श्याम लाल जी, दक्षिण पुरी के उस समय को दोहराते हैं जब उन्होनें शुरूवात कि थी अपने काम के सफ़र की, शहर मे निकलना व उसके साथ मे समझौते करना। उनके लिए आसान नहीं था। किसी नई जगह में टूटकर आना और फिर उसके बाद मे वहाँ पर अपने लिए जगह बनाना बहुत मुश्किल होता है। उसके साथ मे उस बदलाव को महसूस करना जो धीरे-धीरे उनके अन्दर दाखिल हो रहा है जिसे रोका भी नहीं जा सकता। ये बोल उनके उस वक़्त के हैं जब वे काम की दुनिया से इस्तिफा देने वाले हैं और उस सफ़र को बताने की कोशिस कर रहे हैं जहाँ से वे खाली होकर ही नहीं आए बल्कि उस वक़्त मे रहे हैं।
उनके साथ बातचीत मे वे अक्सर अपने उस दौर का बख़ान करते हैं जिसमे उन्होनें दिल्ली जैसे बड़े शहर को करीब से जानने की कोशिश की। जिसमे उनके साथ मे घटते हर वाक्या उनके घर को दोहराने के कारण बने। अब घर मिट्टी का ढेर नहीं बल्की कई घटनाओं का स्थल लगता है। जिसे वे कभी बताते समय नहीं चूकते। उनके बोलों मे उनके बीते हुए समय की महक बखूबी महसूस होती है। अभी कुछ ही टाइम पहले उनके दिल का ऑपरेश्न हुआ है। जिसमे उनके काम पर बहुत गहरा असर पड़ा। पूरे 12 घण्टे साइकिल चलाने वाला इंसान अब जरा सा भी हॉफ नहीं सकता था। उनको मना थी। नौकरी से तो उनका बहुत पहले ही विश्वास उठ गया था। बस, वे अपने को बताने से पहले एक बात हमेशा कहते, “जब हाथ पैरों मे दर्द होगा तो काम की तलाश शुरू कर दूंगा।" हसंकर अपने को दबा जाते।
ये एक बार की मुलाकात मे नहीं होता था। शायद, उनके अन्दर रम गया था। जो हर बात पर उछल आता था। कभी-कभी लगता था कि ऐसा क्या होता है कि इंसान अपने अतीत को कुरेदने लगता है? कौन सा पल है जो उछट आता है? ये जानना जरूरी होता भी है और शायद नहीं भी। लेकिन उनकी ज़ुबान से ये कुछ गहराई मे चला जाता था।
आज की मुलाकात, खाली उनके ही नाम थी। अक्सर तो बातचीत मे दो आवाजें सुनाई देती थी लेकिन आज सिर्फ़ एक थी वो उनकी, वे कह रहे थे-
25 सितम्बर सन् 1975 मे हम यहाँ दक्षिण पुरी मे आये। हमारे साथ मे कई और परिवार भी थे। यहाँ पर जब कुछ भी नहीं था खाली पड़ा दूर-दूर तक मैदान ही था।
हमें यहाँ शाम के लगभग 5 बजे टैम्पो से उतारा गया था। हांलाकि यहाँ पर कई टैम्पो आये थे मगर हमें हमारी कम्पनी वालों ने टैम्पो करा कर दिये थे, हम उन्हीं मे बैठकर आये थे। जैसे ही हमने यहाँ दक्षिण पुरी मे कदम रखा तो इतनी तेज बारिस शुरू हुई के हम क्या बतायें। बहुत तेज बारिस थी उस वक़्त। पता नहीं क्या सोचकर सरकार ने हम झुग्गी वालो को मकान दिये थे। इतनी तेज बारिश थी के कुछ भी बचाना नामुमकिन था और यहाँ पर कोई जगह अथवा ऐसा कोई ठिकाना भी नहीं था कि हम अपने समान और परिवार वालो को बारिस कि तेज बून्दो से बचा सकें। लगभग तीन या चार टेन्ट से कमरे बना रखे थे उनसे क्या होता है। सिर छुपाने के लिए ले-देकर वही एक सहारा था मगर इतनी तेज बारिस मे समझो वे किसी काम के नहीं थे। अगर पैरों को बचाते तो सिर भीगता, समानो को बचाते तो बच्चे भीगते। बच्चो के सिरो को हमने कढ़ाई और पतीलो से ढ़ाककर बारिस से बचाया था। अगर बिमार पड़ जाते तो दूर तक कोई दवाईखाना भी नहीं था।
खाली यही रात नहीं थी जो हमें काटनी थी। यहाँ का तो हर दिन और रात एक कठिनाई ही बनकर हमारे सामने खड़ी हो जाती। आसपास की जगहों के बारे मे भी नहीं पता था की यहाँ सबसे पास मे कौन सी जगह है जो वहाँ पर चले जाते। बस, यहीं के होकर रह गए थे। हां, बच्चो के लिए अच्छा रहा कि खेलने के लिए बहुत जगह थी। सवेरे छोड़ो तो शाम मे ही अपनी शक़्ल दिखाते थे बच्चे। उस समय एक पैसे के सिक्के बहुत थे मेरे पास, जो चलना बन्द हो गए थे तो सारे बच्चे उसी से अपना खेल खेलते थे, कभी "कल्ली-जोट" तो कभी "खड़ी"।
दक्षिण पुरी मे सारे साधन धीरे-धीरे ही आये, जैसे हर चीज का प्लान पहले से नहीं था। बस, लोगों को डाल दिया उसके बाद मे उनके लिए चीजें मुहाइया करा दी जायेगीं। यही सिलसिला चलता रहा था आने वाले दस सालो तक। सबसे पहले देखा जाये तो यहाँ पर यतायात का साधन डाला गया। मगर, वो भी सन् 1979 मे, उसके दो साल के बाद लगभग 1981 मे यहाँ पर बिजली आई। मुझे याद है जब मेरा दूसरा लड़का हुआ था तो उसी दिन हमारे घर मे बिजली का मीटर लगा था। ले-देकर हमें चार साल तक पैदल ही काम करना होता था। जगह तो मिल गई थी मगर, यहाँ पर भूखा भी तो नहीं रहा जा सकता था ना, पेट के लिए और बच्चे अगर रोटी मांगेगे तो क्या उनसे ये कहेगें कि बेटा इस खुशी मे रोटी मत मांग की हमें हमारा घर मिल गया। ऐसा कहीं नहीं होता। यहाँ से सभी लोग लगभग चार किलोमीटर तक पैदल जाया करते थे काम करने के लिए। यहाँ से देखा जाये तो एक ग्रेटर कैलाश ही सबसे पास मे था जहाँ पर यहाँ की औरतों ने काम करना शुरू किया। घर से निकलते ही जगंल था तो उसी को पार करते और बस, पहुंच जाते और हम लोग तो चिराग दिल्ली तक पैदल जाया करते थे। पूरा तीन किलोमीटर पड़ता है वो, उस समय मे तो कोई गाड़ी नहीं थी। बस, एक बस चलती थी उसका नम्बर मुझे ठीक से याद नहीं है मगर वो विराट सिनेमा जहाँ बना है वहाँ से चलती थी और कालका जी मन्दिर, गोविन्द पुरी, ओखला और बस अड्डे तक जाती थी। फिर उसके बाद मे सन् 1982 मे यहाँ पर 580 और 521 नम्बर की बस चलाई गई। 521 नम्बर की बस यहाँ दक्षिण पुरी से प्लाजा जाती और 580 नम्बर की बस केन्द्रिय सचिवालय तक जाती। वैसे यहाँ पर आप 521 नम्बर की बस जितनी लगा दो उतनी कम है। इतनी सवारी है यहाँ पर कि लोग एक-दूसरे पर लदने के लिए तैयार हो जाते हैं।
मैं कभी नहीं भूल सकता आर.टी.वी बस का सफ़र, जिसमे मैं रोज महज़ तीन किलोमीटर का सफ़र तय करता हूँ। आर.टी.वी छोटी बस है जो महज़ मूलचन्द तक चलती है पर उसमे कोशिस होती है कि पूरी बड़ी बस की सवारी भर दी जाये। उस बस के कन्डैक्टर की ज़ुबान पर हमेशा गाली व अपशब्द रहते हैं जो कभी सवारी को इंसान नहीं समझ सकतें। हां, एक बात जरूर है वे अगर दक्षिण पुरी आने वाले को बीच सड़क पर भी खड़ा देख लेते हैं तो बीच सड़क पर ही गाड़ी रोक देते हैं उस ले आते हैं। लेकिन, गाड़ी मे ये इनका बस नहीं चलता, नहीं तो लोगों को एक के ऊपर दूसरे को तय लगाकर खड़ा कर दें।
मैं सवेरे आठ बजे घर से निकलता हूँ अगर, दो मीनट की भी देरी हो जाती है तो बस मे खड़े रहने की भी जगह नहीं मिलती और दो मीनट की देरी लगभग आधे घण्टे की देरी समझलो। कभी भी अपने टाइम पर काम पर नहीं पंहूच सकते। वैसे देखा जाये तो दो मीनट के अंतराल मे आर.टी.वी चलती है लेकिन फिर भी लोग दरवाजे पर लटके रहते हैं। ड्राइवर की सीट पर दो आदमी बैठे होते हैं और बस का कन्डेक्टर गाड़ी के पीछे वाले शीसे पर लटक कर टिकट बना रहा होता है। ये सब इसलिये नहीं है कि गाड़ी कम है बल्कि इसलिए है कि लोगों को जल्दी है। वापसी मे तो मैं हमेशा ही गेट पर लटक कर आता हूँ। शर्म भी आती है मगर अब पैदल आया-जाया नहीं जाता। एक टाइम था जब मैं बिमार पड़ा था तो मुझे होली फैमिली अस्पताल मे भर्ती कराया गया था। मुझे खून की उलटियाँ हुई थी तो मेरी बीवी और बच्चे काम करके वहाँ आते थे। ना जाने कितना पैदल चलना पड़ता होगा उन्हे। आज के वक़्त मे मेरे कुछ दोस्त कहते हैं, "दिल्ली मे जो आदमी पैदल चल रहा है वो बेवकूफ है, क्योंकि यहाँ पर हर जगह बस जाती है।" मगर उन्हे क्या पता? उस वक़्त को सोचता हूँ तो आज का वक़्त कैसा भी हो सहीं ही लगता है। आने वाला समय तो शायद ऐसा होगा की लोग एक-दूसरे से चिपक कर चलेगें शायद, भीड़ ही इतनी हो जायेगी।
जब मैं बस मे लटक कर आता हूँ तो लोग कहते होगें कि देखो बुढ्ढे को देखो कैसे जवानी छा रही हैं मगर, क्या कंरू मेरी मजबूरी है। बस, यही है दक्षिण पुरी से बस के साथ हमारा रिश्ता।
और फिर अपने आपको दोहराने का पन्ना वो एक मासूम सी हंसी के साथ मे बन्द कर देते। ना जाने कितने ही पन्ने अभी खुलने बाकि हैं। जिनका इंतजार वक़्त नहीं मगर कोई मुलाकात करती है। किसके साथ होगी? कहाँ होगी? और किस वक़्त होगी ये कुछ पता नहीं है।
लख्मी
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