Friday, November 28, 2008

इसमे सभी शामिल है

कला का हमारे आसपास और समाज मे विभिन्न तौर का रिश्ता बना हुआ है जो मानने और जानने के बीच ही टिका रहता है और शायद इससे ही समाज चलता है। हाथो के बाँटने से उपजता है और एक हाथ से दूसरे हाथ कि लेन-देन से फैलता है। अगर यही समाज है तो फैलाव है क्या?

दो भागों के दरमियाँ ही कला का रूप उभरकर आता है। और किसी एक जीवन मे भी इसका आधार सामान्य तौर पर नहीं होता। कोई कला पैदा करता है तो कोई कला को बढ़ाता और चलाता है।
दोनो के ही महत्वपूर्ण कार्य योग हैं।

कला पैदा करने के ढाँचे हमारे आसपास ओझल हैं पर कला को चलाने और बढ़ाने के ढाँचे नज़र आते हैं। ढाँचे और कला अब भी वही हैं जो सिखने-सिखाने के दौर मे रहते हैं।

कला पैदा करना क्या है? कई लोग जो अपने जीवन के तरीकों को कोई उपकरण देते हैं जो शायद कार्यशील भी होता है पर उसका बाहर आना अपनी जगह पर रहने के दायरों से बाहर ही होता है। तो ये क्या है?

एक शख़्स से मुलाकात हुई, राजू जी जो बहुत अच्छे एक्टर हैं और कई अलग-अलग तरह के नाटक भी कर चुके हैं। एक नाटक मण्डली भी बना रखी है जिसमे वो अलग-अलग लॉकेल्टी मे जा जाकर नुक्कड़ नाटक करते हैं और अपने रॉल को खुद लिखते हैं। कैसे? और कहाँ से? उनकी एन्ट्री होगी उसे तैयार करते हैं पर कभी भी अपने ब्लॉक या इलाके मे नुक्कड़ नाटक नहीं करते। बहुत कम लोग हैं जो शायद ये जानते होंगे कि वो नुक्कड़ नाटक भी करते हैं।

अपनी जगह से बाहर मे अपनी कला को दिखाना क्या है? क्या है जो वो अपने यहाँ नहीं दिखा सकते? बाहर दिखा सकते है?

ये कोई ऐसी कला नहीं है जो किसी को खुश करने वाली हो। अपने लिए एक जीने का तरीका होता है अथवा वो किसी ढाँचे या स्पेस का इंतजार करती है? क्या हर किसी को खुलने के लिए किसी ख़ास जगह या शख़्स का इंतजार होता है?

एक और शख्स के बारे मे बताता हूँ, जो गिटार सीख रहे है अभी और काम पर से आने के बाद अपनी छत पर बैठे गिटार पर अगुंली चलाते रहते हैं। उनका रियाज़ अपनी छत पर ही चालू रहता है। गानों कि उन्होंने कॉपी बनाई है और उसी मे लगे रहते है पर आजकल उन्होंने एक टाइम बनाया हुआ है बाहर लोगों के साथ मे इसको बांटने का जैसे ही वो कोई गाना बजाने मे सक्षम हो जाते हैं रिदम, ताल, लय मे सबमे परफेक्ट हो जाते हैं तो रात मे गली मे खाट बिछाकर अपना गाना बजाने लगते हैं। जिससे शायद कोई सुने या ना सुने पर जो लोग गली मे खाट बिछाकर सोते हैं वो सुनते हैं और बड़े शौक से।

मेरे हाथों से कोई चीज़ बन रही है या आकार ले रही है वो मेरे लिए क्या है? और मैं उसे अब रोजाना बना रहा हूँ तब वो क्या है?

बस्ती के काफी पुराने शख़्स घसीटाराम जी के पास जाओ तो वो अपनी कॉपी का जिक्र करते हैं। उसके कितने पेज थे? उनपर क्या-क्या लिखा था? और किन-किन रंगो के पेनों से, सब पता है उन्हें। उसी से अक्सर बात शुरू होती है जिसका लगभग वही पेज हमेशा खुलता है जिसमे वो पहली बार 'रसिया' गए थे। वे लिखा होता है। मगर असल मे वो कॉपी है ही नहीं। वो जानते हैं हमारे सुनने कि इच्छा को और बैठने कि ललक को। हर बार वो उस माहौल को बनाने मे समक्ष हो जाते हैं।

किसी आकार और रूप को देखने कि नज़र मे कला उभरती है तो बिना आकार और रूप के वो क्या है? कोई कुछ बनाकर दिखा दे वो कला और जो अपनी बातों मे लीन कर ले या मोह ले वो जादूगर। पर इसके अलावा जानना क्या है?

लोग जानने और बनाने कि कग़ार मे कलाकार छुपाते हैं और कलाकार कि कग़ार मे गुरू। गुरू जिसका रिश्ता इनके बीच उपजने का होता है। वो उपजना जिसके अंदर कई सारी बातों का पुष्टीकरण हो।
हाजिर जवाब, शातिर, अपनी पब्लिक को समझने वाला, हर चीज पर बोलने वाला

एक छवि है और एक छवि को सोचते हुए ऑदा। जो नवाजे जाते हैं लाइनो से।
जैसे, घाट-घाट का पानी पिया है, पुराना चावल है या गुरु आदमी है।

एक जो पढ़ा लिखा है और दूसरा जो देखा दिखाया है। यानि जहाँ पर रहता है वहाँ के बारे मे हर बदलाव को देखा और समझा है पर ये क्या है समाज मे?

ज्ञानी, जिसके लिए कोई कोना या जगह बनाने कि जरुरत नहीं। वो शख़्सियत अपने आप मे एक ढाँचा पाये हुए है। उसको जीते हैं कि उसकी समझ का कोई ना कोई हिस्सा हम मे या हमारे बच्चों मे उतर जाये जिससे आने वाला समय और अभी का चलता समय बड़ी सहजता से गुजरे फिर चाहें वो किसी भी चीज का ज्ञान हो।
ये एक अन्तर ही तो है, ज्ञानी और कला मे अंतर लेकर जीते हैं लोग।

कला जो आकार या रूप लेकर कलाकार बनाती है तो ज्ञानी जो ज्ञान पाता है। वो किसी जगह, शब्द या जीवन को समझता है तो वो कला नहीं है वो तरीका है। इसमे फिर लैवल काम मे आता है। कला अटपटा लगने लगता है। यहाँ बनता है तरीका। उसके जैसे तरीके अपनाओ और अपनी लाइफ़ जीओ।
ज्ञानी जो जगह बनाने मे जूझता नहीं। वहीं कलाकार अपनी जगह बनाता है। उसकी जगह तैयार नहीं होती वो जगह तलाशता है। कला बाँटने वाले ढाँचे नज़र आते हैं।

कुछ कला अपने दायरों को बनाती हैं। लोगों मे आने को उत्सुक होती हैं। "मुझे देखो" कि अपेक्षा होती है। जिसमे किसी शख़्स कि शख़्सियत बनने और काम, रिश्तों के अलावा एक ख़ास पहचान बनाने कि लालसा होती है। एक चेहरे कि खुशी के साथ।

जानने और मानने का दौर रहता है।
मैं जानता हूँ - जन्म होना।
मैं मानता हूँ - जन्म को दोहराना।

ये खेल है, इसमे सभी शामिल है।

लख़्मी

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