Wednesday, April 15, 2009

वो कहीं दूर चली गई थी

इन्चीटेप लिए हाथ में वो किसी जगह की तरफ में बढ़ रही हैं। कोई उन्हे पीछे से कई आवाज़ें मार रहा है लेकिन उनके कान किसी भी आवाज़ को सुनने के लिए राज़ी नहीं हैं। वे तो बस, जमीन पर बढ़े चले जा रही हैं। वो नंगे पाँव हैं और जमीन पर कई छोटे-छोटे पत्थर हैं। गड्डों से पूरी जमीन भरी पड़ी है। वे काफी दूर तक आ गई हैं। जहाँ पर कोई भी नज़र नहीं आ रहा। कुछ समय के बाद में वो पीछ मुड़कर देखती हैं तो बहुत सारे लोग हैं जो बहुत दूर खड़े हैं उन्हे जोरों से आवाज़ें दे रहे हैं लेकिन कोई भी आवाज़ उन तक नहीं पँहुच रही है, हाँ इतना महसूस हो रहा है कि वे सारे हाथ हिला रहे हैं।

वो 'जाने दो', अपने मन में कहती हुई आगे की तरफ बढ़ती जा रही हैं। जमीन को देखती हुई वो नीचे बैठ गई। अपने हाथों मे पकड़ी इन्चीटेप से वो जमीन को नापना शुरू करती हैं। वो वहीं तक नाप पाती हैं जहाँ तक उनके हाथ फैल सकते हैं। वो अपने हाथों को और फैलाना चाहती हैं लेकिन ये संभव नहीं है। वो बहुत जोर लगाती हैं की उनके हाथ फैले मगर ये होना मुश्किल हो रहा है।

वो थक जाती हैं इधर से उधर नज़र दौड़ाने लगती हैं। कुछ सुझ नहीं रहा। कुछ देर के बाद में वो वहाँ से उठकर कुछ दूर चलने लगती हैं। कुछ तलाशने की चाह में। जमीन को देखती हुई वो आगे जब बड़ती हैं तो मन अब यहाँ पर रूकने का करने लगता है। मगर पीछे वाली जगह भी तो काफी भली थी। लेकिन मन में अब कुछ और आने लगा था। वो उस पहले वाली जगह को देखती हुई नीचे बैठ गई। यहाँ पर भी उन्होनें अपने हाथों को फैलाने की बेइन्तहा कोशिश की लेकिन वो फैला नहीं पाई।

इस खुले से आलम मे वो बेहद खुश हैं। ख़ुद के हाथों से कुछ मापने की कोशिश उन्हे रोशन कर रही है। वे हर जगह पर जाकर अपने मन में कुछ आंकड़े से गुनगुनाने लगती हैं। छोटे-छोटे पत्थर चुनकर वहाँ पर रखने लगती हैं। बहुत जल्दी में हैं। मियाँ काम पर भी जाने के तैयार हो चुके होगें। उससे पहले ये सारा निबटाना है। दिमाग दोनों ओर घूम रहा है और वो नाच रही हैं। लगभग पाँच मिनट के ही बीच में उन्होनें कई छोटे-छोटे पत्थर चुनकर चार बड़े-बड़े आकार के डिब्बे बना दिये। चार में से तीन तो आमने सामने थे लेकिन एक डिब्बा थोड़ा दूर था। वे उसे देखकर ख़ुश थी।

वो वहीं पर बैठ गई। पहले उन्होनें अपनी इन्चीटेप को खोला और एक कोने से दूसरे कोने तक कुछ नापा, थोड़ी देर उसे खोलकर बैठी रही, फिर उन्होनें कुछ बड़बड़ाया और फिर इन्चीटेप को और खोला। उसके बाद में वो दूसरे छोर पर चली गई। वहाँ पर भी उन्होनें कुछ ऐसा ही किया। जिस-जिस जगह पर उन्होनें नपाई ख़त्म कर दी थी वहीं पर उन्होनें एक बड़ा सा पत्थर रख दिया।

अब उनमें बहुत तेजी आ गई थी। काम शुरू हुआ। कहीं पर जाती और कुछ मोटे भारी पत्थर उठाकर ले आती। बस, कहीं जाती और पत्थर उठा लाती। वे ये लगातार कर रही हैं। कोई अगर साथ देने वाला नहीं है तो वो खुश है की उन्हे कोई रोकने वाला भी नहीं है। उनकी इच्छा उनके नाम है।

अभी सुबह के 6 बजे हैं। थकावट बिलकुल भी नहीं हो रही है। शरीर काफी हद तक हल्का सा महसूस हो रहा है। कितनी सारी आवाज़ें कानों में गई होगीं लेकिन याद एक भी नहीं है। बस, बिना बोलों के कोई आवाज़ याद है। जिसमें किसी गाने की धून है। बहुत ही मदहोश कर देने वाली आवाज़ है। जिससे थकावट का कोई असर नहीं है।

छत इतनी जल्दी बन जायेगी इसका तो अंदाजा भी नहीं था। एक पल को तो लगा जैसे उसी जमीन पर कमर टूटी है जिसपर हाथ फैलाने में तकलीफ हो रही थी। लेकिन यहाँ पर भी वही सब कुछ था जो वो बीते कल में छोड़ आई थी। बल्लियाँ एक के ऊपर दूसरी घूसी हैं। उसमें कई पन्नियाँ लटकी हैं। कोनों में कई कागज़ ठूसे हैं। इन्हे देखकर ही तो बीते कल की यादें ताज़ा हो जाती हैं। वो वापस वहीं पर भागी, जहाँ पर वो अपने हाथ फैलाना चाह रही थी। वहाँ पर अब कुछ भी नहीं था। बस, एक मैदान जिसमें कई लोग बैठे हैं। उन्हे लग रहा था कि ये वही लोग हैं जो उन्हे आवाज़ें देकर, हाथ हिलाकर बुला रहे थे। वो भागी-भागी उन डिब्बो के पास गई जो उन्होनें ख़ुद अपने हाथों से बनाये थे। वहाँ पर जाने के बाद में वो थोड़ी हैरानियत से बाहर निकली। लेकिन यहाँ पर भी खाली वही एक डिब्बा रह गया था जो चार में से अलग बनाया था उन्होनें। वो तीन नहीं दिख रहे थे जो एक साथ थे। वो थोड़ा परेशान सी थी लेकिन करती भी तो क्या? बस, उसी डिब्बे में बैठ गई।

वो बिना बोलो का संगीत ख़त्म हो गया था। अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वो दोबारा से उसी बल्लियों के नीचे थी जिनमें बीते कल की निशानियाँ कैद हैं, यादें कैद है मगर रिश्ते आजाद हैं। उन्ही के बीच में वो ज़िन्दा हैं।

लख्मी

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