Saturday, April 4, 2009

मैं बेखौफ़ जीता हूँ

मैं बेखौफ़ जीता हूँ मगर मुझे अनहोनी से लगता है डर
सब कुछ ठीक क्यों नहीं चलता लगी रहती है रोज़ाना कोई फिकर।

मैं लाख कोशिशें करूँ बार-बार भागूं
मगर वो डर मेरी परछाई को भी नहीं छोड़ता
स्वंय को बचाने के लिए किसी स्वंय को मारना पड़ता है।
चला जाता हूँ जिस तरफ आग ही आग नज़र आती है
ये तो कोई अग्निपथ है जिसमें ज़िन्दगी जली जाती है।

घाव इतने बने हैं शरीर पर कि लगाने को दवा कम पड़ती है
मुझे कोई तो हमदर्दी दिखाओ दोस्तों
आज जीने को ज़िन्दगी कम पड़ती है।


मैं बेचैन रहता हूँ ये सोचकर की मैं कौन हूँ
आइना न मुझे दिखाओ दोस्तों
इस में कोई अन्जानी सी शक़्ल दिखती है।

जब शहर में कोई आंधी आती है
धूल, मिट्टी और बहुत से कण ले आती है
ये तो मौसम है इसका क्या भरोसा
कभी-कभी अपनो से भी तकलीफ हो जाती है।

इस तकलीफ को मेरी कमजोरी न समझना दोस्तों
मेरी तबीयत तो बस, यूँ ही बिगड़ जाती है
इसमें किसी का दोष नहीं
मेरी भूख ही ऐसी है जो मुझे
रह-रह कर भटकाती है।

किसी गिद्ध की तरह मेरा मन उडता है
होता कहीं और कहीं और देखता है
मेरा यकिन करना ही मेरी उलझन बन जाती है
जो मुझे सच के विपरीत सपने दिखाती है
अक्सर मुझे कोई नींद अपने पास बुलाती है।

राकेश

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