खान पूर से मूलचन्द फ्लाई ओवर तक के सफ़र मे दिखने वाले कई लोग। जो ना तो सवारी है, ना घुमने आए लोग, ना तस्वीरे खींचने वाले हैं, ना बस चलाक है और ना ही किसी की जेब काटने वाले हैं। ये कौन है? जो सबसे ज़्यादा नज़र आते हैं।
काला रंग, मोटा खादी का कपड़ा, नारंगी रंग की जैकेट और उसी रंग की कैप पहने, ये पूरी सड़क पर भरपूर दिखाई देते हैं। कुछ प्राइवेट बस के कन्डेक्टर तो इन्हे छेड़ने के अन्दाज मे बैण्ड वाले भी कहकर पुकारते हैं। दिन भर ये उसी जगह पर खड़े दिखते है जहाँ पर सवेरे दिखे होगें। कभी जगह बदलती नहीं है। ये कौन है?
इन्हे ना तो हम ट्रफिक पुलिष वाले कह सकते हैं और ना ही कोई सिविलियन शख़्स जो ट्रफिक ज़्यादा हो जाने पर हाथ मे डंडा पकड़े खड़ा हो जाता है। चलिये इन्हे हम खुद ही एक नाम देते हैं। ट्रफिक सहायक।
ट्रफिक भरे रास्तों पर या इस रोड पर पहले नज़र आने वाली वर्दी सफेद और नीले रंग की होती थी। हर जगह, हर समय कभी तो सड़क के किनारे पर खड़े होते थे तो कभी ऐसी जगह पर जहाँ से वो सब कुछ देख सकते हैं मगर उन्हे कोई नहीं देख पायेगा। ताकि चुपके से धर लिया जाए। "ला बेटा सौ का नोट।"
बी आर टी कोरिडोर, बनने के 6 महिने तक, हर जगह छाया रहा। टीवी, न्यूज़ चैनल और लोगों की बातों मे। इसके शुरू होने से ही कई आन्दोलन भी शुरू हुए। मरने वालो की भी तादात बड़ गई। जब देखो बी आर टी को बताया गया किसी ना किसी मौत से। अब सड़क पर मरने वाले लोग सारे बी आर टी से ही मारे जा रहे थे। शायद, ऐसा हुआ भी होगा। छोटी कालोनियों मे तो ये गज़ब ही तरह से फैला था। बसों के आने से सवारियाँ कई प्राइवेट बसों कि कम हो गई थी। ये और लड़ाई शुरू हो गई सड़क पर।
कोरिडोर के आ जाने से दिल्ली के कई लोगों को नौकरी के साधन मिले। खानपूर से मूलचन्द के रास्ते मे देखा जाये तो लगभग 127 लोग हैं जो कोरिडोर के आसपास काम करते हुए नज़र आते हैं। जिनकी उम्र की कोई सीमा नहीं है। इनमे 25 साल से 45 और 50 साल से भी ज़्यादा के हैं। पूरा रोड इन्ही से भरा हुआ दिखता है। इनमे से कोई हाथ मे कॉपी व पैन लिए खड़ा होगा, कोई कार वाले से लड़ रहा होगा, कोई चुपचाप किसी का नम्बर लिख रहा होगा, कोई सड़क पार करने वालो को रोक रहा होगा, कोई बस लेन को खाली करा रहा होगा, कोई बस, खाली सड़क को निहार रहा होगा, कोई किसी से बातें कर रहा होगा तो कोई किसी को रास्ता पार करा रहा होगा। ये नज़ारे पूरे कोरिडोर मे फैले हैं।
हमारी भी कुछ इन्ही ट्रफिक सहायको से बात हुई, जिसमे उन्होनें अपने शहर के साथ रिश्ते को बताने की कोशिस कि और साथ-साथ ये भी की ये सिलसिला कहाँ से और कैसे शुरू हुआ? क्या हम जानते हैं कि जो इन कामों मे हमे सड़क के किनारे नज़र आते हैं वे लोग कौन हैं? और उनका शहर को देखने का नज़रिया क्या है?
ट्रफिक सहायक- शेख़ सराय कोरिडोर
"मैं तो ठेकेदार की वज़ह से आया हूँ। पहले तो कोई काम नहीं था मेरे पास, ठेकेदार है हमारा उसने लगवाया है मुझे। मैं आज 42 साल का हूँ । जिसके लिए शायद कोई काम नहीं होता, हाँ कभी चौकीदारी का काम जरूर मिल जाता है। लेकिन वो भी किसी की सिफ़ारिश से ही हो पाता। काम के लिए घर मे बैठा था। ठेकेदार हमारी जान-पहचान का है उसी ने लगवाया है। पहले तो मैं पुल बनवाने मे काम करता था। दिल्ली मे मेरा सबसे पहला यही काम था। जमीन की लम्बाई-चौड़ाई नापना। चौकीदारी ही करता था मैं वहाँ। तो उसमे लगातार काम तो होता नहीं था। कभी 3 महिने तो कभी 6 महिने। लेकिन जब थोड़ा अनुभव हुआ तो काम 3-3 साल का मिलने लगा। अब तो जब तक जीवन है तब तक लगे रहेगें। यहाँ से अच्छा मिल जाता है।"
चिराग दिल्ली बस स्टेंड, टाइम- रात 8:00 बजे
ट्रफिक सहायक- कृषि विहार कोरिडोर
"मेरी तो जगह ही बदलती रहती है। कोई फ़िक्स नहीं है। कभी कहीं तो कभी कहीं। ये मेरी पहली नौकरी है। मैं बहादूर गढ़ का रहने वाला हूँ। जहाँ के बहुत सारे ड्राइवन बीआरटी बस चलाते हैं। यही काम मिला पहला तो यही कर लिया। सही है पैर जमाने के लिए। लेकिन बस, दिन मे बहुत दिमाग ख़राब हो जाता है साला, ना चाहते हुए भी सिर मे ढोल से बजने लगते हैं। रात मे भी दिमाग सुन पड़ा रहता है। अगर कोरिडोर के मजे लेने है तो रात मे आओ सर, साला बाहर की कंटरी लगता है पूरा रोड। बहुत ही बड़िया लगता है।"
ट्रफिक सहायक- मूलचन्द कोरिडोर
"अपना तो काम ही यही है बोस, मजा आता है लोगों को डराने मे। एक कॉपी लेकर खड़े हो जाओ फिर देखो लोग कैसे आपसे नज़र छुपाकर निकलते हैं। हम भी तो शहर के लिए काम करते हैं। मैं तो यहाँ पर जो ठेकेदार है उसके साथ 17 साल से हूँ। पहले हम सर्वे करते थे। वैसे इस काम मे कई लोग चौकीदारी करने वाले भी हैं। जो सरकारी जगह बनने पर रखे जाते हैं। मेरा ज़्यादा काम नहीं है। पूरा दिन पुल के नीचे ही खड़ा रहता हूँ। बस, जो भी ग़ैर गाड़ी कोरिडोर मे दाखिल होती है उसे रोकता नहीं हूँ बस, नम्बर लिखकर रख लेता हूँ। शाम मे उन नम्बरों को ट्रफिक पुलिस वाले को दे देना मेरी ड्यूटी है। बस, यही अपना वर्क है मस्त...।"
ट्रफिक सहायक- अर्चना कोरिडोर
"सब अपनी मर्जी से होता है बड़े भाई। ये इतना वक़्त बचाता है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन यहाँ पर सबको जल्दी ही रहती है। पता नहीं क्यों लोगों जल्दी मे रहते हैं। पहले बसों का क्या हाल था बताइये जरा? घण्टो खड़े रहना होता था। मगर आज बस मे सफ़र करने वाले जल्दी घर मे पँहूचते हैं। इस रोड पर कार वालो के लिए देरी है। और उन्ही के चलान होते हैं। पता है आपको पिछले एक साल मे सबसे ज़्यादा चलान कार वालो के हुए हैं। अगर कोई दो मिनट रूके तो कोई ना मरे। पर यहाँ पर फुर्सत ही कहाँ है किसी पर। हम भी तो यहाँ पर बस को हाथ देकर रोकते हैं। हमें तो कुछ नहीं होता। लेकिन यहाँ पर लोगों का क्या हाल है आपको पता है? वो फिल्म देखी है? कालिया, उसमे वो डायलॉग है ना। हम जहाँ पर खड़े हो जाते हैं लाइन वहीं से शुरू हो जाती है। सब, सबको बस स्टेंड भी ऐसे ही चाहिये, जहाँ खड़े हो गए बस स्टेंड तैयार।"
ट्रफिक सहायक- मदनगीर कोरिडोर
"हमें तो कतई नहीं भाता बाबू की हम किसी से मूंहजोरी करें। हम तो अपना काम करते हैं। हमें पता है गर्मी मे आदमी का दिमाग गर्म हो जाता है और हमारा क्या बाबू। जब जाते हैं हम इन कपड़ो मे। मगर ये बहुत बड़िया है कि बस मे सफ़र करने वालो को आराम हो गया।"
ये इतनी आवाजों के बीच मे रहते हैं। ना जाने कितने तरह के शब्द, माहौल और घटनाए इनके सामने से गुजरती हैं हर रोज। तो ये सोचते हुए अक्सर एक सवाल दिमाग मे रहता था, "जब ये घर मे वापस लौटते होगें तो अपने घर की आवाजों को कैसे सुनते होगें? घर के माहौल को कैसे अपने मे घोलते होगें? या कैसे माहौल मे घुलते होगें?”
मूलचन्द बस स्टेंड, टाइम- दोपहर 2:00 बजे
लख्मी
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