो भंयकर ही है। देखना है? उस्ताद जी उतारो कपड़े उस्ताद उतारो आप।"
वे जानते थे की ये लड़के उनके साथ मे क्या कर रहे हैं या क्या खेल बनाया जा रहा है मगर फिर भी वो हँसते-हँसते कपड़े उतार देते और जैसे-जैसे लड़के बोलते वे वैसे ही अपनी बॉडी को पेश करने मे लग जाते।
एक धक्के की चाहत...
गली और उसमे होने वाले अवसर, कई ऐसे चेहरों को दिखाते हैं जो कभी देखे तो थे लेकिन उनका ज़ोहर कभी आँखो के सामने नहीं आया था। जब वे सामने आ जाता तो उनको देखना अच्छा लगता है। चलो हम उन सभी अवसरों मे से एक अवसर को देखते हैं।
ढोल बज़ रहा है। दबादब... सब देख रहे हैं। एक-दूसरे को देखकर हँस भी रहे हैं। ढोल जैसे-जैसे अपनी ताल पकड़ता है वैसे-वैसे सबके पाँव उठने लगते हैं पर कोई उस घेरे मे नहीं आता। जो उस ढोल को सुनने के लिए लोगों ने बना दिया है।
सब खड़े हैं, देखे जा रहे हैं और इंतजार कर रहे हैं किसी के उस घेरे मे उतरने का।
इतने मे सब दो-दो कदम आगे हो गए। एक लड़की मे अपनी साथ वाली को उस घेरे मे धक्का मारा... पहले वो लड़की आनाकानी करती रही फिर उनमे थोड़ी खींचातानी हुई फिर धीरे-धीरे वो ढीली पडने लगी और एकदम उस घेरे मे उतरी और दबाके नाचने लगी। अब तो ढोल की भी आवाज और ताल तेज हो गई और उन पैरों से बहस करने लगी जो उस घेरे मे उतरे थे।
सभी तैयार थी। एक धक्के के लिए। बस, अब तो धक्के का रिवाज़ शुरू हो गया था। सभी एक-दूसरे को धकेलने लगी।
लख्मी
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